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Wednesday, June 19, 2013

aslam qasmi reply pt. mahendrapal arya samaji pandit


Hindi Book "महेन्द्रपाल आर्य बनाम कथित महबूब अली"  के द्वारा उठाई गयी आपत्तियों की विश्लेषणात्मक समीक्षा

लेखकः
डा. मुहम्मद असलम कासमी
                   Ph.D.

फोनः 9837788115
E-mail:   dr_aslam.qasmi@yahoo.com

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aslamqasmi.blogspot.in

पुस्तकः हकप्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश
एवं सत्यार्थ प्रकाश समीक्षा की समीक्षा पढने के लिए देखें
satishchandgupta.blogspot.in

प्रकाशित:
सनातन सन्देश संगम
मिल्लत उर्दू एकेडमी, मौहल्ला सोत, रुड़की, उत्तराखंड

HIndi PDF Book Links महेन्‍द्रपाल आर्य बनाम कथित महबूब अली के द्वारा उठाई गयी आपत्तियों की विश्‍लेष्‍णात्‍मक समीक्षा 
http://www.mediafire.com/view/q9waa7j9278ccw7/aslam_qasmi_rep_Mahendra_pal_Arya.pdf
&
http://www.scribd.com/doc/148479080/Aslam-Qasmi-Reply-Mahendra-Pal-Arya 

  दो शब्द 
आज़ादी के बाद भारतीय मुसलमानों को जहाँ कई प्रकार की समस्याओं का सामना है वहीं एक यह भी है कि एक विशेष मानसिकता के लोग इस्लाम और मुस्लमानों पर झूठे और बेतुके इल्जामात लगाकर उन्हें मानसिक उलझनों का शिकार रखना चाहते हैं। जिहाद सम्बन्धित कुरआन-ए-करीम की कुछ आयतें इनके खास निशाने पर रही हैं। इस तरह के आरोपों के कई प्रकार से उत्तर दिये जा चुके हैं स्वयं एक स्वामी ‘‘लक्षमी शंकर आचार्य’’ जिन्होंने कुरआन की ऐसी ही आयतों पर आधारित एक पुस्तक लिखी थी परन्तु जब उनके सामने सच्चाई पेश की गयी तो उन्हें अपने किये पर खेद हुआ, और उन्होंने अपनी पुस्तक से दस्त बरदार होते हुए स्वयं उक्त आपत्तियों के उत्तर पर आधारित एक पुस्तक ‘‘इस्लाम आतंक या आदर्श’’ के नाम से लिखी जिसमें उन्होंने अपनी गलती को स्वीकार करते हुए अल्लाह और उसके रसूल से और मुसलमानों से क्षमा याचना की है, और अपने ही द्वारा उठाये गये प्रश्नों के उत्तर स्वयं प्रस्तुत किये हैं। परन्तु अब शत्रु मानसिकता एक नया मोहरा लेकर आयी है। इस सरसरी लेख में उस नये मोहरे की वास्तविकता पर विचार किया गया है। अगर इस लेख में कहीं कोई बात वास्तविकता से हट कर दिखाई दे तो कृपया मुझे सूचित करें। मैं उसे वापस लेने को तैयार हूं ।
- डा. मुहम्मद असलम कासमी
        मोबाईल फोन: 9837788115
 मिल्लत उर्दू एकेडमी, मौहल्ला सोत, रुड़की

पंडित महेन्द्रपाल आर्य का लिखा आपत्ति पत्र ‘‘कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं’’ के शीर्षक का एक पत्रक मानवाधिकार आयोग के एक मेम्बर द्वारा प्राप्त हुआ, उन्होंने बताया कि यह पत्रक आयोग को डाक द्वारा मिला था। उस में जो आपत्ति जताई गई है वह कोई नई बात नहीं है। इस तरह की आपत्तियां इन्टरनेट पर काफी दिनों से मौजूद हैं जिनका भिन्न-भिन्न स्तरों से जवाब भी दिया जा चुका है। यों भी यह वही बातें हैं जो गत सैकडों वर्षों से इस्लाम विरोधी जताते रहे हैं और उस के अनेक बार अनेक लोगों की ओर से संतोषजनक और स्पष्ट उत्तर दिये जा चुके हैं। मुझे यह पत्र पहली बार प्राप्त हुआ है मैं भी पंडित महेन्द्र पाल के समक्ष उत्तर प्रस्तुत करुंगा, परन्तु एक बात का विश्लेषण आवश्यक है। वह यह कि महेन्द्रपाल की ओर से यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि वह पूर्व में मौलवी महबूब अली थे, केवल मौलवी ही नहीं अपितु हाफिज-ए-कुरआन भी थे। ज्ञात हो कि मौलवी वह होता है जिसे कुरआन, हदीस, फिका, तफसीर, अकाइद, इल्म-ए-कलाम, मन्तिक, फलसफा आदि का पूर्ण ज्ञान हो। यह सब ज्ञान अरबी भाषा के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। अतः एक मौलवी अरबी भाषा का पूर्ण ज्ञानी होता है। यह कोर्स करीब पन्द्रह वर्षो का है।

  • आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें अध्याय का अनुक्रमिक तथा प्रत्यापक उत्तर(सन 1900 ई.). लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी 
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मुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल . amazon shop लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
  • '''रंगीला रसूल''' १९२० के दशक में प्रकाशित पुस्तक के उत्तर में मौलाना सना उल्लाह अमृतसरी ने तभी उर्दू में ''मुक़ददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल'' लिखी जो मौलाना के रोचक उत्‍तर देने के अंदाज़ एवं आर्य समाज पर विशेष अनुभव के कारण भी बेहद मक़बूल रही ये  2011 ई. से हिंदी में भी उपलब्‍ध है। लेखक १९४८ में अपनी मृत्यु तक '' हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश''  की तरह इस पुस्तक के उत्तर का इंतज़ार करता रहा था ।
दूसरी डिग्री महेन्द्रपाल (महबूब अली) के पास उनके दावे के अनुसार हाफिज की भी थी। हाफिज़ वह होता है जिसे पूरा कुरआन मुंह जुबानी कंठस्थ हो, और वह जहाँ से चाहे खडे-खडे़ कुरआन पढ़ कर सुना सके।
मुझे असल इसी विषय पर बात करनी है मगर पहले उनकी आपत्तियों पर चर्चा करते हैं क्योंकि महेन्द्र पाल जी के मशहूर प्रश्नों जैसे के भिन्न-भिन्न विद्वानों के द्वारा कई-कई बार उत्तर दिये जा चुके हैं। इसलिये हम यहाँ पर सूक्ष्म शब्दों में उन के प्रश्न का उत्तर देते हुए या यों कहा जाए कि उनकी गलत फहमी को दूर करते हुए दूसरे विषय पर चर्चा करेंगे।
पहले उनकी गलत फहमी का समाधान
उन्हें गलत फहमी है कि कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं और इसी शीर्षक से उनका उक्त वर्णित पत्रक भी है। हमने इस पुस्तक के अंत में उनके पत्रक के शीर्षक वाले पृष्ठ को इस पुस्तक के पृष्ठ न. 45 पर दिया है। इस पत्रक में वह सबूत के तौर पर कुरआन की कुछ आयतें प्रस्तुत करते हैं। जिन आयतों पर उन को एतराज है हम उनको आगे नकल करेंगे परन्तु इस से पहले महेन्द्रपाल जी से इन आयतों  के सम्बन्ध में कहना चाहेंगे के महाशय! आप तो (अपने दावे के अनुसार) सनद याफ्ता मौलवी हैं तो यकीनन यह तो आप जानते ही होगे कि कुरआन की हर आयत का एक बैकग्राउंड या पस-ए-मंजर होता है जिसे कुरआन की इस्तिलाह में शान-ए-नज़ूल कहते हैं। जिसे जाने और समझे बिना कुरआन पर प्रश्न चिन्ह लगाना स्वंय महेन्द्र जी पर इस बात का प्रश्न खड़ा करता है कि क्या उन्हें यह मान लिया जाए। कि वह भूतकाल में महबूब अली थे या इस से भी बढ़कर मौलवी महबूब अली थे।
कुरआन का अवतरण लगभग 23 वर्षो में परिस्थिति के अनुसार हुआ वे आयतें जिन पर महेन्द्र जी को ऐतराज है वे नबुव्वत मिलने के दस वर्ष बाद जब आप मक्का छोड़ कर मदीना चले गये उनका नुज़ूल तब आरम्भ हुआ और इस प्रकार की आयतें जो करीब डेढ़ दर्जन हैं वे लगभग 15 वर्षो की लम्बी अवधि में समय अनुसार नाज़िल हुईं। इसलिये कुरआन की एक एक आयत को समझने के लिये हजरत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी को जानना  आवश्यक है। श्री महेन्द्रपाल जी अगर अपने दावे के अनुसार पहले मौलवी महबूब अली थे तो हम उन से यह कैसे आशा कर सकते है कि वह मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी या कुरआनी आयतों के शान-ए-नुजूल से परिचित नहीं होंगे। परन्तु जो व्यक्ति हजरत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी व कुरआनी आयतों के शान-ए-नुजूल से परिचित होते हुये कुरआन की उक्त आयतों पर प्रश्न खड़ा करें। हम उसे अपने दिमाग का इलाज कराने की सलाह देंगे। यह केवल हमारा निर्णय नहीं। हम इसे पाठकों की अदालत में रखते  हैं। वे स्वयं समझें और निर्णय लें और महेन्द्र जी के हाल पर विलाप करें ।
मुहम्मद सल्लललाहु अलैहि वसल्लम की जीवनी एक खुली किताब की मानिन्द है केवल मुसलमान ही नहीं अपितु कोई पढ़ा लिखा गैर मुस्लिम भी शायद ऐसा न होगा जो इस बात से परिचित न हो। कि मुहम्मद साहब मक्का नामक शहर में पैदा हुए थे और उन्होंने वहाँ पर इस्लाम धर्म का प्रचार शुरु किया तो मक्के वाले उनके शत्रु बन गये और उनको और उनके अनुयाइयों को यातनाएं देने लगे। यहां तक कि तीन वर्षों तक शत्रुपक्ष ने मुहम्मद सल्लललाहु अलैहि वसल्लम व उनके अनुयाइयों का पूर्ण रुप से बाइकाट भी किये रखा। जब यह यातनाएं बर्दाश्त से बाहर हो गईं तो मुहम्मद साहब ने आपने अनुयाइयों को मक्का छोड़ कर कहीं और चले जाने की सलाह दी और जब एक दिन मक्के वालों ने यह तय किया कि आज रात को वे सब एक साथ मिलकर (नऊजु बिल्लाह) मुहम्मद साहब का वध कर देंगे तो उन्‍हों ने स्वयं भी अपना शहर छोड़ दिया और जब वह अपने एक साथी के साथ रात के समय घर से निकले और शहर से बाहर जाकर जब उन्हांेने मदीने का रुख किया तो पीछे मुड़कर देखा और यह शब्द कहे, जो इतिहास में सुरक्षित हैं।
‘‘मेरे प्यारे वतन मक्के नगर! मुझे तुझ से बहुत प्यार है अगर तेरे वासी मुझे यहां रहने देते तो मैं तुझे कभी न छोड़ता।’’
और फिर आप मदीने की ओर चल निकले। यह बात नोट करने लायक है कि आप मक्का नगर छोड़ कर किसी करीबी स्थान पर नहीं रुके अपितु मक्के से करीब पांच सौ कि.मी. दूर मदीना शहर में जा कर निवास किया। मक्के वाले जो मुहम्मद साहब के घर का घेराव कर चुके थे जब उन्होंने देखा कि वे बच निकले हैं और उन के तमाम साथी मदीना पहुँच कर आराम से रहने लगे हैं तो उन्‍हों ने वहाँ भी मुसलमानों को तंग करने का प्रयास किया। अतः पहले उन्होंने मदीने वालों को आपके विरुद्ध उकसाना चाहा। इसमें  कामयाब न हुए तो स्वयं लाव-लश्कर लेकर मदीने पर चढ़ाई के लिए निकल पड़े। मक्के वालों की मदीने पर पहली चढ़ाई में मक्के वालों की ओर से करीब सात सौ व्यक्तियों ने भाग लिया जबकि मदीने में मुसलमानों की कुल संख्या उन से लगभग आधी थी। यहां से उन आयतों का अवतरण आरम्भ हुआ जिनसे महेन्द्र जी के दिल की धड़कनें बढ़ गयीं।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि मक्के वालों ने मदीने पर तीन बड़े आक्रमण किये। पहला हिजरत से दूसरे वर्ष, दूसरा हिजरत से तीसरे वर्ष और तीसरा हिजरत के चौथे वर्ष, अतः कुरआन की निम्न आयतें जिन पर महेन्द्र जी ने ऐतराज किया है, वे भी स्थिति के अनुसार समय-समय पर नाज़िल होती रही हैं। यहाँ तक कि कुछ आयतें हिजरत से आठ-दस वर्ष बाद फतह मक्का के समय भी नाज़िल हुईं।
अब कुरआन की वे आयतें देखें -
1.  जिन लोगों को मुकाबले के लिये मजबूर किया जा रहा है और उन पर जुल्म ढ़ाये जा रहे हैं अब उन्‍हें भी मुकाबले की इजाजत दी जाती है क्योंकि वह मजलूम हैं। यह इजाजत उन के लिये है जिन्‍हें  नाहक उनके घरों से निकाला गया। सिर्फ इस लिये कि वे कहते थे कि हमारा परवरदिगार अल्लाह है (सूरह हज 49)
2.  और उन से लड़ो जहां भी वे मिलें और उन्हें निकाल बाहर करो वहां से जहां से उन्होंने तुम्हें निकाला था औैर फितना बरपा करना कत्ल से भी बढ़ कर है और तुम उन से मस्जिद हराम के पास मत लड़ना जब तक वह तुम से न लड़ें।(सूरह बकर 119)
3. फिर अगर वह लोग बाज़ रहें तो बेशक अल्लाह बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (सूरह बकर 192)
4.  क्या तुम नहीं लड़ोगे उनसे जिन्होंने सन्धि को तोड़ा और मुहम्मद साहब को निकाल बाहर करने के लिए तत्पर रहे, क्या तुम उन से डरते हो? अगर तुम इमान रखते हो तो ईश्वर इस बात का अधिक योग्य है कि तुम उस से डरो। लड़ो उन से ईश्वर तुम्हारे हाथों उन्हे दंड दिलवायेंगे उन्‍हें ज़लील करेंगे और तुम्हारी सहायता करेंगे- (सूरह तोबा, आयत 13, 14)
5.  हे नबी। इमान वालों को युद्ध करने के लिये आमादा करो यदि तुम में से बीस भी डटे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे, यदि सौ ऐसे होगें तो वे 4000 पर भारी रहेंगे (सूरह अनफाल, आयत 65)
 हम इन आयतों के हवाले से महेन्द्र जी से कहना चाहेंगे कि पंडित महाश्य ज़रा इन कुरआन की आयतों का अन्दाज़-ए-ब्यान तो देखिये -
1. और निकाल बाहर करो उन्हें वहां से जहां से उन्‍हों ने तुम्‍हें निकाला था, आप जानते है कि मक्के वालो ने मुहम्मद साहब और उन के साथियों को निकाला था, अतः ज़ाहिर है कि यह उसी के दृष्टिगत है तो महेन्द्रपाल जी आपको क्या परेशानी हुई?
2. लड़ो उन से जिन्‍हों ने सन्धि को तोड़ा है।
इस्लामी इतिहास का एक मामूली विद्यार्थी भी इस बात को जानता है कि सन सात हिजरी में मुहम्मद साहब और मक्के वालो के बीच एक सन्धी हुई थी जो मुसलमानो की ओर से बेहद दबकर की गई सन्धि थी। इसमें  सारी बातें , सारी शर्तें, मक्के वालों की मानी गई थी। शर्तें  भी एक तरफा थीं। विस्तार से ब्यान करने का मौका नहीं परन्तु एक उदाहरण देखिये-उसमें मक्के वालों ने शर्त रखी थी कि अगर हमारा कोई आदमी मुसलमान बन कर आपके पास आता है तो आप को लौटाना होगा, परन्तु अगर तुम्हारा आदमी हमारे पास आता है तो हम उसे नहीं लौटाएंगे - इस प्रकार की करीब एक दर्जन शर्तें मक्के वालों की मुहम्मद साहब ने स्वीकार की थी और इस के बदले अपनी केवल एक शर्त मनवायी थी वह क्या थी उसे भी देखिए।
मुहम्मद साहब ने मक्के वालों से केवल एक बात की गारंटी चाही थी। वह यह कि मक्के वाले मुसलमानों पर अगले दस सालों तक न तो कोई आक्रमण  करेंगे न किसी आक्रमण करने वाले का साथ देंगे।
लेकिन दुर्भाग्य से मक्के वालों ने इसका एक वर्ष तक भी निर्वहन नहीं किया। उक्त आयत में इसी सन्धी को तोड़ने का जिक्र है परन्तु महेन्द्र जी! आपने तो किसी सन्धी को नहीं तोड़ा है। फिर आपको क्यों चिंत्ता हो रही है?
जिस व्यक्ति के सामने कुरआन की आयतों के यह पसमंजर हों और फिर भी वह किसी आयत पर आपत्ति जताये, ऐसे व्यक्ति के बारे मे यही कहा जा सकता है कि वह या तो एक समुदाए के लोगों को समुदाय विशेष के विरुद्ध भड़काकर अपने स्वार्थ की दुकान चलाना चाहता है और या उसका दिमागी तवाज़ुन बिगड़ चुका है और या फिर उसने कुरआनी आयत के पसमन्ज़र को जाने बगैर उसका सरसरी अध्ययन किया है, परन्तु महेन्द्र पाल तो मौलवी थे उनसे यह आशा कैसे करें। अतः स्पष्ट है कि पहली दो बातों में  से कोई एक उन पर लागू होती है।
आयत न. 2 और 3 को एक बार फिर पढ़िएः
यह आयतें महेन्द्र जी के पत्रक के पृष्ठ न. 5 पर अंकित की गयी हैं।
जब मुहम्मद साहब अपने हजारों साथियों के साथ हिजरत के दस्वें वर्ष मक्के में दाखिल हुये इस मौके पर कोई युद्ध नहीं हुआ ना ही मक्के वालों की ओर से कोई खास विरोध की स्थिति सामने आयी परन्तु आप उन आयतों की शब्दावली देखिये जो इस मौके पर नाज़िल हुयीं।
उन्‍हें वहाँ से निकाल दो जहाँ से उन्होंने तुम्‍हें निकाला था -
और तुम उन से मस्जिद-ए-हराम के पास मत लड़ना -
इस में मक्के वालों के लिये एक पैग़ाम था कि अगर वे युद्ध न चाहें तो मस्जिद-ए-हराम में दाखिल हो जायें।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि यहाँ जिस मस्जिद में और उसके आस-पास लड़ने को मना किया जा रहा है वह उस समय मक्के वालों के ही कबज़े में थी ।
अब इस मोके पर मुहम्मद साहब ने जो घोषनाएं की वह भी देखें: -
आप ने ऐलान कराया जो मस्जिद के पास चला जाये, उसे कुछ न कहा जाये जो अपने घर के दरवाजे बन्द कर ले उसे न छेड़ा जाये और जो अबूसुफयान के घर में घुस जाये उसे कुछ न कहा जाये।
अबू सूफयान कौन थे?
मुहम्मद साहब व उनके साथियों से मक्के वालों के जितने भी युद्ध हुये हैं उन में से एक को छोड़ बाकी सभी की कमान अबू सुफयान के हाथ में रही है। क्या संसार का इतिहास कोई एक ऐसा उदाहरण पेश कर सकता है कि जिस में शत्रु फौज के कमान्डर को यह सम्मान दिया गया हो कि अगर कोई उस के घर में घुस जाये तो उस की जान बच जायेगी।
यहाँ मैं एक विशेष बात कहना चाहूंगा ।
अकसर कहा जाता है कि मुसलमान बड़ा जज़बाती होता है और वह अपने धर्म या धर्म प्रवर्तक के बारे में कुछ भी सुनने की सहनशीलता नहीं रखता ।
हाँ यह बात सही है परन्तु उसका कारण स्वभाविक है। जिसका धर्म प्रवर्तक ऐसा हो जैसा ऊपर बताया गया फिर भी कोई उस पर यह इलजा़म लगाये की उनके यहाँ गैर मुस्लिमों को जीने का हक़ नहीं तो अनुयाइयों का जज़बाती होना स्वाभाविक होता है।
श्री महेन्द्र जी ने सूरह अनफाल की आयत न. 65 का वर्णन किया है, जिसमें कहा गया है कि लड़ो उन से तुम्हारे बीस उनके दो सौ पर भारी रहेंगे और तुम्हारे सौ उनके चार हजार पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे। कुरआन में जहाँ यह आयत है वहीं दो आयतों के अन्तर पर निम्न आयतें भी है।
और अगर शत्रु (युद्ध के बीच) सुलह/सन्धि की ओर झुके तो तुम भी सुलह कर लेना और ईश्वर पर भरोसा करना वह सब कुछ सुनता और जानता है। यहाँ तक कि अगर उनका (शत्रु पक्ष) इरादा धोखे का हो (तो भी परवाह न करना) तुम्हारे लिए ईश्वर काफी है। (सूरह अनफाल आयत न. 61-62)
एक दूसरे स्थान पर कुरआन में आदेश है कि
सुलह करना (बहरहाल लड़ाई झगडे़ से) बेहतर है।  सूरह निसा 128

