अगर यह प्रश्न किया जाए कि इन्सान की वह कौन सी समस्या है जो उसके लिए सब से अधिक चिन्ता का विषय है परन्तु उसी पर वह कोई चिन्ता नहीं करता तो इस का एक ही जवाब हो सकता है और वह है, परलोक की समस्या।
मृत्यु एक ऐसा सच है जिस से इन्कार संभव नहीं, परन्तु मौत को ही मनुष्य अक्सर भूला हुआ रहता है। आखिर इसका क्या कारण है? शायद यह कि मृत्यु के बाद के रहस्य को अभी तक मनुष्य अपने ज्ञान-विज्ञान की बुनियाद पर सुलझा नहीं सका है। आज के वैज्ञानिक दौर में जहाँ विज्ञान ने सितारों पर कमन्दें डाल दीं और हवा की लहरों को कैद कर लिया, वहीं इस दौर का आधुनिक विज्ञान भी परलोक की समस्या पर एक दम मौन दिखाई पड़ता है, परन्तु क्या कोई मनुष्य मृत्यु से बच सकता है? कदापि नहीं। तो फिर हमें इस समस्या का समाधान वहाँ खोजना चाहिए जहाँ वह मिल सकता है। और वह है धर्म। हाँ इस समस्या का हल अगर कहीं मिलता है तो वह धर्म के पास मिलता है। केवल धर्म ही परलोक की समस्या को हल करता है। परन्तु धर्म तो कईं हैं। किसे माना जाए और किसे छोड़ दिया जाए। यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।
धर्म यद्यपि कईं हैं परन्तु परलोक के बारे में मुख्यतः दो ही विचारधाराएं पाई जाती हैं। एक वह जिसे हिन्दू धर्म पेश करता है, अर्थात आवागमन का सिद्धान्त। और दूसरा वह, जिसे इस्लाम पेश करता है, यानी यह कि, मरने के बाद दोबारा से कोई इस दुनिया में नहीं आयेगा। अब वह अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग में जायेगा। या नरक में, उसने अगर दुनिया में रहते धर्म के बताये मार्ग पर जीवन व्यतीत किया है तो उसकी आत्मा के लिये स्वर्ग का आराम है, वरना नरक की भयानक यातनाएं।
अब यह प्रश्न आता है कि इन दोनों विचारधाराओं में से किसे सही कहें, और किसे गलत ठहराएं ।
यद्यपि विज्ञान इस विषय पर मौन है। परन्तु सच्चाई को जानने के कुछ और भी पैमाने हैं और वे हैं, बुद्धि और विवेक आदि।
आइए उपरोक्त दोनों विचार धाराओं को इस कसौटी पर परखते हैं :--
आवागमन
पहले बात आवागमन की। यह सिद्धान्त भविष्य से ज्यादा भूतकाल से सम्बन्ध रखता है । जबकि स्वर्ग और नरक का सम्बन्ध पूर्णतः भविष्य से है। जो समय बीत गया, हम उसका विश्लेषण कर सकते हैं, परन्तु जो आने वाला है उसके लिए हमें समय की प्रतिक्षा करनी होगी । इस सन्दर्भ में आवागमन के सिद्वान्त पर कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्रश्न चिह्न लगाते हैं। जो इस प्रकार हैं -
1. सांसारिक इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन से साबित हो चुका है कि इन्सान से पहले अन्य जीव जन्तु, कीट पतंगों और वनस्पतियों की उत्पत्ति हुई, प्रश्न यह है कि ये वस्तुएं अगर मनुष्य के बुरे कर्मो का परिणाम हैं तो मनुष्य से पहले इनकी उत्पत्ति किस के बुरे कर्मो का परिणाम था ?
2. अन्य जीव जन्तु एवं वनस्पति इन्सान की एसी आवश्यकताएं हैं कि अगर ये न रहें तो इन्सानी जीवन कठिन हो जाए, अगर ये इन्सान के बुरे कर्मो का परिणाम हैं तो मानना होगा कि इन सब वस्तुओं के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये बुरे कर्म भी जरूरी हैं, जो धर्म के विपरीत हैं।
3. कलयुग में इन्सानी आबादी का बढ़ना भी इस ख्याल का खंडन करता है। स्पष्ट है कि अगर अन्य वस्तुएं इन्सान के बुरे कर्मो का परिणाम होती हैं तो इस युग में इन्सानी आबादी घटती चली जाती, और अन्य वस्तुएं अधिक होती, जबकि वर्तमान में स्थिति विपरीत है।
4. अगर इन्सान का लंगड़ा-लूला, अन्धा-बहरा होना उसके पहले जन्म के बुरे कर्मो का परिणाम है, तो प्रश्न उठता है कि आज दुनिया भर मेंे पोलियों के खिलाफ आन्दोलन करके इन्सान के लंगडा पैदा होने पर काफी हद तक नियन्त्रण कर लिया गया है। आखिर यह कैसे हुआ कि पोलियो ड्राप की दो बूंद मनुष्य के किसी गुनाह का कफ्फारा बन गई ?
5. यह सिद्धान्त, गरीबों, कमज़ोरों और अपाहिजों से सहानुभूति और हमदर्दी को घटाता है, क्यांेकि अगर यह विकार उनके पिछले कर्मो का फल है तो उनकी मदद क्यों की जाए? और यह धर्म की शिक्षा के खिलाफ है।
6. अगर इन्सानी विकार और उस पर होने वाली जुल्म व ज्यादती व आपदाओं की पीड़ा, सभी उसके पिछले जन्म के कर्मो का परिणाम हंै तो फिर मानना चाहिए कि यहाँ पर जो भी हो रहा है वह सब न्यायसंगत है, लूटमार अत्याचार सब कुछ तर्कसंगत है, न तो कुछ पाप बचता है, और न पुण्य का आधार । क्योंकि जैसा किसी ने किया था वैसा भुगत रहा है।
7. आधुनिक विज्ञान के अध्ययन से पता चलता है, कि मनुष्य जन्तु और वनस्पति इन तीनों में जीव है परन्तु तीनों का जीवन अलग अलग प्रकार का है, मसलन पेड़ पौधों में जीवन है लेकिन आत्मा, बुद्धि विवेक और चेतना नहीं होती, जन्तुओं में जीवन होता है, बुद्धि आत्मा होती है, परन्तु विवेक और विचार नहीं होता, जबकि मनुष्य में जीवन आत्मा बुद्धि विवेक और विचारादि सब कुछ होता है। ऐसे में क्या यह न्यायसंगत है कि गलती तो करें पांच क्रियाओं वाला जीव, परन्तु सजा दी जाए तीन या दो क्रियाओं वाले जीव को, वह भी उस से विवेक और विचार को निकाल कर, जब कि दण्ड या पुरस्कार का सीधा सम्बन्ध विवेक और विचार से है। आप एक बुद्धिहीन व्यक्ति को पुरस्कार दें या दण्ड, उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता, तात्पर्य यह है कि यह एक बड़ी विडंबना है कि इसके अनुसार पाप तो करता है मनुष्य और दण्ड भोगता है गधा, या विवेकहीन व बुद्धिहीन वृक्ष ।
8. अगर मनुष्य की अपंगता उसके पूर्व जन्म के बुरे कर्मो का फल है तो न्याय व्यवस्था का तकाज़ा है कि दंडित व्यक्ति को पता हो कि उसके वे कौन कौन से पाप हैं जिनकी यह सजा है। हम दुनिया में भी देखते हैं कि मुजरिम को उसका गुनाह बता कर और उस को सफाई का मौका देकर सजा दी जाती है। मगर ईश्वर का कानून क्या इतना अन्धा है कि न बाजपुर्स (स्पष्टीकरण) और न यह बताना कि हम किस अपराध की सजा काट रहे हैं, यह कैसी न्याय व्यवस्था है ?