इस परिपेक्ष में  महेन्द्र जी से पूछना चाहूंगा कि क्या इस्लाम और कुरआन पर उंगली उठाते हुए बिलकुल ही न सोचा? अरे भाई जो संविधान यहां तक सुलह पसन्द हो कि वह अपने अनुयाइयों को आदेश करे कि अगर सुलह के नाम पर शत्रु पक्ष धोखा देने का इरादा रखता हो तो भी तुम सुलह कर लेना क्योंकि शान्ति हर स्थिति में युद्ध से बेहतर है और जो संविधान धर्म के बारे में यह आदेश करे कि धर्म के सम्बन्ध में कोई जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती जो चाहे स्वीकार करे जो चाहे इन्कार करे। (सूरह बकर 256)
आप उसे यह इलजाम दें कि इस्लाम में गैर मुस्लिमों को जीने का हक़ नहीं? मैं तो आपके बारे में यही कह सकता हूं कि: शर्म आनी चाहिये नफरत के ऐसे पुजारियों को जो समाज के बीच नफरत का बीज बोकर उसके जहरीले फल शान्त समाज को खिलाना चाहते हैं।
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बहरहाल महेन्द्रपाल जी ने कुरआन को छोड़कर वैदिक धर्म को अपना लिया है तो आईए अब यह भी देखलें कि वेदों में गैर अनुयाइयों के बारे में क्या कहा गया है।
नम्बर 1
राजा प्रजा के पालने और बैरियों को मारने में उद्यत रहे - अथर्वेद 8-3-7
नम्बर 2
तुम बैरियों का धन और राज्य छीन लो - अथर्वेद 5-20-3
नम्बर 3
सज्जन पुरूष दुखदायी दुष्टों को निकालने में सदा प्रयत्न करे - अथर्वेद 12-2-16
नम्बर 4
है राजन प्रत्येक निंदक कष्ट देने वाले को पहुंच और मार डाल - अथर्वेद 20-74-7
नम्बर 5
तू वेद निंदक पुरूष को काट डाल, चीर डाल, फाड़ डाल, जला दे, फूंक दे, भष्म कर दे - अथर्वेद 5-12-62
नम्बर 6
वेद विरोधी दुराचारी पुरूष को न्याय व्यवस्था से जला कर भष्म कर दे - अथर्वेद 5-12-61
नम्बर 7
उस वेद विरोधी को काट डाल, उसकी खाल उतार ले, उसके मांस के टुकड़े को बोटी-बोटी कर दे, उसकी नसों को ऐंठ दे, उसकी हडिड़्यों को मसल डाल, उसकी मींग निकाल दे, उसके सब जोडों और अंगों को ढीला कर दे - अथर्वेद 12-5-65 से 71 तक

हम महेंद्रपाल जी को यह भी बता दें कि कुरआन के अनुसार शत्रु पक्ष से इस प्रकार के बरताओ की युद्ध क्षेत्र में भी अनुमति नहीं है।
यह तो वेदों की बात थी। गीता में एक पूरा अध्याय इसी विषय पर है। जिसमें श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने पर आमादा करते हैं। जबकि वह हथियार रख चुके थे परन्तु श्री कृष्ण ने उनसे कहा कि यह तो कायरता है तुम्हारा धर्म ही युद्ध करना है। युद्ध करो वरना अधर्म हो जाएगा तुम युद्ध में मारे गये तो स्वर्ग को प्राप्त होगे और अगर जीते तो दुनिया की दौलत पाओगे (मज़े की बात यह है कि कृष्ण जी जिन लोगों से युद्ध करने को कह रहे हैं उनके साथ स्वयं महाराज ने अपनी फौज खड़ी की हुई है) क्यों? क्या इसलिए कि जो भी जीते वही आभारी रहे?
नतीजा यह हुआ कि एक बड़ी भयानक जंग हुई जिसमें महाभारत के अनुसार एक अरब छियासठ करोड़ इन्सान मारे गए। मरने वालों में कुछ लोग कृष्ण जी के सेना के भी होंगे। अपने ही लोगों को अधर्मों की सफ में खड़ा करके मरवा डाला? यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि उक्त आयतों से संबन्धित इस्लामी जंगों में मारे जाने वालों की कुल संख्या दो सौ से अधिक नहीं है। और महाभारत में कुल कितने मारे गए यह अभी पढ़ा ही है।
और महेंद्र पाल जी! इस्लाम में तो केवल चंद आयतें ही युद्ध की प्रेरणा देती हैं वह भी कड़ी शर्तों के साथ केवल आत्मरक्षा में, मगर आपके यहां तो महाभारत और रामायण दो बड़ी धार्मिक इतिहास पुस्तकें ऐसी हैं जिनका आधार ही युद्ध है। और वेदों के मंत्र अलग रहे। इसे ही कहते हैं छाज बोले तो बोले, छलनी भी बोले। जिसमें बहत्तर छेद।
महेंद्रपाल जी के पत्रक का शीर्षक है ‘‘कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं’’ ।
यह शीर्षक जिसने भी लिखा है वह कोई अनपढ़, नासमझ और इतिहास के ज्ञान से नाबलद व्यक्ति ही हो सकता है। इस प्रकार की बातें लिखने, सोचने और कहने वालों को क्या यह मालूम नहीं कि भारत में कुरआन के मानने वालों ने कई शताब्दियों तक अपने आहनी पंजों से हुकूमत की है फिर भी मुसलमान यहां पर एक छोटी सी अल्पसंख्यक कम्यूनिटी है और महेंद्रपाल जी आप की मम्यूनिटी एक बहूसंख्यक वर्ग है। यह बात विचारणीय है कि अगर सैकड़ों साल कुरआन के मानने वालों ने यहां पर हुकूमत की है और आपके अनुसार कुरआन गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं देता तो आप यह इल्जाम देने के लिए  कैसे बचे रह गए.....?
किसी ने सही कहा है:
मौक़ा मिला जो लम्हों का अहसान फरोश को।
सदियों में जो किया था वो अहसान ज़द पे है।।
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अब हम उस विषय पर आते हैं जिस पर हमें वास्तव में बात करनी थी ।
इस परिपेक्ष में हम देखेंगे कि क्या वाकई महेन्द्रपाल महबूब अली थे और साथ ही मौलवी या हाफिज़ भी थे या वह केवल दूसरों को भ्रमित करने के लिये महज अफवाह फैला रहे हैं।
महेन्द्रपाल का आपत्ति पत्र 8 पृष्ठों का हिन्दी में टाइप शुदा है जिसमें कुरआन के हवाले हाथ के लिखे हुये हैं।  यकीनन यह महेंन्द्र जी ने स्वयं लिखे होंगे क्योंकि वे अपने दावे के अनुसार मौलवी हैं और अगर किसी और से लिखवाये हैं तो भी महेंद्र जी ने इसे जारी करने से पहले गहराई से पढ़ा तो अवश्य होगा। उनका यह पत्रक इन्टरनेट पर गत कई वर्षों से मौजूद है।
प्रथम दृष्ट्या उनके पत्रक में स्वयं उनके हाथ की लिखी अरबी इबारत को देख कर नहीं लगता कि यह लेख किसी मौलवी या हाफिज़ का है। अधिक से अधिक उस का स्तर कक्षा 2 या 3 के छात्र का प्रतीत होता है उस में इमले व व्याकरण की बलन्डर त्रूटियां इस कदर हैं कि उन्हें देखकर लगता है कि ऐसा कथित मौलवी अगर मुसलमानों के बीच रहता तो उन्हें गुमराह करने के सिवा कुछ न कर सकता। महेन्द्रपाल के आठ पृष्ठों के पत्र के पहले पृष्ठ पर कुरआन के हवाले से चार आयतें लिखी हैं।
न. 3 पर यह इबारत है - (पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 18 पर चित्र देखें)