इस सम्बन्ध में इस्लामी सिद्धान्त बहुत स्पष्ट है वह यह कि एक दिन कयामत (प्रलय) हो जायेगी और यह सारा संसार नष्ट हो जायेगा, फिर हश्र का दिन अर्थात हिसाब किताब का दिन बरपा होगा, अतः सारे इन्सानों को पुनः जीवित किया जायेगा और उनके कर्मो का लेखा जोखा जो ईश्वर के यहाँ सुरक्षित होगा उनके सामने रख दिया जायेगा और बुरे कर्म करने वाले से पूछा जायेगा कि तूने यह-यह बुरे कार्य किये थे? तो वह मुकरने का प्रयास करेगा परन्तु उसके शरीर के अंग हाथ और पैर उसके खिलाफ गवाही देंगे। इसी का चित्रण करते हुए पवित्र ‘‘कुरआन’’ में कहा गया है :--
(और जिस दिन) कर्म पत्रिका (सामने) रखी जायेगी तो तुम अपराधियों को देखोगे कि जो कुछ उसमें होगा उससे डर रहे होंगे और कह रहे होंगें, हाय हमारा दुर्भाग्य यह कैसी किताब है जिस ने कोई छोटी बात छोड़ी है न बड़ी, अपितु सभी को अपने अन्दर समाहित कर रखा है जो कुछ उन्होंने किया होगा सब मौजूद पायेंगे और तुम्हारा रब (ईश्वर) किसी पर जुल्म न करेगा (18:45)
एक प्रश्न
कभी-कभी सुनने में आता है कि कोई छोटा बच्चा अपने पिछले जन्म की बातें बता रहा है। पहली बात तो यह है कि यह समाचार इतने छोटे बच्चों का होता है जिनकी गवाही भी स्वीकार्य नहीं है। परन्तु अगर इस पर ‘शंका भी न करें तो भी ऐसे समाचार इतने कम होते हैं कि उन्हें एक सूक्ष्म अपवाद कहना उचित होगा और अपवाद तर्क नहीं बनते। दूसरी बात यह है कि ऐसा केवल हिन्दू परिवारों में ही पेश आता है। जबकि अगर यह सत्य होता तो कभी-कभी अन्य परिवारों और अन्य देशों से भी ऐसे समाचार प्राप्त होते। जबकि ऐसा नहीं है।
हमने आवागमनीय सिद्धान्त के विरूद्ध जो तर्क प्रस्तुत किये हैं ये हमारे मन को विचलित करने के लिए प्रयाप्त हैं। क्या अब भी हम यही मानें कि मरणोपरान्त जैसे-कैसे भी हमें फिर इसी संसार में कोई अन्य शरीर देकर भेज दिया जायेगा। अगर अभी भी आप अवागमनीय सिद्धान्त पर ही भरोसा रखते हैं तो आईए एक दूसरी कसौटी पर इस विचार धारा को परखने का प्रयास करते हैं ।
उद्देश्य केवल यह है कि हम परलोक की समस्या को सुलझा सकें, और यह जान सकें कि मरने के बाद यह आत्मा कहां जाती और इसका क्या होता है। ताकि परलोक के भयानक कष्ट से स्वयं को सुरक्षित रख सकें।
जैसा कि आरम्भ में लिखा गया कि विज्ञान तो इस संबंध में शत प्रतिशत मौन है। अतः हमारे पास एक ही विकल्प रह जाता है, वह यह कि इसे जानने के लिए धर्म का सहारा लिया जाए, जो इस समस्या को शत-प्रतिशत हल करने का पहले दिन से दावा करता है।
जैसा कि ज्ञात हे कि परलोक के सम्बन्ध में मुख्यतः दो ही विचारधाराएं हैं। एक आवगवन एवं दूसरी यह कि मरणोपरांत कोई दोबारा से इस दुनिया में नहीं आता, अपितु परलोक में अनंत के लिए कर्मानुसार या तो स्वर्ग के सुख भोगता है या नरक की यातनाएं।
आइए इन दोनों विचारधाराओं की सच्चाई का पता लगाने के लिये इनके मुख्य स्रोतों की शुद्धता, सच्चाई, और मजबूती को परखते हैं। दोनों के स्रोतों में जो भी अधिक शुद्ध, मजबूत, वैज्ञानिक, बुद्धि और विवेक पर खरा उतरने वाला होगा, बुद्धि और विवेक का तकाज़ा यह है कि उसी के द्वारा प्रस्तुत विचार धारा को स्वीकार किया जायेगा।
आवागमन की बात अधिक विस्तार पूर्वक जिस धर्म पुस्तक में हमें मिलती है वह है मनु स्मृति । वेदों और उननिषदों की अगर बात की जाए तो उनमें पुनः जन्म का शब्द प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ होता है दोबारा जन्म, न कि बार-बार जन्म । जहाँ तक दोबारा जन्म की बात है, इस्लाम धर्म भी यही कहता है कि कयामत के बाद सारे इन्सानों को दौबारा जीवन देकर उठाया जायेगा और दुनिया में उनके द्वारा किये गये कर्मो का हिसाब होगा, और कर्मानुसार मनुष्य को स्वर्ग या नरक में डाला जाए जहाँ फिर कभी मौत नहीं होगी ।
रही बात पुराणों की, उनमें भी आवागवन की बात मिलती है, परन्तु उनको बहुत से विद्धान मान्यता नहीं देते। महर्षि स्वामी दयानंद ने उनका घोर खंडन किया है । जबकि मनुस्मृति से उन्होंने अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं ।
तात्पर्य यह है कि मनुस्मृति ही एक मात्र वह धर्म पुस्तक है जिसमें सर्वप्रथम आवागवन को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है, अर्थात वही आवागमन की विचार धारा का मूल और मुख्य स्रोत है । और विचाराधीन जन्नत व दोजख या परलोक में हिसाब, किताब के बाद अनन्त तक स्वर्ग या नरक में रहने की विचार धारा का मुख्य स्रोत है। इस्लाम की धर्मपुस्तक ‘‘पवित्र कुरआन’’ ।
आइए इन दोनों मुख्य स्रोतों की अन्य शिक्षाओं को इस दृष्टिकोण से आकंे कि किसकी अन्य शिक्षाएं विवेकशील स्वीकार्य, बुद्धि संगत, समाज संगत, सटीक और वैज्ञानिक हैं और किसकी विवेकहीन, अस्वीकार्य और अवैज्ञानिक हैं, यक़ीनन सदबुद्धि यही कहती है कि जिसकी अन्य शिक्षाएं अधिक स्वीकार्य हैं, परलोक के सम्बन्ध में भी उसी का कथन स्वीकार किया जाए।
पहले इस्लाम की धर्म पुस्तक कुरआन का आकलन करते हैं। कुरआन का अवतरण सवा चैदह सौ वर्ष पूर्व (610-670) इस्लाम धर्म के अंतिम पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब पर अरब क्षेत्र में हुआ । यों तो वह समय ही विज्ञान, शिक्षा और आधुनिक सभ्यता का नहीं था परन्तु अरब क्षेत्र शिक्षा व सभ्यता से अपेक्षाकृत अधिक दूर था। यह कितना विचित्र है कि ऐसे दौर में कुरआन ने जो भी शिक्षा पेश कीं, उनमें से एक भी ऐसी नहीं है जो आज के आधुनिक दौर में भी बुद्धि या आधुनिक विज्ञान के विपरीत हो या विज्ञान उसको प्रमाणित या पुष्ट न करता हो अर्थात कुरआन में एक भी बात ऐसी नहीं है जो इस आधुनिक युग में भी अतार्किक, अवैज्ञानिक, असमाजीय या अस्वीकार्य मानी जाए, बल्कि उसकी शिक्षाएं वह हैं जिनको मुखालिफ भी अपनाने को विवश हैं। मसलन मानव समाज के बारे में कुरआन यह नज़रिया पेश करता है कि छोटा हो या बड़ा, काला हो या गोरा, भारतीय हो या अमरीकी, पुरूष हो या महिला, इंसानियत में सब बराबर हैं और एक मां व बाप की संतान हैं। (देखें कुरआन सूरह हुजरात -13 व सूरह आराफ -198) यह बताने की जरूरत नहीं कि आधुनिक समाज, सांइस और बुद्धि ने इसे पूरे तौर पर स्वीकार कर लिया है ।