बॉक्स की इबारत महेन्द्रपाल के पत्रक के पहले पृष्ठ से ली गई है चलिये इसी इबारत पर महेन्द्रपाल के सही या गलत होने का फैसला हो जाये । वह इस प्रकार कि अरबी में लिखी जिस इबारत को जिस का मूल उच्चारण उन्होंने स्वयं अरबी इबारत के ऊपर और अनुवाद नीचे दिया है। और उसे कुरआन की आयत कहा है। वह इस इबारत को कुरआन के तीस पारों मे कहीं दिखा दें तो उनकी सारी बातें सही। वरना उन्हें और उनके भक्तों को यह मान लेना चाहिए कि वह समाज को धोखा दे रहे हैं।
उन्‍होंने ने उक्त अरबी इबारत का अनुवाद यह किया है - एक इस्लाम ही हक है और सब कुफ्र हैं, सब को बातिल किया। यह अरबी भाषा के ज्ञानी बताएंगे कि क्या यह अनुवाद सही है? इस इबारत का सही अनुवाद यह है-  इस्लाम हक़ है और कुफ्र बातिल है, यह तो अरबी जानने वाला व्यक्ति ही समझ सकता है कि जो अनुवाद महेन्द्रपाल ने उक्त इबारत का किया है ऐसे व्यक्ति को क्या मौलवी तसलीम किया जाए। या मौलवियत के नाम पर दाग? जिस व्यक्ति ने एक या दो दर्जा ही अरबी पढ़ी हो वह अवश्य इस प्रकार का अनुवाद कर सकता है। मेहन्द्रपाल जी जिस प्रकार की अरबी लिखते हैं या अरबी का अनुवाद करते हैं उसे देख कर लगता है कि किसी गैर मुस्लिम ने बोझल मन से इस्लाम पर एतराज करने के लिये अरबी सीखी है मैं कई ऐसे गैर-मुस्लिम भाईयों को जानता हूं जिन्‍हों ने शोकिया या उर्दू अध्यापक की नौकरी पाने के लिये उर्दू सीखी है। परन्तु इस प्रकार कोई भाषा सीखी जाए कि न तो उसे पूरा समय दिया जा सके और न ही पूरे मन से उसे सीखा जाए, ऐसे व्यक्तियों द्वारा सीखी गई कोई भी भाषा पुख्ता नहीं हो सकती। उस व्यक्ति के बारे में आपकी क्या राय है? जो अंग्रेजी शब्द Station  को istashan  लिखे या  Light  को Lait  या High को Hai लिखे। बस यही हाल बल्कि इससे भी अधिक बुरा हाल महेन्द्रपाल का है उन्‍हों ने इसी प्रकार के कुछ प्रश्न इन्टरनेट पर डाले थे जिसका कई लोगों ने उत्तर दिया है। इस को विस्तार से www.islamhinduism.com पर देखा जा सकता है। यह उसी पत्रक की नकल है जिसका हमने चर्चा किया उसे देखिए और महेन्द्रपाल जी के हाल पर मातम कीजिए, उस में  महेन्द्रपाल जी ने कुरआन की एक आयत लिखी है आयत है अत्तलाकु मर्रतान, इसमें शब्द -अत्तलाकु
मर्रतान को महेन्द्र पाल जी ऐसे लिखते हैं اطلاقُ - (पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 20 पर चित्र देखें)  
 जब कि इस का सही लिखित रुप है الطلاقُ   इस में  दो अक्षर अलिफ और लाम जो लिखे तो जाते हैं पढने में  नहीं आते  वह महेनद्रपाल जी भूल गये है ऐसी बलन्डर त्रूटी कक्षा 2 का छात्र ही कर सकता है। एक मौलवी से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती ।
महेन्द्रपाल के कलम का एक कारनामा और देखिये।
उन्‍हें  कुरआन की एक अन्य आयत पर भी एतराज़ है। आयत है ‘‘इन्नससलाता तन्हा अनिल फहशाइ वल मुनकर’’ वह इसे
इस प्रकार लिखते है عنل فحشاء  अनिलफहशाइ
का शब्द दो लफ्ज़ों से मिलकर बनता है, एक अन दुसरा अलफहशाइ इसको जब अरबी में लिखा जाता है तो दोनों शब्द अपनी असली सूरत में लिखे जाते हैं। यानि अन अलग और अलफाहशाइ अलग عن الفحشاء लेकिन दोनों को मिलाकर अनिलफाहशाइ पढ़ा जाता है। महेन्द्र पाल जी ने अन और अल को एक साथ लिखा है और फहशा को अलग लिखा है, ऐसी शाब्दिक गलती एक मौलवी से? ....... खुदा खैर करे।

इसी तरह उनका رَؤف بالعباد को  رَء وفم بلعباد लिखना और فیھا को فی ھا लिखना من دون المؤمنین  को من دونِل مومنین लिखना उनकी योग्यता को दर्शाता है। - (पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 18 पर चित्र देखें)
उनकी लिखी इबारत को पढ़कर एक पढ़े लिखे इन्सान को केवल हंसी आ सकती है और महेन्द्रपाल के रवैये पर अफसोस ही किया जा सकता है।

हम यहाँ पर महेंद्रपाल जी के हाथ की लिखी पाँच छोटी-छोटी आयतें दे रहें हैं यह पाँच छोटी आयतें दो लाइनों में लिखी जा सकती हैं। इन दो लाइनों में महेंद्रपाल जी ने इमले की दस बलंडर गल्तियां की हैं जिन्हें अरबी भाषा का प्राथमिक विद्यार्थी भी पहली नजर में पकड़ लेगा और महेंद्रपाल जी के कलम के कारनामे पर अपनी हंसी रोक नहीं पाएगा। और अगर उसे यह भी बता दिया जाए कि इन महाशय ने विश्व प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान जाकिर नायक को शास्त्रार्थ के लिए चैलेंज भी किया हुआ है तो वह कहकहा लगाने पर मजबूर हो जाएगा।
महेन्द्रपाल की एक बलन्डर त्रूटी और देखिये, वह अपने अपत्ति पत्र के पृष्ठ न. 6 पर लिखते है हदीस छ: 6 हैं, जबकि हदीस छः नही छः हजार से भी ज्यादा हैं। परन्तु चलिये उनकी इस गलती को हम तसामोह अर्थात अनजाने में हुयी गलती मान लेते हैं और देखते हैं कि इससे उनका तात्पर्य कुछ और तो नहीं। एक विकल्प तो यह है कि शायद वह कहना चाहते हैं। कि हदीस की किताबें  छः हैं परन्तु ऐसा भी नहीं, हदीस की सैकडों  किताबें मौजूद व मशहूर हैं एक आखरी विकल्प जो अधिक सत्य मालूम पड़ता है यह है कि वह ‘‘सिहा सित्ता’’ का वर्णन करना चाहते हैं।


सिहा सत्ता क्या है?
सिहा के मायने, सही और सित्ता के मायने छः के हैं और यह इल्म-ए-हदीस की एक इस्तलाह है। यह शब्द हदीस की उन छः किताबों के लिये बोला जाता है जिनको अधिक महत्व प्राप्त है और वह दर्स-ए-निजामी अर्थात मौलवी के कोर्स में शामिल हैं।
बस हमें  यहीं पहुँचना था । प. महेन्द्रपाल ने जिन किताबों के नाम गिनवाए हैं उन में मिशकात शरीफ का नाम भी शामिल किया है। यही बात खास है।
जिसने हदीस की कोई एक किताब भी खोलकर भी देखी हो वह हदीस 6 होने का दावा नहीं कर सकता, न ही हदीस की 6 किताबें होने का दावा कर सकता। हाँ यह मुमकिन है कि अधकचरे ज्ञान वाला सिहा सित्ता का वर्णन करे और मिशकात को उस फहरिस्त में शमिल कर दे, परन्तु किसी मौलवी से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। कि वह सिहा सित्ता में मिशकात का नाम लिखे। सिहा सित्ता मौलवी के कोर्स के अन्तिम वर्ष में एकसाथ पढ़ाई जाती हैं पूरे भारत में मिशकात को सिहा सित्ता के साथ कहीं भी नही पढ़ाया जाता अतः यह बात गारन्टी से कही जा सकती है कि जो व्यक्ति सिहा सित्ता मे मिशकात को शरीक बतलाए जिसका कलम
رَؤف بالعباد  को رَء وفم بلعباد और فیھا को  فی ھا लिखे  من دون المومنین  को من دونِل مومنین
लिखे और تنہیٰ को  تَنْہَ  - 
والمنکر  को  ولمنکر ,
 لایتخذُ المومنُ को  لایتخزُ المومنو लिखे, वह कुछ भी हो सकता है मौलवी नहीं हो सकता। - (पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 22 पर चित्र देखें)