कुरआन ने अपने समय में ऐसी-ऐसी पुष्टियां प्रस्तुत कीं, जो उस समय के विज्ञान के विपरीत थीं, परन्तु बाद के प्रमाणित विज्ञान ने उनकी हूबहु पुष्टि की। मसलन भ्रूण उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुरआन ने एक से अधिक स्थान पर, जिसे सूरह दहर की आयत नं02 और सूरह मोमिनून की आयत नं 12,13 में देखा जा सकता है जो कुछ पेश किया था, आधुनिक विज्ञान ने उसे हूबहु स्वीकार किया। ख्याल रहे कि वह समय आज की भांति विज्ञान का समय नहीं था।
कुरआन ने चौदह सौ वर्ष पूर्व एक विचित्र बात कही थी जिसको सूरह यूनुस की आयत नं 92 में देखा जा सकता है। वह हैरत अंगेज़ बात यह है कि दुनियावी इतिहास के एक मुतकब्बिर, अंहकारी और घंमडी राजा मिस्र का फिरओन, जो स्वयं को ईश्वर कहलवाता और स्वयं की पूजा करवाता था। जिसको समझाने के लिये ईश्वर ने अपने एक महत्वपूर्ण दूत ‘‘हज़रत मूसा’’ को भेजा परन्तु वह अंहकारी नहीं माना और अन्त में लाल सागर में डूब कर मरा। उसकी इस घटना का चित्रण करते हैं कुरआन कहता है कि हमने फिरऔन से कहा -
आज हम तेरे बदन को सुरक्षित करते हैं ताकि वह बाद के लोगों के लिए इबरत बन सके (10:92)
विचित्र बात यह है कि जब कुरआन का अवतरण हुआ उस समय फिरऔन के पार्थिव शरीर के बारे में किसी को कुछ पता नहीं था कि वह कहॉं है। यह घटना 1881 की है जब उसका पार्थिव शरीर लाल सागर में तैरता मिला, जो आज मिस्र के संग्रहालय में सुरक्षित अवस्था में रखा हुआ है ।
यहाँ दो बातें विशेष तौर पर ध्यान देने की हैं । प्रथम यह कि मिस्र के संग्रहालय में वहाँ के अतीत के महाराजाओं की और भी ममियां मौजूद है, परन्तु उस फिरऔन की विशेषता यह है कि उसे ममी नहीं कराया गया है फिर भी वह सुरक्षित है । दूसरी बात यह है कि उन्नीसवी सदी में आधुनिक विज्ञान के दृष्टिकोण से फिरऔन के पार्थिव शरीर पर शोध किया गया, इस पर शोध कार्य करने वाले मशहूर वैज्ञानिक फ्रांस के ‘‘डा0 मोरिसबुकाई’’ थे, जिन्होंने अपने शोध में वैज्ञानिक तर्को से इस बात को सिद्ध किया कि यह पार्थिव शरीर उसी फिरऔन का है जिसके दरबार में मूसा को भेजा गया था । उनके इस शोध कार्य पर ही उन्हे पी0 एच0 डी0 की डिग्री दी गई थी अन्ततः जब उनके सामने कुरआन की उक्त आयत आई तो वह इस्लाम धर्म स्वीकार कर मुसलमान बन गये ।
देखें डा0 मूरिस बुकाई की मशहूर पुस्तक ‘‘कुरआन, बाइबिल और सांइस’’।
पवित्र कुरआन में छः हजार छः सौ छियासठ आयतें है, यद्यपि कुरआन एक धार्मिक पुस्तक है, कोई वैज्ञानिक पुस्तक नहीं परन्तु कुरआन की कुल आयतों में करीब एक हजार एसी है जिनका किसी न किसी तौर पर आज के आधुनिक विज्ञान से सम्बन्ध है। यह कुरआन की सत्यता का प्रमाण है कि सत्यापित विज्ञान कुरआन की किसी एक बात के भी विपरीत नहीं गया है। यहाँ पर कुछ सूक्ष्म उदाहरण प्रस्तुत हैं -
1. चांद और सूरज के बारे में कुरआन कहता है कि यह सब अपने अपने आर्बिट्स में तैर रहे हैं (सूरह अम्बिया 33) यह हैरत अंगेज़ इत्तफाक है कि आधुनिक विज्ञान ने भी इसी परिभाषा का प्रयोग किया है।
2. धरती की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विज्ञान कहता है कि हमारी यह धरती भी सूर्य का अंश थी फिर एक धमाका हुआ और यह टूट कर अलग हुई, इस हवाले से कुरआन कहता है कि
आसमान व जमीन आपस में मिले हुए थे फिर हमने उन्हें एक धमाके से अलग किया (21:30)
3. कुरआन कहता है कि
हमने पृथ्वी को तुम्हारे लिये गहवारा बनाया और पहाड़ो को (पृथ्वी के लिए) मेखें बनाया (21:6-7)
यह पृथ्वी मनुष्य के लिये गहवारा कैसे है। उसका महत्व उस समय स्पष्ट होता है जब हमें पता चलता है है कि यह पृथ्वी तीव्र गति से घूम रही है। फिर भी हम इसके ऊपर चलते फिरते हैं, खेती-बाडी करते हैं और मकान बनाते हैं। इसी प्रकार आधुनिक विज्ञान इस बात की पुष्टि करता है कि पहाड़ों की जड़े ज़मीन में गहराई तक होती हैं जो जमीन के लिए मेखों का कार्य करती हैं ।
4. कुरआन कहता है कि -
हमने आसमान को तुम्हारे लिए सुरक्षित छत बनाया (21:32)
आसमान हमारे लिये सुरक्षित छत किस तरह है इसका अन्दाज़ा हमें तब होता तब आधुनिक विज्ञान बताता है कि जमीन के ऊपर ओजोन की एक मोटी चादर ज़मीन को घेरे हुए है जो सूर्य की हानि कारक किरणों एवं अन्य गैसों से हमारी सुरक्षा करती है। जो अगर न रहे तो जमीन से इन्सानी जीवन का खात्मा हो जाए।
यहाँ पर हमने पवित्र कुरआन की सूरह अम्बिया की कुछ आयतों के हवाले से बात की है। इस प्रकार की निशानियां आपको पूरे कुरआन में नज़र आयेगीं, स्वयं कुरआन कहता है -
हम उन्हें (लोगों को) अपनी निशानियां दिखाएंगे, संसार में, और स्वयं उनके अपने भीतर भी यहाँ तक कि उन पर स्पष्ट हो जायेगा यह कि वह (कुरआन) सत्य है । (41:53)
विस्तार से जानने के लिये देखें डा0 ज़ाकिर नायक की पुस्तक ‘‘इस्लाम और सांइस’’।
इस तरह हम देखते हैं कि कुरआन के 99 प्रतिशत हिस्से को आधुनिक विज्ञान प्रमाणित करता है या उसकी पुष्टि करता है। शेष एक प्रतिशत में वह भाग रह गया है जिसके बारे में आधुनिक विज्ञान भी खामोश है मसलन परलोक की बात को ही लीजिए, जिसके बारे में विज्ञान भी जुबान खोलने को तैयार नहीं ।
ऐसे में विचारणीय बात यह है कि जिस धर्म पुस्तक का निन्नानवे प्रतिशत भाग सूर्य के प्रकाश की मानिन्द स्पष्ट हो, उसके शेष एक प्रतिशत भाग (जिस पर विज्ञान भी अटका हुआ है) पर बुद्धि क्या कहती है ?
यक़ीनन स्वस्थ दिल व दिमाग की आवाज तो यही है कि एक प्रतिशत भाग पर भी दिल से यकीन किया जाएं, विशेष रूप से उस समय भी, जब उसके विरोध में स्पष्ट प्रमाण भी मौजूद न हों।
आवागवन की विचारधारा :--
अब हम आवागवन की विचारधारा के स्रोत पर बात करते हैं। जैसा कि ज्ञात है कि इसका मूल स्रोत ‘‘मनुस्मृति’’ है। लिहाज़ा उचित होगा कि परलोक के अतिरिक्त उसकी अन्य शिक्षाओं का विश्लेषण करें कि वे सांइस, समाज, बुद्धि और मानव विवेक को कहां तक स्वीकार्य हैं।
‘‘मनुस्मृति’’ का पहला पन्ना ही खोलिये तो आपको बुनियादी बात जो मिलेगी वह यह है कि इन्सानी समाज चार खानों में आवंटित है पहला ब्राह्मण है जिसका रूत्बा सबसे ऊपर है, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा वेश्य और चैथा शूद्र है ।
शुद्र सब से नीचे है और ऊपर के तीनों वर्गो की सेवा करना उसका परम कर्तव्य है ।
इस पुस्तक के मशहूर हिन्दी अनुवादक ‘‘आचार्य वाद्रायण’’ पहले अध्याय के दूसरे श्लोक पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं -
वेद का वचन है कि ‘‘भगवान’’ ने अपने मुहं से ब्राह्मण को भुजाओं से क्षत्रिय को जांघों से वेश्य को और पैरों से शूद्र को पैदा किया है ।
-(मनुस्मृति पृष्ठ 7, टीकाकार आचार्य वादरायण, डायमंड पब्लिकेशन, मेरठ)
मनु स्मृति के अनुसार ब्राह्मण भगवान के सिर से उत्पन्न है, इसलिए वह सब से ऊपर है अन्य उसके बाद क्रमशः यहाँ तक कि शूद्र को इन्तिहाई जिल्लत का जीवन जीने पर मजबूर किया गया है। वह न तो शिक्षा प्राप्त कर सकता है और न ही धार्मिक कार्य कर सकता है। श्रीराम ने शंबूक नामी शूद्र का वध केवल इसलिए कर दिया था कि उसने शूद्र होते हुए भी जप-तप करने का दुस्साहस किया था ।
यहाँ पर न्याय व्यवस्था में भी सब के लिए अलग-अगल कानून है समान जुर्म होने पर ब्राह्मण के लिए हल्की से हल्की सजा, क्षत्रिय और वेश्य के लिए अपेक्षाकृत कठोर और शूद्र के लिए कठोर से कठोर सजा का विधान है। मसलन कहा गया है -
शूद्र अगर आरक्षित महिला से संभोग करे तो उसका वध किया जाए या उसकी मूत्रेन्द्रि काट दी जाय, क्षत्रिय या वेश्य करे तो आर्थिक दंड दिया जाए और ब्राह्मण करे तो उसके सर के बाल मुंडवाये जाए। -(मनुस्मृति अध्याय 8, श्लोक 374 से 379)
मनुस्मृति में यह ऊंच-नीच जीवन से मृत्यु तक चलती है यहाँ तक कि चारो वर्णो के पार्थिव शरीर को शमशान घाट ले जाने के लिए अलग-अलग रास्तों से ले जाने का विधान है । (देखें मनुस्मृति अध्याय 5, श्लोक 95)
नियोग
मनुस्मृति के अनुसार अगर किसी महिला के अपने पति से बच्चा उत्पन्न न हो तो वह किसी अन्य व्यक्ति से यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकती है। इसे नियोग कहा जाता है, जिसकी हिन्दू धर्म में पूरी आजादी है। ( देखें मनुस्मृति अध्याय 9, श्लोक 59 से 63) यह बताने की आवश्यकता नहीं कि समाज में यह व्यवस्था एक ‘शार्मनाक विषय है।
गोमूत्र और गोबर रस
मनुस्मृति गो मूत्र एवं गोबर रस को पवित्र मान कर उसके सेवन करने की प्रेरणा देती है । (देखें मनुसृमति अध्याय 11, श्लोक 212) मलमूत्र चाहे जिसका हो, बुद्धि तो यही कहती है कि वह अपवित्र है। फिर चाहे वह किसी इंसान का हो या जानवर का। कुछ महाशयों को यह कहते सुना गया है कि गाय के मूत्र से औषधियां बनती हैं। परन्तु मेरा प्रश्न यह है कि अगर इससे औषधियां बनाई जाती हैं तो क्या इसका विकल्प नहीं? और अगर आस्था की बात है तो अपवित्र वस्तु में आस्था कैसी?