इन बातों  के दृष्टिगत यह पूरे भरोसे और शतप्रतिशत यकीन से कहा जा सकता है कि महेन्द्रपाल का यह दावा कि वह मौलवी थे निराधार, बेतुका और निरा झूठ है। बल्कि हमें तो इसमें भी शक है। कि वह महबूब अली थे।
उनका मूल निवास स्थान कलकत्ता है। इस समय वह दिल्ली में रहते हैं और आर्य समाज के प्रचारक हैं। दिल्ली में  रहने वाले किसी व्यक्ति का मूल पता कलकत्ते जैसे बडे़ और दुर्गम शहर में तलाश करना बड़ा कठिन कार्य है। परन्तु हम यह जानते है कि बंगला भाषी कलकत्ता शहर का मूल निवासी कितना ही बड़ा विद्वान क्यों न बन जाये बंगाली भाषा का असर उस की जुबान से कभी नहीं जाता इस की उचित मिसाल हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी है जिनकी अग्रेजी भी बंगाली नुमा होती है। दूसरी ओर महेन्द्रपाल जी है जो अपने भाषण में जिस प्रकार की शुद्ध हिन्दी का प्रयोग करते हैं उसे सुनकर लगता है कि वह दिल्ली के आस-पास किसी हिन्दी भाषी क्षेत्र के निवासी हैं कम से कम उनकी भाषा शैली से यह तो बिल्कुल नहीं लगता कि वह बंगाली हैं।
श्री महेन्द्रपाल का दावा है कि उन्होंने दिल्ली के मदरसा अमीनिया से आलिम (मौलवी कोर्स) से फरागत हासिल की है। उक्त से यह तो साबित हो गया है कि वह किसी मदरसे से सनद याफ्ता आलिम नहीं हो सकते हाँ यह मुमकिन है कि किसी महेन्द्रपाल ने फर्जी नाम महबूब अली रख कर किसी मदरसे में दाखिला ले लिया हो और एक या दो वर्ष अरबी भाषा व आलिम (मौलवी का कोर्स) की शिक्षा प्राप्त की हो। जबकि यह कोई नयी बात नहीं, ऐसी और भी मिसाले सुनने में आती रही हैं और जासूस बनकर मस्जिदों में इमामत कराने की तो बहुत सी मिसालें सामने आ चुकी हैं। महेन्द्रपाल तो किस खेत की मूली हैं। योरोपीय देशों  में इस्लामी शिक्षा के बड़े-बड़े गेर मुस्लिम विद्वान हुये हैं। जिन्‍हें  इस्लामी इस्तलाह में मुशतशरिक कहा जाता है। अरबी भाषा की एक महत्वपूर्ण डिक्शनरी अलमुनजिद एक ईसाई मुशतशरिक  की लिखी हुयी है। सिहा सित्ता (हदीस की छः बड़ी किताबें)की कुल हदीसों को अरबी अलफाबेट्स की श्रंखला के अनुसार जमा करने का कार्य भी एक योरोपीय मुशतशरिक ने किया है। शायद महेन्द्रपाल भी उन्हीं की चाल चले हैं परन्तु कव्वा चला हंस की चाल तो अपनी चाल भी भूल गया के अनुसार बिना मेहनत मुशक्कत के साल दो साल किसी मदरसे मे धोखा देकर रहे और आंजनाब का इमला तक सही न हो सका। ऐसे व्यक्ति को क्या हक है कि वह कुरआन का अनुवाद करे और उलटा सीधा आक्षेप कुरआन पर लगाये।
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यह तो महेन्दर पाल जी की योग्यता का विश्लेषण  था। आइये एक और दृष्टिकोण से इन महाशय का विश्लेषण करते हैं।
महेन्द्रपाल जी स्वयं को पंडित लिखते हैं और पंडिताई का कार्य करते हैं। उनके कहने के अनुसार वह पहले मुसलमान थे फिर वह हिन्दू धर्म के अनुयाई बन गये। हिन्दू धर्मानुसार पंडिताई का कार्य केवल ब्राह्मण    कर सकता है। और ब्राह्मण  जन्म जात होता है भारत में जो जाति प्रथा है। उस में यों ही कोई एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति का सदस्य नहीं बन सकता। हिन्दू धर्म की महत्वपूर्ण ग्रन्थ वेद एवं मनुस्मृति हैं उनके अनुसार हिन्दू समाज चार खानों में  विभाजित है ब्राह्मण , क्षत्रिय, वेशः एवं शूद्र। इनके अतिरिक्त जो भी हैं वे मलेच्छ (नापाक और अपवित्र) हैं इस व्यवस्था में धर्म की शिक्षा प्राप्त करना और शिक्षा देना केवल बृहमण का कार्य है। और शूद्र अगर शिक्षा प्राप्त करे तो उस के लिये कड़ी सजा का प्रावधान है। यहाँ प्रश्न यह है कि महेन्द्रपाल जब महबूब अली से महेन्द्रपाल बने तो उन्होंने कौन सा वर्ण ग्रहण किया। वह पहले मलेच्छ थे अर्थात शुद्र से भी नीचे। उन्होंने अपना शुद्धिकरण कराया, तो भी वे अधिक से अधिक शुद्र की श्रेणी में आ सकते थे। क्‍यों कि ‘‘तोहफतुल हिंद’’ के लेखक जिनका पहला नाम ‘‘अनंत राम’’ था और उन्होंने इस्लाम कुबूल करने के बाद अपना नाम मुहम्मद उबैदुल्लाह रखा उन्होंने अपनी मशहूर किताब ‘‘तोहफतुल हिंद’’ में कर्मव्याक के हवाले से लिखा है कि अगर कोई शुद्र पुन्य के कार्य करे तो वह अगले जन्म मे वेशः की योनी में जाता हैं और अगर कोई वेशः पुनः के कार्य करे तो व क्षत्रीय की योनी में। ऐसे ही क्षत्रिय ब्राह्मण  की योनी में और ब्राह्मण   पुन्य  करे तो उसकी मुक्ति हो जाती है।
परन्तु यह व्यवस्था तो मरनोपरान्त की है, प्रश्न यह है कि महेन्द्रपाल जी जीते जी ब्राह्मण  कैसे बन गये हैं।
यहाँ पर एक विकल्प और भी है उसे समझने के लिये हमें जानना होगा कि भारत में  दो प्रकार के मुसलमान पाये जाते हैं अधिक संख्या तो उनकी है जो यहीं के मूल निवासी थे और यहां किसी जाति से सम्बन्धित थे, दूसरे जो (कम संख्या में  हैं) वह बाहर से आये हुये हैं जो हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार मलेच्छ थे जिनका वर्णन ऊपर किया गया। अगर महेन्द्र पाल जी इसी दूसरे वर्ग से थे तो उन्हें यह अधिकार किसने दिया कि वह हिन्दू बनते ही उस के उच्च और स्वर्ण वर्ग में जा बैठें। और अगर वह मुसलमान रहते, पहले वर्ग से अर्थात उस वर्ग के मुसलमानों में से थे जो यहीं के मूल निवासी  हैं तो यकीनन वह यहाँ की किसी न किसी जाति से सम्बन्धित रहे होंगे और उस में ब्राह्मण  जाति भी हो सकती है। परन्तु यहां हमें यह याद रखना होगा कि भारतीय मुसलमानों  में  वे सभी जातियाँ पाई जाती है जो हिन्दुओ में हैं उदाहरण के बतोर जाट हिन्दू भी हैं मुसलमान भी हैं गुर्जर हिन्दू भी मुसलमान भी हैं। परन्तु कहीं ऐसा अवश्य हुआ है कि किसी जाति ने मुसलमान होकर अपने जाति सूचक शब्द का उर्दू में अनुवाद करके उसे अपना लिया जैसे कुम्हार जिसका कार्य बर्तन बनाना है जब इस जाति के लोग मुसलमान हुये तो वह कूज़गर कहलाये इस का अर्थ भी वही होता है यानी बर्तन बनाने वाला-तात्पर्य यह कि हर वह जाति जो हिन्दू समाज में पायी जाती हैं। वही सभी जातियां मुसलमानों में  भी पायी जाती है। अर्थात यहां की सभी जातियों के कुछ न कुछ व्यक्तियों ने इस्लाम धर्म अवश्य कबूल किया है। परन्तु हमें  यह भी याद रखना चाहिए कि भारत वर्ष की दो जातियाँ ऐसी है जो मुसलमानों में नहीं पायी जाती। स्पष्ट है कि उन जातियों ने इस्लाम धर्म कबूल नहीं किया होगा। वे दो जातियां हैं एक चमार और दूसरा ब्राह्मण। इस तथ्य के दृष्टिगत हम यह कह सकते हैं कि महेन्द्रपाल जी जो पूर्व में उनके कथनानुसार महबूब अली थे वह ब्राहमण समाज से कनवर्ट होकर बिलकुल नहीं आए थे कि घर वापसी के बाद वह ब्राह्मण(पंडित) बन गये। परन्तु महेन्द्रपाल जी ने तो हिन्दू धर्म स्वीकार करके पंड़िताई शुरु कर दी और इस प्रकार वह अधर्म के पात्र हुए।
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यह महेन्द्र जी की काबलियत पर विचार था। आइये इस बात पर विचार करते हैं कि उन्हांेने अपने बकौल जिस धर्म को छोड़ा है क्या वह अपने जीवन में उसे पूर्णतः छोड़ चुके हैं या अभी भी अपनी जीवन व्यवस्था उसी छोड़े हुये के अनुसार व्यतीत करने पर विवश हैं।
जैसा कि हम ने लिखा कि वह पंडित नहीं थे परन्तु पंडिताई का कार्य कर रहे हैं इस प्रकार वे हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त से हट गये हैं।
इस पर वह कह सकते है कि आज का समय समानता का समय है अब हर व्यक्ति को यह अधिकर है कि वह कुछ भी करे कुछ भी पढे़ और किसी को पढ़ाए। धार्मिक शिक्षा प्राप्त करे और धर्मिक शिक्षा का दूसरों को ज्ञान दे। परन्तु यह तो आप जानते ही होगें कि यह शिक्षा इस्लाम की है और उसी ने सब से पहले इसे दुनिया के सामने रखा और संसार की तार्किक शक्ति, उसके विवेक और बुद्धि ने उसे पुणत: अपनाने और अपने जीवन में उतारने पर आप को विवश कर दिया है। और आप हैं कि इसे अपनाने पर मजबूर है जबकि यह हिन्दुत्व के बुनियादी सिद्धान्तों के विपरीत है।
केवल यह एक उदाहरण नहीं अपितु अपकी जीवन व्यवस्था का 95 प्रतिशत भाग ऐसा है जिसे आप इस्लामी कानून के अनुसार जीने पर मजबूर हैं। उस धर्म की शिक्षा, जिसको आपने अपनाया है और आप के गुरु स्वामी दयानन्द  जी जो हिन्दुओं के लेटेस्ट रिफॉर्मर हैं उन्होंने लिखा है कि
शुद्र वेद का ज्ञान तो प्राप्त कर सकता है परन्तु उपनयन न करे-
           सत्यार्थ प्रकाश, सम्मुलास 3
मैं आपसे से पूछना चाहूंगा कि क्या आप इस नियम को अमली जामा पहना पायेगे? बिल्कुल नहीं। अगर आप ऐसा करना चाहेंगे तो देश का कानून आप को ऐसा करने नहीं देगा और इस में जो कुछ आप स्वीकार करने पर मजबूर हैं वही तो इस्लामी शिक्षा है।
एक दूसरा उदाहरण देखें  -
स्वामी दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश के चौथे सम्मुलास में करीब 10 पृष्ठों में इस बात का बखान किया है कि अगर कोई महिला बिना औलाद के विधवा हो जाए या किसी और कारण से उसको बच्चा न हो सका हो तो वे नियोग द्वारा बच्चा पैदा कर सकती है। मैं पूछना चाहूंगा कि अगर आपकी पत्नी को बच्चा पैदा न हो सके तो क्या आप उसे अनुमति देंगे कि वह किसी दूसरे मर्द के साथ रात गुज़ार आये और उसके द्वारा गर्भवती होकर आए। अगर आप ऐसा करना चाहेंगे तो आपकी पत्नी ही इस के लिये सहमत नहीं होगी, फिर भी आप अगर उस से ऐसा ही करायेंगे तो समाज की निगाहों में गिर जायेंगे। अर्थात वह जिस पर आप अमल पैरा हैं या जिसे समाज स्वीकार करता है वह यह कि आप की पत्नी को आपके अतिरिक्त कोई और न छुए।  यह हिन्दू धर्म के विरुद्ध और इस्लाम धर्म के पुर्णत: अनुकूल है।
 तीसरा उदाहरण
आप के घर बच्चा पैदा होता है। स्वामी जी कहते हैं कि उसकी माँ छः दिन के उपरान्त उसे अपना दूध न पिलाये(सत्यार्थ प्रकाश 5-68) जबकि मार्डन मैडिकल शोध कहता है कि दो वर्ष तक माँ का दूध ही उसके लिये उपयोगी भोजन है। ऐसी स्थिति में आप का पक्ष क्या होगा? यह भी याद रखये कि बच्चे को दो वर्ष तक माँ का दूध पिलाने की ताकीद कुरआन में है (कुरआन 31:14 )
अभी तक हम ने आपके धर्म के तीन सिद्धांतों पर बात की। चलिये कुछ इस्लामिक सिद्धांतों की बात करलें जिस को आपने छोड़ दिया है मगर वह आप से छूट नहीं पायंेगे और उन्‍हें  आप चाह कर भी छोड़ नहीं सकते। आप अगर मुसलमान हैं और इस स्थिति में आप के पास एक विशेष मात्रा में  धन आ जाए तो आप को एक विशेष प्रकार का टैक्स देना होता है जिसे ज़कात कहते हैं। अब आपने इस्लाम धर्म को छोड़ दिया है परन्तु यह नियम अब भी आप का पीछा कर रहा है और आज भी अगर आप के पास उसी विशेष मात्रा में धन आ जाता है तो आपके लिये सरकार को आयकर देना अनिवार्य है। अदभुत संयोग देखिये कि धन की वह विशेष मात्रा जो इस्लाम धर्म ने इस्लामी टैक्स (ज़कात) लेने के लिये निर्धारित की थी, जो आज के समय में  आज के दौर की करीब नौ तोले सोना या उसकी क़ीमत बनती है। वही मात्रा आज तक आपके देश की सरकार भी फालो करती आ रही है। आप ज़रा यह एलान तो करें कि आपके पास साढ़े सात तोले सोना; जो आज के समय का करीब़ नौ तोले बनता है। उस की कीमत का धन है। फिर आप देखिये कि सरकार उसकी ज़कात अर्थात आयकर आप से वसूलती है या नहीं।
एक उदाहरण और देखिये न्याय सम्बन्धि इस्लामी कानून सब के लिये समानता का आदेश देता है, उस में जन्म और जाति की बुनियाद पर भेद नहीं किया जा सकता। महेन्द्रपाल जी ने उसे छोड़ दिया है और मनुस्मृति का यह कानून अपना लिया है कि ब्राह्मण के लिए अलग नियम होंगे और शुद्र के लिए अलग। एक शुद्र की गवाही शुद्र ही दे सकता है, ब्राह्मण के लिए अलग प्रकार की शपथ है और शुद्र के लिये अलग प्रकार की।
परन्तु हमारे देश की अदालतें  मनु की व्यवस्था को छोड़ इस्लामी व्यवस्था पर अमल करती हैं, महेन्द्रपाल को चाहिये कि वह कम से कम भारत सरकार के सामने यह परस्ताव रखें  कि उन्‍हों ने (महेन्द्रपाल ने) इस्लामी नियमों को छोड़ कर घर वापसी कर ली है अब सरकार को भी चाहिये कि वह भी घर वापसी करते हुये कुरआन के नियम को छोड़कर मनुस्मृति के नियमों का पालन करे।
इस प्रकार के कोई एक दो उदाहरण नहीं हैं सारी व्यवस्था ही इस्लामी हो गई है। 2006 में सरकार ने यह परस्ताव पारित किया था कि बाप की जायदाद में बेटे की भांति बेटी भी हिस्सेदार होगी, महेन्द्र जी को यह ऐलान करना चाहिये था कि हम इस कानून को नहीं मानें गे, क्योंकि यह इस्लामी कानून है जिसे हम छोड़ आये हैं और हिन्दू व्यवस्था में पुत्री पराया धन होती है उसके पूर्वज भी वह होते हैं जो उसके पति के पूर्वज हैं । अतः उसके मूल पूर्वजों की सम्पत्ति में उसका कोई हक़ नहीं होता।
यहां एक मशहूर हदीस का वर्णन करना उचित होगा। हजरत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया था कि क्यामत उस वक्त तक नहीं आएगी जब तक इस्लाम की आवाज पूरे विश्व के एक-एक मनुष्य के घर में न पहुँच जाए, इज़्ज़त वाला इज़्ज़त से मान लेगा और ज़िल्लत वाला ज़लील होकर मानेगा।
इस परिपेक्ष में हम कहना चाहेंगे कि हमने ऊपर जो इस्लामी सिद्धांत बयान किए हैं अर्थात समानता, सब के लिए शिक्षा, बाप की जायदाद में बेटी का हिस्सा, अपनी पसंद का धर्म स्वीकार करने की आज़ादी वगैरा-वगैरा। क्या ऐसा नहीं है कि अब वह समय आ गया है कि या तो महेंनद्रपाल जैसे लोग इन्हें इज़्ज़त से मान लें, जबकि वह उनके धर्म के खिलाफ है और अगर वह उन्हें इज़्ज़त से नहीं मानेंगे तो वक्त का आहनी पंजा उन्हें ज़लील करके अपनी बात मनवायेगा।
हमने जो हदीस बयान की है उसमें इस्लाम का कलिमा हर घर में दाखिल होने की बात है। अरबी का शब्द कलिमा एक उमूमी शब्द है उसका मूल अर्थ होता हैः ‘बात’। गालिबन इससे मुराद इस्लामी नियम व कानून हैं जो आज पूरी दुनिया में अपनी किसी न किसी सूरत में लागू हो चुके हैं, जबकि वे लगभग सभी हिंदू धर्म व्यवस्था के विपरीत हैं।  जहां तक हिंदू धर्म व्यवस्था की बात है वह तो इस समय कतई असम्भव है (विस्तार से जानने के लिए देखें लेखक की  पुस्तक ‘‘हिंदू राष्ट्र सम्भव या असम्भव? ब्लाग पर आनलाइन उपलब्ध)।