दिनांक 20.3.2010 को हिंदी समाचार पत्रों में हरिद्वार के महाकुंभ का एक समाचार छपा है जिसमें बताया गया है कि दसियों विदेशियों ने हिंदू धर्म की दीक्षा प्राप्त की, जिन्हें पंचगव्व (गौमूत्र, गोबर, दूध, घी और दही के मिश्रण) से धार्मिक अनुष्ठान कराया गया और पंचगव्व को ‘श्ारीर पर मलकर उनका ‘शुद्धिकरण किया गया। (देखें दैनिक जागरण, 20.3.2010)। बुद्धि कहती है कि अपवित्र वस्तुओं से ‘शुद्धि नहीं अशुद्धि प्राप्त होती है।
विरोधाभास
नियमों का विरोधाभास किसी भी संहिता को संदिग्ध साबित करने के लिए पर्याप्त होता है। मनुस्मृति के अध्ययन से पता चलता है कि इसमें बहुत ही अधिक विरोधाभास विद्यमान हैं। यहाँ पर एक स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत है।
सामान्य रूप से माना जाता है कि माँस भक्षण हिन्दू धर्म में पाप है मनुस्मृति में भी इसके स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं अध्याय 5 के श्लोक 51 में मांस भक्षण के गुनाहगारों में मांस काटने वाले से लेकर परोसने वाले और खाने वाले को पाप लगने की बात कही गई है। परन्तु विचित्र बात यह है कि इसी अध्याय के श्लोक 30 में कहा गया है -
भक्ष्य पदार्थो को प्रति दिन खाने से भक्षक को किसी प्रकार का दोष नहीं लगता, (5 - 30)
इसी अध्याय के श्लोक 27 मे है -
ब्राह्मणों को माँस भोजन खिलाने की इच्छा होने पर विवेक शील द्विज को मांस को प्रोक्षण विधि से शुद्ध कर के खिलाना चाहिये, और स्वयं भी खाना चाहिये । (5-27)
इसी अध्याय के श्लोक 32 में है -
खरीदे गये, मार कर लाये गये अथवा किसी अन्य द्वारा उपहार आदि के रूप में दिये गये किसी पशु के मांस को देवों और पितरों को समर्पित करने तथा उनका अर्चन पूजन करने के उपरान्त प्रसाद के रूप में मांस को खाने वाला दोषग्रस्त नहीं होता (5-32)
इसी अध्याय के श्लोक 36 में है -
मन्त्रों द्वारा पशुओं को परिष्कृत करने के उपरान्त ही उनका वध करना और मांस भक्षण करना चाहिए यही प्राचीन परम्परा है और यही वेद की आज्ञा है। (5-36)
अध्याय 3 में मांस द्वारा पितरोें को श्राद्ध करने सम्बन्धी कहा गया है
विभिन्न पशु-पक्षियों के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की तृप्ति-सन्तुष्टि की अवधि का उल्लेख करते हुए मनु जी बोले महऋषियांे ! मनुष्य के पितर विधि विधान से श्राद्ध करने पर मछली के मांस से दो महीने तक हिरन के मांस से तीन महीने तक, मेंढे के मांस से चार महीने तक, पक्षियों के मांस से पांच महीने तक, बकरे के मांस से छः महीने तक, मृग के माँस से नौ महीने तक, ऐण मृग के मांस से आठ महीने तक, रुरुमृग के मांस से नौ महीने तक, शूकर के मांस से दस महीने तक भैंसे तथा खरगोश और कछुए के मांस से ग्यारह महीने तक तृप्त सन्तुष्ट रहते हैं । इस प्रकार श्राद्ध में उपयुक्त पशु पक्षियों का मांस परोस कर पितरोें को दीर्घकाल तक तृप्त सन्तुष्ट बनाये रखना चाहिए।
- (अध्याय 3, श्लोक 269, 270, 271)
उक्त प्रकार के श्लोकों से क्या समझा जाए? यही न कि एक और मांस भक्षण निषेध है और दूसरी ओर माँस भक्षण के न केवल आदेश ही हैं अपितु मांस द्वारा श्राद्ध करने से पितर दीर्घकाल तक तृप्त बने रहते हैं ।
इस विरोधाभास का मतलब इसके अतिरिक्त क्या हो सकता है कि अगर एक आदेश सही है तो दूसरा शत प्रतिशत गलत होगा और जहाँ एक भी बात की गलती संभव है वहाँ दूसरी के सही होने की क्या गारन्टी हो सकती है ?
यहाँ पर बिना किसी भूमिका के पवित्र कुरआन की एक आयत प्रस्तुत करना उचित होगा। कुरआन कहता है -
क्या लोग कुरआन में सोच विचार नहीं करते, अगर यह अल्लाह के अतिरिक्त कहीं ओर से होता तो निश्चय ही वे उसमें अधिकाधिक विरोधाभास पाते (4:82)
इस आयत-ए-करीमा के सन्दर्भ में कोई टिप्पणी किये बिना मुझे यह कहने दीजिए कि जिस ग्रन्थ में इस हद तक विरोधाभास हो और जिसकी आम शिक्षाओं को ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि, विवेक और समाज स्वीकार न करे, परलोक जैसे संवेदनशील एवं महत्वपूर्ण मुद्दे पर उसकी विचार धारा कैसे स्वीकार की जा सकती है। विशेष रूप से उस समय जब उसके विपरीत अन्य विचारधारा प्रस्तुत करने वाला वह ग्रन्थ हो जिसके एक भी अंग को विज्ञान, बुद्धि या समाज ने आज तक रद्द न किया हो।
मेरा ख्याल है कि अभी तक के तर्क-वितर्क की बुनियाद पर हमें मान लेना चाहिये कि परलोक के सम्बन्ध में पवित्र कुरआन का दृष्टिकोण ही सही है। वह यह कि मरणोपरान्त कोई इस संसार में वापस नहीं आयेगा अपितु कर्मानुसार या तो स्वर्ग का आराम है या नरक की दहकती आग।
परन्तु अगर अभी भी आप का मन आवागवन में ही अटका हुआ है तो आइए एक अन्य दृष्टिकोण से इस विषय का विश्लेषण करते हैं।
हमें यह देखना चाहिए कि कौन सी विचार धारा को छोडने में जोखिम अधिक है, ना कि यह कि कौन सी विचार धारा अपनाने में आज के दिन लाभ अधिक है । क्योंकि बुद्धिमान वही है जो भविष्य की चिन्ता करें लिहाज़ा भविष्य के अनन्त जीवन के सुख-दुख की चिन्ता आज के थोड़े से जीवन के आराम से बेहतर है। यह तो हम जानते ही है कि इस संसार का नियम है कि जो भविष्य की चिन्ता करता है वही भविष्य के जीवन का निर्माण कर पाता है। अगर एक किसान खेत की खुदाई, निराई और बुआई न करे तो क्या उसे फसल मिल पायेगी ?
इस सन्दर्भ में हम देखते हैं कि परलोक संबंधी कुरआन के कथन को छोडने में अधिक जोखिम है क्योंकि मान लो कि मैं आवागवन के सिद्धान्त को नहीं मानता और मैंने पूरा जीवन इस सिद्धान्त को प्रस्तुत करने वाले धर्म के विपरीत व्यतीत किया, तो मेरे लिए कड़ी से कड़ी चाहे जो भी सजा निर्धारित की जाए, आना तो मुझे इसी दुनिया में है। परन्तु कुरआन के कथनानुसार अगर उसके विपरीत जीवन व्यतीत करके परलोक जाने वाला मनुष्य ईश्वर के आगे चीखेगा, पुकारेगा, और एक बार और दुनिया मे भेजने का आग्रह करेगा, ताकि इस बार वह ईश्वरीय धर्मानुसार जीवन व्यतीत कर सके, परन्तु उसकी एक न सुनी जायेगी और उसे नरक की दहकती आग में डाल दिया जायेगा । कुरआन में है-
और लोगों को उस दिन से डराइये, जब अजाब आयेगा, उस समय जालिम लोग कहेंगे। हे ईश्वर! हमें थोड़ी मोहलत दे दे। अब की बार हम तेरे पैगाम को स्वीकार करेंगे और संदेष्टा के बताये मार्ग पर चलेंगे। - (14:44)
और जिन लोगों ने अपने पालनहार का इंकार किया, उनके लिये नरक का अजाब है। और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है, जब वह उस में फेकें जायेंगे तो उसके दहाड़ने की भयानक आवाज सुनेंगे, ऐसा लगेगा कि वे प्रकोप से अभी फट जायेगी, हर बार जब भी उस में कोई समूह डाला जायेगा तो उसके कारिन्दे कहेंगे कि क्या तुम्हारे पास कोई सावधान करने वाला नहीं आया था, वे कहेंगे कि आया था, परन्तु हम उसको झुठलाते रहे । - (67:8-9)
इंकार करने वालों की बस्तियों में चलत फिरत तुम्हें धोखे में न डाले ये तो बहुत थोड़ी सुख सामग्री है फिर उनका ठिकाना जहन्नम (नरक) है और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।
किन्तु जो लोग अपने पालनहार से डरते रहे उनके लिए ऐसी जन्नत (सवर्ग) होगी जिनके नीचे नहरे बह रही होंगी, वे उसमे सदैव रहेंगे।-
(3:196, 97, 98)
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मृत्यु एक ऐसा सच है जिस से इन्कार संभव नहीं, परन्तु मौत को ही मनुष्य अक्सर भूला हुआ रहता है। आखिर इसका क्या कारण है? शायद यह कि मृत्यु के बाद के रहस्य को अभी तक मनुष्य अपने ज्ञान-विज्ञान की बुनियाद पर सुलझा नहीं सका है। आज के वैज्ञानिक दौर में जहाँ विज्ञान ने सितारों पर कमन्दें डाल दीं और हवा की लहरों को कैद कर लिया, वहीं इस दौर का आधुनिक विज्ञान भी परलोक की समस्या पर एक दम मौन दिखाई पड़ता है, परन्तु क्या कोई मनुष्य मृत्यु से बच सकता है? कदापि नहीं। तो फिर हमें इस समस्या का समाधान वहाँ खोजना चाहिए जहाँ वह मिल सकता है। और वह है धर्म। हाँ इस समस्या का हल अगर कहीं मिलता है तो वह धर्म के पास मिलता है। केवल धर्म ही परलोक की समस्या को हल करता है। परन्तु धर्म तो कईं हैं। किसे माना जाए और किसे छोड़ दिया जाए। यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।
धर्म यद्यपि कईं हैं परन्तु परलोक के बारे में मुख्यतः दो ही विचारधाराएं पाई जाती हैं। एक वह जिसे हिन्दू धर्म पेश करता है, अर्थात आवागमन का सिद्धान्त। और दूसरा वह, जिसे इस्लाम पेश करता है, यानी यह कि, मरने के बाद दोबारा से कोई इस दुनिया में नहीं आयेगा। अब वह अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग में जायेगा। या नरक में, उसने अगर दुनिया में रहते धर्म के बताये मार्ग पर जीवन व्यतीत किया है तो उसकी आत्मा के लिये स्वर्ग का आराम है, वरना नरक की भयानक यातनाएं।
अब यह प्रश्न आता है कि इन दोनों विचारधाराओं में से किसे सही कहें, और किसे गलत ठहराएं ।
यद्यपि विज्ञान इस विषय पर मौन है। परन्तु सच्चाई को जानने के कुछ और भी पैमाने हैं और वे हैं, बुद्धि और विवेक आदि।
आइए उपरोक्त दोनों विचार धाराओं को इस कसौटी पर परखते हैं :--
आवागमन
पहले बात आवागमन की। यह सिद्धान्त भविष्य से ज्यादा भूतकाल से सम्बन्ध रखता है । जबकि स्वर्ग और नरक का सम्बन्ध पूर्णतः भविष्य से है। जो समय बीत गया, हम उसका विश्लेषण कर सकते हैं, परन्तु जो आने वाला है उसके लिए हमें समय की प्रतिक्षा करनी होगी । इस सन्दर्भ में आवागमन के सिद्वान्त पर कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्रश्न चिह्न लगाते हैं। जो इस प्रकार हैं -
1. सांसारिक इतिहास के वैज्ञानिक अध्ययन से साबित हो चुका है कि इन्सान से पहले अन्य जीव जन्तु, कीट पतंगों और वनस्पतियों की उत्पत्ति हुई, प्रश्न यह है कि ये वस्तुएं अगर मनुष्य के बुरे कर्मो का परिणाम हैं तो मनुष्य से पहले इनकी उत्पत्ति किस के बुरे कर्मो का परिणाम था ?
2. अन्य जीव जन्तु एवं वनस्पति इन्सान की एसी आवश्यकताएं हैं कि अगर ये न रहें तो इन्सानी जीवन कठिन हो जाए, अगर ये इन्सान के बुरे कर्मो का परिणाम हैं तो मानना होगा कि इन सब वस्तुओं के अस्तित्व को बनाये रखने के लिये बुरे कर्म भी जरूरी हैं, जो धर्म के विपरीत हैं।
3. कलयुग में इन्सानी आबादी का बढ़ना भी इस ख्याल का खंडन करता है। स्पष्ट है कि अगर अन्य वस्तुएं इन्सान के बुरे कर्मो का परिणाम होती हैं तो इस युग में इन्सानी आबादी घटती चली जाती, और अन्य वस्तुएं अधिक होती, जबकि वर्तमान में स्थिति विपरीत है।
4. अगर इन्सान का लंगड़ा-लूला, अन्धा-बहरा होना उसके पहले जन्म के बुरे कर्मो का परिणाम है, तो प्रश्न उठता है कि आज दुनिया भर मेंे पोलियों के खिलाफ आन्दोलन करके इन्सान के लंगडा पैदा होने पर काफी हद तक नियन्त्रण कर लिया गया है। आखिर यह कैसे हुआ कि पोलियो ड्राप की दो बूंद मनुष्य के किसी गुनाह का कफ्फारा बन गई ?
5. यह सिद्धान्त, गरीबों, कमज़ोरों और अपाहिजों से सहानुभूति और हमदर्दी को घटाता है, क्यांेकि अगर यह विकार उनके पिछले कर्मो का फल है तो उनकी मदद क्यों की जाए? और यह धर्म की शिक्षा के खिलाफ है।
6. अगर इन्सानी विकार और उस पर होने वाली जुल्म व ज्यादती व आपदाओं की पीड़ा, सभी उसके पिछले जन्म के कर्मो का परिणाम हंै तो फिर मानना चाहिए कि यहाँ पर जो भी हो रहा है वह सब न्यायसंगत है, लूटमार अत्याचार सब कुछ तर्कसंगत है, न तो कुछ पाप बचता है, और न पुण्य का आधार । क्योंकि जैसा किसी ने किया था वैसा भुगत रहा है।
7. आधुनिक विज्ञान के अध्ययन से पता चलता है, कि मनुष्य जन्तु और वनस्पति इन तीनों में जीव है परन्तु तीनों का जीवन अलग अलग प्रकार का है, मसलन पेड़ पौधों में जीवन है लेकिन आत्मा, बुद्धि विवेक और चेतना नहीं होती, जन्तुओं में जीवन होता है, बुद्धि आत्मा होती है, परन्तु विवेक और विचार नहीं होता, जबकि मनुष्य में जीवन आत्मा बुद्धि विवेक और विचारादि सब कुछ होता है। ऐसे में क्या यह न्यायसंगत है कि गलती तो करें पांच क्रियाओं वाला जीव, परन्तु सजा दी जाए तीन या दो क्रियाओं वाले जीव को, वह भी उस से विवेक और विचार को निकाल कर, जब कि दण्ड या पुरस्कार का सीधा सम्बन्ध विवेक और विचार से है। आप एक बुद्धिहीन व्यक्ति को पुरस्कार दें या दण्ड, उस पर कोई फर्क नहीं पड़ता, तात्पर्य यह है कि यह एक बड़ी विडंबना है कि इसके अनुसार पाप तो करता है मनुष्य और दण्ड भोगता है गधा, या विवेकहीन व बुद्धिहीन वृक्ष ।
8. अगर मनुष्य की अपंगता उसके पूर्व जन्म के बुरे कर्मो का फल है तो न्याय व्यवस्था का तकाज़ा है कि दंडित व्यक्ति को पता हो कि उसके वे कौन कौन से पाप हैं जिनकी यह सजा है। हम दुनिया में भी देखते हैं कि मुजरिम को उसका गुनाह बता कर और उस को सफाई का मौका देकर सजा दी जाती है। मगर ईश्वर का कानून क्या इतना अन्धा है कि न बाजपुर्स (स्पष्टीकरण) और न यह बताना कि हम किस अपराध की सजा काट रहे हैं, यह कैसी न्याय व्यवस्था है ?