आज के मानव समाज ने इस्लाम की शिक्षा अर्थात इस्लामी कानून व व्यवस्था को (सिद्धांत) पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है। हां उसे अल्लाह और उसके रसूल के नाम से अवश्य ही बैर बाकी है। शायद इसी चीज के लिए कुरआन में एक ओर तो यह कहा गया है कि धर्म के मामले में कोई जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती जो चाहे स्वीकार कर ले ओर जो चाहे इन्कार कर दे(सूरह बक़र 256)। और दूसरी और महेंद्रपाल जैसे हठधर्मियों के दृष्टिगत उन जैसों को सम्बोधित करते हुए कहा गया है।
‘‘यह अल्लाह के दीन को छोडकर कहां भटक रहे हैं जबकि आसमान व ज़मीन में जो कुछ भी है उसने तो स्वेच्छा से इस्लाम स्वीकार कर लिया है। (आल ए इमरान 83)
  औरों से तो शिकायत क्या कि वह इस्लाम के बारे में जानते नहीं परन्तु महेन्द्र जी! आप तो कथित फारिगुत्तहसील आलिम थे आपको तो यक़ीनन मालूम होगा, और यह भी मालूम होगा कि इस्लामी सिद्धान्त के अनुसार दो हिस्से पुरुष के और एक हिस्सा स्त्री का होता है। देखें सुरह नम्बर 4:11  कुरआन, अर्थात 33 “ लडकी का और  66 “ लड़के का।
और आपको यह भी मालूम ही होगा कि महिला आरक्षण बिल में यही व्यवस्था रखी गयी है। जिसमें राज्य सभा में बहस होकर यह प्रस्ताव पास हुआ है कि महिला आरक्षण बिल में 33 प्रतिशत भाग महिला का होगा और 66 प्रतिशत पुरूषों का।