इस सम्बन्ध में इस्लामी सिद्धान्त बहुत स्पष्ट है वह यह कि एक दिन कयामत (प्रलय) हो जायेगी और यह सारा संसार नष्ट हो जायेगा, फिर हश्र का दिन अर्थात हिसाब किताब का दिन बरपा होगा, अतः सारे इन्सानों को पुनः जीवित किया जायेगा और उनके कर्मो का लेखा जोखा जो ईश्वर के यहाँ सुरक्षित होगा उनके सामने रख दिया जायेगा और बुरे कर्म करने वाले से पूछा जायेगा कि तूने यह-यह बुरे कार्य किये थे? तो वह मुकरने का प्रयास करेगा परन्तु उसके शरीर के अंग हाथ और पैर उसके खिलाफ गवाही देंगे। इसी का चित्रण करते हुए पवित्र ‘‘कुरआन’’ में कहा गया है :--
(और जिस दिन) कर्म पत्रिका (सामने) रखी जायेगी तो तुम अपराधियों को देखोगे कि जो कुछ उसमें होगा उससे डर रहे होंगे और कह रहे होंगें, हाय हमारा दुर्भाग्य यह कैसी किताब है जिस ने कोई छोटी बात छोड़ी है न बड़ी, अपितु सभी को अपने अन्दर समाहित कर रखा है जो कुछ उन्होंने किया होगा सब मौजूद पायेंगे और तुम्हारा रब (ईश्वर) किसी पर जुल्म न करेगा (18:45)
एक प्रश्न
कभी-कभी सुनने में आता है कि कोई छोटा बच्चा अपने पिछले जन्म की बातें बता रहा है। पहली बात तो यह है कि यह समाचार इतने छोटे बच्चों का होता है जिनकी गवाही भी स्वीकार्य नहीं है। परन्तु अगर इस पर ‘शंका भी न करें तो भी ऐसे समाचार इतने कम होते हैं कि उन्हें एक सूक्ष्म अपवाद कहना उचित होगा और अपवाद तर्क नहीं बनते। दूसरी बात यह है कि ऐसा केवल हिन्दू परिवारों में ही पेश आता है। जबकि अगर यह सत्य होता तो कभी-कभी अन्य परिवारों और अन्य देशों से भी ऐसे समाचार प्राप्त होते। जबकि ऐसा नहीं है।
हमने आवागमनीय सिद्धान्त के विरूद्ध जो तर्क प्रस्तुत किये हैं ये हमारे मन को विचलित करने के लिए प्रयाप्त हैं। क्या अब भी हम यही मानें कि मरणोपरान्त जैसे-कैसे भी हमें फिर इसी संसार में कोई अन्य शरीर देकर भेज दिया जायेगा। अगर अभी भी आप अवागमनीय सिद्धान्त पर ही भरोसा रखते हैं तो आईए एक दूसरी कसौटी पर इस विचार धारा को परखने का प्रयास करते हैं ।
उद्देश्य केवल यह है कि हम परलोक की समस्या को सुलझा सकें, और यह जान सकें कि मरने के बाद यह आत्मा कहां जाती और इसका क्या होता है। ताकि परलोक के भयानक कष्ट से स्वयं को सुरक्षित रख सकें।
जैसा कि आरम्भ में लिखा गया कि विज्ञान तो इस संबंध में शत प्रतिशत मौन है। अतः हमारे पास एक ही विकल्प रह जाता है, वह यह कि इसे जानने के लिए धर्म का सहारा लिया जाए, जो इस समस्या को शत-प्रतिशत हल करने का पहले दिन से दावा करता है।
जैसा कि ज्ञात हे कि परलोक के सम्बन्ध में मुख्यतः दो ही विचारधाराएं हैं। एक आवगवन एवं दूसरी यह कि मरणोपरांत कोई दोबारा से इस दुनिया में नहीं आता, अपितु परलोक में अनंत के लिए कर्मानुसार या तो स्वर्ग के सुख भोगता है या नरक की यातनाएं।
आइए इन दोनों विचारधाराओं की सच्चाई का पता लगाने के लिये इनके मुख्य स्रोतों की शुद्धता, सच्चाई, और मजबूती को परखते हैं। दोनों के स्रोतों में जो भी अधिक शुद्ध, मजबूत, वैज्ञानिक, बुद्धि और विवेक पर खरा उतरने वाला होगा, बुद्धि और विवेक का तकाज़ा यह है कि उसी के द्वारा प्रस्तुत विचार धारा को स्वीकार किया जायेगा।
आवागमन की बात अधिक विस्तार पूर्वक जिस धर्म पुस्तक में हमें मिलती है वह है मनु स्मृति । वेदों और उननिषदों की अगर बात की जाए तो उनमें पुनः जन्म का शब्द प्रयोग हुआ है, जिसका अर्थ होता है दोबारा जन्म, न कि बार-बार जन्म । जहाँ तक दोबारा जन्म की बात है, इस्लाम धर्म भी यही कहता है कि कयामत के बाद सारे इन्सानों को दौबारा जीवन देकर उठाया जायेगा और दुनिया में उनके द्वारा किये गये कर्मो का हिसाब होगा, और कर्मानुसार मनुष्य को स्वर्ग या नरक में डाला जाए जहाँ फिर कभी मौत नहीं होगी ।
रही बात पुराणों की, उनमें भी आवागवन की बात मिलती है, परन्तु उनको बहुत से विद्धान मान्यता नहीं देते। महर्षि स्वामी दयानंद ने उनका घोर खंडन किया है । जबकि मनुस्मृति से उन्होंने अनेक तर्क प्रस्तुत किये हैं ।
तात्पर्य यह है कि मनुस्मृति ही एक मात्र वह धर्म पुस्तक है जिसमें सर्वप्रथम आवागवन को विस्तार से प्रस्तुत किया गया है, अर्थात वही आवागमन की विचार धारा का मूल और मुख्य स्रोत है । और विचाराधीन जन्नत व दोजख या परलोक में हिसाब, किताब के बाद अनन्त तक स्वर्ग या नरक में रहने की विचार धारा का मुख्य स्रोत है। इस्लाम की धर्मपुस्तक ‘‘पवित्र कुरआन’’ ।
आइए इन दोनों मुख्य स्रोतों की अन्य शिक्षाओं को इस दृष्टिकोण से आकंे कि किसकी अन्य शिक्षाएं विवेकशील स्वीकार्य, बुद्धि संगत, समाज संगत, सटीक और वैज्ञानिक हैं और किसकी विवेकहीन, अस्वीकार्य और अवैज्ञानिक हैं, यक़ीनन सदबुद्धि यही कहती है कि जिसकी अन्य शिक्षाएं अधिक स्वीकार्य हैं, परलोक के सम्बन्ध में भी उसी का कथन स्वीकार किया जाए।