महेन्द्र जी! आप तो प्रख्यात पंडित हैं और दिल्ली में रहते हैं सरकार को बताइये कि यह इस्लामी व्यवस्था है। जिसे आप छोड़ आये हैं ।
कहने का मतलब यह है कि इस्लामी नियम कानून स्वभाविक हैं और स्वभाव का विरोध संभव नहीं परन्तु किसी ने विरोध की ही ठानी है तो वह स्वयं का ही नुकसान करेगा क्योंकि आसमान का थूका मुंह पर आता है ।
सच्चाई का विरोध इसलिए कि वह दूसरे का बताया हुआ है अतः आप उसके विपरीत जायेंगे  यह घटिया दर्जे की संकीर्णता है।
इस का एक छोटा सा उदाहरण और देखें -
इस्लामी कानून कहता है कि आप लघुशंका के बाद मूतेन्द्री को धोएं और पानी उपलब्ध न हो तो मिटटी के ढेले आदि से उसे शुष्क करलें ताकि वह वस्त्र एवं शरीर पर न लगे। परन्तु आप का नियम कहता है कि बचे-कुचे पेशाब को कपडे़ और शरीर पर ही लगने के लिये छोड़ दें।  परन्तु आप हैं कि लघुशंका के बाद हाथ फिर भी अवश्य धोते हैं। क्यों? अब आप इस्तनजा करें तो मुस्लमान कहलायें और न करें तो शरीर गंदा हो, आप तो खतना से भी न बच सके होंगे कि महर्षि स्वामी जी की सोच के अनुसार मूतेन्द्री की ऊपरी खाल बचे-कुचे पैशाब को सोख लेने के लिये है ताकि पेशाब की बूदें कपड़े और शरीर पर न लगें। खतना पर एक बात और याद आयी। वह यह कि मुसलमानी (खतना) भी आप के साथ ऐसी ही लगी रह गयी जैसे स्वभाव के नियम जिसे आप चाह कर भी नहीं छोड़ सकते और बचपन में अपनी मूतेन्द्री की कटी खाल को जब आप मुसलमान रहते , श्री0 मुजफ्फर अली के घर में पैदा हुये थे (अगर अपने इस दावे में सच्चे हैं) आप वापस नहीं ला सकते ।
 दरअसल आपकी मिसाल ‘‘आसमान से गिरा खजूर में अटका’’ जैसी है। यदि आपने घर वापसी करते हुये आर्य समाज को अपनाया है, आर्य समाज सनातन कहाँ है? उसको आरम्भ हुये तो अभी दो सौ वर्ष भी नहीं हुये। जब हिन्दू ही बनना था तो वह हिन्दू धर्म अपनाते जो अनादि से है और शास्वत और सनातन है।
खैर यह तो आपका पर्सनल मामला है जो चाहें  स्वीकार करें  और जो चाहे त्याग दें । परन्तु इस बात का भी ध्यान रखिये कि अपकी भाषा और लेखादि में भी गुरु का असर झलकता है मुसलमानों का खुदा ऐसा है मुसलमानों का खुदा वैसा है , यह अच्छी भाषा शैली नहीं है।
यह आप सभी का तर्ज-ए-तहरीर है - ईश्वर-ईश्वर है, उसे ईश्वर कहिये, प्रभु कहिये या गॉड कहिये या खुदा कहिये, आप ऐसा कह सकते है कि खुदा, ईश्वर, प्रभु ऐसा नहीं कर सकता, वैसा नहीं कर सकता परन्तु -
बात करने का सलीका नहीं नादानों  को
 बात असल में यह है कि ‘छोटा मुंह बड़ी बात’  महेनद्रपाल जी की आदत है। उन्होंने आज कल ज़ाकिर नायक को चेलेंज करते हुये एक ऐलान नामा इण्टरनेट पर डाला हुआ है कि ज़ाकिर नायक उनसे शास्त्रार्थ करें, अगर जाक़िर नायक उन्हें हरा देंगे  तो वह मंच पर ही इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। क्या जाक़िर नायक इस हद तक निचले स्तर पर उतर आए कि उस व्यक्ति से शास्त्रार्थ करने आ जायें जो पांच लाइनों में दस इमले की गलतियाँ करे, मुझे तो महेन्द्रपाल का यह ऐलान देखकर ‘धर्ती पकड़’ की याद आ जाती है, खुदा मालूम बेचारा इस दुनिया में  है या आँ जहानी हो गया। हमेशा राजीव गाँधी या इन्दिरा गाँधी जैसों के मुकाबले स्वतन्त्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा करता था। इस प्रजा तांत्रिक दौर में किसे रोका जा सकता है। सब स्वतंत्र हैं, चाहे धर्तीपकड़ राजीव गाँधी के मुकाबले चुनाव लडे़ या महेन्द्रपाल जाक़िर नायक को चुनौती दें क्या मजाल जो राजीव गाँधी या ज़ाकिर नायक चूँ भी कर सकें।
महेंद्रपाल जी की एक किताब ‘‘वेद और कुरआन की समीक्षा’’ के नाम से है पूरी किताब में जो फहवात बकी गयी हैं उससे उनकी ज़ेहनियत का पता चलता है। किताब इस लायक नहीं है कि पूरी किताब की समीक्षा कर मैं अपने लेख को बोझल करूं केवल एक आध उदाहरण से ही उनकी समीक्षा के स्तर का अन्दाज़ा हो जाएगा। उनकी किताब के पृष्ठ 7 व 8 का भाग देखें, महेंद्रपाल जी ने कुछ इबारतें लिखी हैं। वह यह ज़ाहिर करना चाहते हैं कि कुरआन में उस जैसी सूरा (अध्याय) बनाने का जो चैलेंज किया गया है महेंद्रपाल जी ने उसे स्वीकार कर लिया है। महेंद्रपाल जी के  हाल पर हंसी आती है उन्होंने कुरआन ही के शब्दों की उलटफेर से कुछ पंक्तियां घड़ी हैं, इमले की बलंडर त्रुटियों पर यहां भी आपको हंसी आएगी, पहली पंक्ति देखें
(पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 37 पर चित्र देखें)

 शब्द हिया, वह के अर्थ में है यह शब्द सर्वनाम है ,अरबी भाषा की प्रारंभिक कक्षाओं में अरबी के सर्वनाम रटा कर याद कराए जाते हैं। खास बात बताने की यह है कि ‘हिया’ सर्वनाम छोटी हा से लिखा जाता है जबकि महेंद्रजी ने उसे बडी हा से लिखा है। अगर कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति जो अपने को गुरूकुल से एम. ए. या शास्त्री की डिग्री पास बताए और स्त्री को इसतरी या पुरूष को पुरुश लिखे उसके बारे में आपका क्या खयाल है? हां कक्षा 2 के छात्र से ऐसी त्रुटि की उम्मीद की जा सकती है।
  निम्न लिखित पंक्तियो में लगभग सभी शब्द कुरआन के हैं बस महेंद्रपाल जी ने बीच में ओउम शब्द अरबी भाषा में लिखकर अपनी योग्यता का प्रमाण देने का नाकाम प्रयास किया है।


(पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 38 पर चित्र देखें)
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प्रश्न यह है कि ऐसे व्यक्ति को क्या जवाब दिया जाए और क्या ऐसे व्यक्ति की बातों को संजीदगी से लिया जाए जो स्वयं कुरआन के शब्दों से लाइनें घड़कर उन्हें कुरआन जैसी आयतें बतलाए। फिर भी यह महाशय हैं कि ज़ाकिर नायक जैसी विश्व प्रसिद्ध हस्ती को चैलेंज करते हैं।
   क्या ऐसे व्यक्ति को इस लायक समझा जाए कि उसके शास्त्रार्थ के चैलेंज को महत्व देते हुए उसे स्वीकार किया जाए। यह निर्णय पाठकों को करना है। 
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श्रीमान महेंद्रपाल जी के द्वारा इन्टरनेट पर एक वीडियो डाली गयी है जिसका शीर्षक है महेंन्द्रपाल ने डाक्टर ज़ाकिर नायक के उस्ताद अब्दुल्लाह तारिक को हराया।
पहली बात तो यह है कि उक्त विडियो जिस प्रोग्राम की है वह कोई शास्त्रार्थ का प्रोगराम नहीं था अपितु आपसी भाईचारे पर आधारित प्रोग्राम था और अगर महेंद्रपाल जी उसे शास्त्रार्थ ही का प्रोग्राम मानते हैं तो फिर बताएं उसमें जज किसे नियुक्त किया गया था, उसमें अधिक संख्या महेन्द्रपाल जी के अनुयाईयों की थी उन्होंने ही प्रोग्राम का आयोजन किया था, और अब्दुल्लाह तारिक को बतौर अतिथि बुलाया गया था।
अब्दुल्लाह तारिक रियासत रामपुर के रहने वाले मशहूर इस्लामी स्कालर हैं उनके प्रोग्राम पीस टीवी से प्रसारित  होते रहते हैं। परन्तु जाक़िर नायक से उनका कोई गुरू-शिषय का संबंध नहीं है बल्कि उनकी जाक़िर नायक से एक दो मुलाकातों के अलावा अन्य कोई राबता नहीं है। ऐसे में उनको ज़ाकिर नायक का उस्ताद लिखना केवल अज्ञानता है।
जहाँ तक उनको हराने की बात है। नेट पर मौजूद विडियो में ऐसी कोई बात नहीं दिखती। महेंद्रपाल और अब्दुल्लाह तारिक की बातचीत की इस विडियो को देखकर लगता है कि महेंद्रपाल सच्चाई को जानने समझने और सही बात को मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है बल्कि आक्रमक अंदाज में बेवजह चीख रहे हैं। जबकि अब्दुल्लाह तारिक सभ्यता और शाइस्तगी से बात समझाने का प्रयास कर रहे हैं।
इस विडियो में महेंद्रपाल ने अपनी बात का आरंभ जिस नुक्ते से किया है उसका खुलासा यह है कि उनके पास जो कुछ है वह धर्म है और अन्य लोग (मुसलमान आदि) जिसे मानते हैं वह मज़हब है। यह वह नुक्ता है जिसे आजकल हिंदू मिथ्यालोजी के बड़े बड़े फलासफर पेश कर रहे हैं इनका मानना है कि धर्म बड़ी चीज़ है क्योंकि वह जीवन जीने की एक सम्पूर्ण पद्धति है और मजहब कोई छोटी चीज होती है क्योंकी वह पूजा पद्धति मात्र है। यानि
‘‘अंधे को अंधेरे में बहुत दूर की सूझी’’
यह बात केवल वह व्यक्ति कह सकता है जो मुसलमानों के बारे में सिर्फ इतना जानता हो कि मुसलमान या इस्लाम बस इस चीज का नाम है कि मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ आयें और रमज़ान का महीना आया तो रोज़े रख लिए। और मौका हुआ तो हज कर आए। महेंद्रपाल जी का इस बात पर दूसरों के सुर में सुर मिलाना केवल उनके इस दावे को संदिग्ध करता है कि वह पहले महबूब अली थे क्योंकि जानकारों को यह मालूम है कि दुनिया के तमाम धर्मों में केवल इस्लाम ही एक एसा धर्म है जो नाखून काटने और  जूता पहनने से लेकर हुकूमत करने तक के मामलों में एक-एक बात पर रहनुमायी पेश करता है और आज उसके पेशकरदा नियमों को सम्पूर्ण दुनिया मानने को मजबूर है। वर्तमान में कई देशों में इस्लामी सिद्धांत पर आधारित हुकूमतें चल रही हैं। ताजीरात -ए- इस्लामी पर बड़ी बड़ी युनिवर्सिटियों में शोद्ध किया जाता है, इस्लामिक ला के चार बुनियादी उसूल जिंदगी के हर पहलू का अहाता करते हैं।
यहां पर उस रिवायत का वर्णन उचित होगा, जिसका तअल्लुक हजरत मआज़ बिन जबल से है।
उनको अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहुअलैहि वसल्लम ने यमन का गवर्नर बनाकर भेजा था, जब वह प्रस्थान के लिए घोड़े पर सवार हो गए तो अल्लाह के रसूल कुछ दूर उनके साथ-साथ पैदल चले, और चलते-चलते उन्होंने मआज से पूछा कि तुम्हारे पास मुकदमात आएंगे तो किस प्रकार फैसला करोगे। मआज़ ने उत्तर दिया कि अल्लाह की किताब से। आपने कहा कि अगर अल्लाह की किताब में वह हुक्म न मिला तो फिर?
मआज़ ने उत्तर दिया सुन्नत-ए-रसूल और हदीसों से, आपने कहा कि अगर वहां भी न मिले तो?
मआज ने जवाब दिया कि इन दोनों की रौश्नी में क्यास करूंगा। आपने यह सुनकर खुशी का इज़हार किया और उनके सीने को थपथपा कर उनको शाबाशी दी और यमन के लिए रवाना कर दिया।
इसके अतिरिक्त इतिहासकार जानते हैं कि हुकूमतों के लिए सबसे पहला लिखित संविधान जिस पर अमल संभव है वह कुरआन व हदीस की शकल में इस्लाम ने पेश किया था जिनकी बुनियाद पर इस्लामिक ला, फिक़ा की शकल में वजूद में आया और बाद के दौर में उसके 4 स्कूल्स आफ थॉटस वजूद में आए। अर्थात हनफी, शाफई, मालकी और हंबली और अगर इसमें फिक़ा जाफरिया को शामिल कर लिया जाए तो यह पांच हो जाते हैं। आजकल अधिक इस्लामी मुलकों में फिका हनफी के मुताबिक ही अदालतें कायम हैं जबकि सऊदी अरब में हंबली और ईरान में फिक़ा जाफरिया के मुताबिक हुकूमत चलायी जाती हैं। इस्लाम की खूबी यह कि उसमें इस्लाम के ना मानने वालों के लिए भी ला मौजूद है। हैरतअंगेज़ बात यह है कि 1400 साल पहले पेशकरदा इस्लामी कानून आज के पसंदीदा तर्जे हुकूमत सेकुलरिज्म के लगभग शत प्रतिशत अनुकूल है। मसलन इस्लामी हुकूमत में गैर मुस्लिम के भी वही अधिकार हैं जो एक मुसलमान के हैं। लिहाज़ा किसी गैर मुस्लिम को कोई मुसलमान नाहक कतल कर दे तो जान के बदले जान के नियम के अनुसार ही कातिल से किसास लिया जाएगा।
इन सब बातों को जानते हुए भी अगर कोई यह कहे कि इस्लाम पूजा पद्धति मात्र है तो उसके बारे में केवल यही कहा जा सकता है कि वह इस्लामी शिक्षा से अत्यंत अनभिज्ञ है और अगर ऐसा कहने वाला यह दावा भी करे वह हाफिज व आलिम भी था तो मेरा खयाल है कि उसे किसी साईकलोजिस्ट से अपना इलाज कराना चाहिए।
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हमने पंडित जी की एक अन्य पुस्तक का वर्णन किया था पंडित जी महाराज अपनी उसी पुस्तक ‘‘वेद और कुरआन की समीक्षा’’ के पृष्ठ 10 पर लिखते हैं
‘‘लोग मेरे लेख को पढने में रूची रखते हैं कुछ आर्यसमाजियों में रवीवारीय सत्संग में मेरे लेख का पाठ होता रहा है जिसमें अनेक उल्लेखनीय लेख मेरे विभिन्न पत्रिकाओं में छपे हैं, मैं सिद्धांत पर ही लिखता हूं।’’
    और करमफरमा पंडित महाशय का सिद्धांत यह है कि स्वयं से पंक्तियाँ घड़ो और लिख डालो कि यह कुरआन में है। ऐसे सिद्धांतवादी पर अल्लाह रहम करे।
यह महाशय अपनी पुस्तक के पृष्ठ 10 पर ही आगे लिखते हैंः
‘‘आज भी तथाकथित आर्यसमाज के अधिकारी जो कहलाते हैं उन्हें भी वैदिक सिद्धांत का क ख भी नहीं मालूम’’
अर्थात वैदिक सिद्धांत तो वह है जो महेन्द्रपाल पेश कर रहे हैं कि झूठी पंक्तियां घडो और उसे कुरआन की आयत बताकर उन पर प्रश्न करके भोले-भाले और सीधे- साधे लोगों को बहकाओ, हमने किताब के आरंभ में महेंद्रपाल जी के पत्रक के पहले पृष्ठ पर उनके द्वारा लिखित पंक्ति


(पी.डी.एफ फाइल पृष्‍ठ 44 पर चित्र देखें)
अंकित की थी चलो इसी पर फैसला हो जाए। महेंद्रपाल जी ने इसे कुरआन की आयत लिखा है। अगर वह उसको कुरआन के 30 पारों में कहीं दिखादें तो वह सच्चे ठहरे। वरना आर्य समाज को बताना चाहिए कि क्या यही वैदिक सिद्धांत है? और अगर ऐसा नहीं है तो फिर बहतर होगा कि वह महेन्द्रपाल की ज़बान को स्वयं लगाम दें।
   डा. मुहम्मद असलम कासमी



वेदों के ज्ञाता महर्षि दयानंद सरस्वती ने
‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा हैः-
1. प्रसूता छह दिन के पश्चात् बच्चे को दूध न पिलावे। (2-3) (4-68)
2.  24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरुष का विवाह उत्तम है अर्थात् स्वामी जी के मतानुसार लड़के की उम्र लड़की से दूना या ढाई गुना होनी चाहिए। (4-20) (14-143) (3-31)
3.  गर्भ स्थिति का निश्चय हो जाने पर एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष का समागम नहीं होना चाहिए। (2-2) (4-65)
4.  जब पति अथवा स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हों तो वह पुरुष अथवा स्त्री नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकते हैं। (4-122 से 149)
5.  यज्ञ और हवन करने से वातावरण शुद्ध होता है। (4-93)
6.  मांस खाना जघन्य अपराध है। मांसाहारियों के हाथ का खाने में आर्यों  को भी यह पाप लगता है। पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानिएगा। (10-11 से 25)
7.  मुर्दों को गाड़ना बुरा है क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देते हैं। (13-41, 42)
8.  लघुशंका के पश्चात् कुछ मुत्रांश कपड़ों में न लगे, इसलिए ख़तना कराना बुरा है। (13-31)
9.  दण्ड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधार पर होना चाहिए। (6-27)
10. ईश्वर के न्याय में क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं होता। (14-105)
11. ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता। (7-52)
12. सूर्य केवल अपनी परिधि (Axis)  पर घूमता है किसी लोक के चारों ओर ; (Orbit) नहीं घूमता। (8-71)
13. सूर्य, चन्द्र, तारे आदि पर भी मनुष्य आदि सृष्टि हैं। (8-73)
14. सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो  जाती है। (10-2)
जरा सोचिए ! क्या उक्त तथ्य वास्तव में बौद्धिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक हैं ?


वेदों के ज्ञाता स्वामी दयानंद सरस्वती ने
वेदों के निर्देशन में लिखा है:-

1.  ईश्वर जगत् का निमित्त (Efficient Cause)   कारण है, उपादन कारण    (Material Cause)  नहीं है। (7-45) (8-3)
वैदिक धर्म एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करता है और उसे सृष्टिकर्ता भी मानता है, मगर स्वामी दयानंद ने कहा कि उपादन कारण के बिना जगत् की उत्पत्ति संभव नहीं है। ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों अनादि हैं। ईश्वर मात्र शिल्पी है, उसने सृष्टि का विकास किया है, सृजन नहीं किया। अर्थात् जिस प्रकार कुम्भकार ने घड़ा बनाया, मिट्टी नहीं बनाई, ठीक इसी प्रकार परमेश्वर ने जगत् बनाया। प्रकृति और जीव दोनों संसाधन ;(Material) पहले से मौजूद थे।
2.  सम्पूर्ण मानवता एक माँ-बाप की संतान नहीं है। (8-51)
3.  वेद आवागमनीय पुनर्जन्म की अवधारणा का प्रतिपादन करते हैं। (9-75)
4.  मनुष्य और पशु आदि में जीव (Soul) एक सा है। (9-74)
5.  स्वर्ग, नरक का कोई अलग लोक नहीं है। (9-79)

विचार करें कि क्या वास्तव में वेद उक्त तथ्यों को प्रतिपादित करते हैं?