पहले इस्लाम की धर्म पुस्तक कुरआन का आकलन करते हैं। कुरआन का अवतरण सवा चैदह सौ वर्ष पूर्व (610-670) इस्लाम धर्म के अंतिम पैगंबर हज़रत मुहम्मद साहब पर अरब क्षेत्र में हुआ । यों तो वह समय ही विज्ञान, शिक्षा और आधुनिक सभ्यता का नहीं था परन्तु अरब क्षेत्र शिक्षा व सभ्यता से अपेक्षाकृत अधिक दूर था। यह कितना विचित्र है कि ऐसे दौर में कुरआन ने जो भी शिक्षा पेश कीं, उनमें से एक भी ऐसी नहीं है जो आज के आधुनिक दौर में भी बुद्धि या आधुनिक विज्ञान के विपरीत हो या विज्ञान उसको प्रमाणित या पुष्ट न करता हो अर्थात कुरआन में एक भी बात ऐसी नहीं है जो इस आधुनिक युग में भी अतार्किक, अवैज्ञानिक, असमाजीय या अस्वीकार्य मानी जाए, बल्कि उसकी शिक्षाएं वह हैं जिनको मुखालिफ भी अपनाने को विवश हैं। मसलन मानव समाज के बारे में कुरआन यह नज़रिया पेश करता है कि छोटा हो या बड़ा, काला हो या गोरा, भारतीय हो या अमरीकी, पुरूष हो या महिला, इंसानियत में सब बराबर हैं और एक मां व बाप की संतान हैं। (देखें कुरआन सूरह हुजरात -13 व सूरह आराफ -198) यह बताने की जरूरत नहीं कि आधुनिक समाज, सांइस और बुद्धि ने इसे पूरे तौर पर स्वीकार कर लिया है ।
कुरआन ने अपने समय में ऐसी-ऐसी पुष्टियां प्रस्तुत कीं, जो उस समय के विज्ञान के विपरीत थीं, परन्तु बाद के प्रमाणित विज्ञान ने उनकी हूबहु पुष्टि की। मसलन भ्रूण उत्पत्ति के सम्बन्ध में कुरआन ने एक से अधिक स्थान पर, जिसे सूरह दहर की आयत नं02 और सूरह मोमिनून की आयत नं 12,13 में देखा जा सकता है जो कुछ पेश किया था, आधुनिक विज्ञान ने उसे हूबहु स्वीकार किया। ख्याल रहे कि वह समय आज की भांति विज्ञान का समय नहीं था।
कुरआन ने चौदह सौ वर्ष पूर्व एक विचित्र बात कही थी जिसको सूरह यूनुस की आयत नं 92 में देखा जा सकता है। वह हैरत अंगेज़ बात यह है कि दुनियावी इतिहास के एक मुतकब्बिर, अंहकारी और घंमडी राजा मिस्र का फिरओन, जो स्वयं को ईश्वर कहलवाता और स्वयं की पूजा करवाता था। जिसको समझाने के लिये ईश्वर ने अपने एक महत्वपूर्ण दूत ‘‘हज़रत मूसा’’ को भेजा परन्तु वह अंहकारी नहीं माना और अन्त में लाल सागर में डूब कर मरा। उसकी इस घटना का चित्रण करते हैं कुरआन कहता है कि हमने फिरऔन से कहा -
आज हम तेरे बदन को सुरक्षित करते हैं ताकि वह बाद के लोगों के लिए इबरत बन सके (10:92)
विचित्र बात यह है कि जब कुरआन का अवतरण हुआ उस समय फिरऔन के पार्थिव शरीर के बारे में किसी को कुछ पता नहीं था कि वह कहॉं है। यह घटना 1881 की है जब उसका पार्थिव शरीर लाल सागर में तैरता मिला, जो आज मिस्र के संग्रहालय में सुरक्षित अवस्था में रखा हुआ है ।
यहाँ दो बातें विशेष तौर पर ध्यान देने की हैं । प्रथम यह कि मिस्र के संग्रहालय में वहाँ के अतीत के महाराजाओं की और भी ममियां मौजूद है, परन्तु उस फिरऔन की विशेषता यह है कि उसे ममी नहीं कराया गया है फिर भी वह सुरक्षित है । दूसरी बात यह है कि उन्नीसवी सदी में आधुनिक विज्ञान के दृष्टिकोण से फिरऔन के पार्थिव शरीर पर शोध किया गया, इस पर शोध कार्य करने वाले मशहूर वैज्ञानिक फ्रांस के ‘‘डा0 मोरिसबुकाई’’ थे, जिन्होंने अपने शोध में वैज्ञानिक तर्को से इस बात को सिद्ध किया कि यह पार्थिव शरीर उसी फिरऔन का है जिसके दरबार में मूसा को भेजा गया था । उनके इस शोध कार्य पर ही उन्हे पी0 एच0 डी0 की डिग्री दी गई थी अन्ततः जब उनके सामने कुरआन की उक्त आयत आई तो वह इस्लाम धर्म स्वीकार कर मुसलमान बन गये ।
देखें डा0 मूरिस बुकाई की मशहूर पुस्तक ‘‘कुरआन, बाइबिल और सांइस’’।
पवित्र कुरआन में छः हजार छः सौ छियासठ आयतें है, यद्यपि कुरआन एक धार्मिक पुस्तक है, कोई वैज्ञानिक पुस्तक नहीं परन्तु कुरआन की कुल आयतों में करीब एक हजार एसी है जिनका किसी न किसी तौर पर आज के आधुनिक विज्ञान से सम्बन्ध है। यह कुरआन की सत्यता का प्रमाण है कि सत्यापित विज्ञान कुरआन की किसी एक बात के भी विपरीत नहीं गया है। यहाँ पर कुछ सूक्ष्म उदाहरण प्रस्तुत हैं -
1. चांद और सूरज के बारे में कुरआन कहता है कि यह सब अपने अपने आर्बिट्स में तैर रहे हैं (सूरह अम्बिया 33) यह हैरत अंगेज़ इत्तफाक है कि आधुनिक विज्ञान ने भी इसी परिभाषा का प्रयोग किया है।
2. धरती की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विज्ञान कहता है कि हमारी यह धरती भी सूर्य का अंश थी फिर एक धमाका हुआ और यह टूट कर अलग हुई, इस हवाले से कुरआन कहता है कि
आसमान व जमीन आपस में मिले हुए थे फिर हमने उन्हें एक धमाके से अलग किया (21:30)
3. कुरआन कहता है कि
हमने पृथ्वी को तुम्हारे लिये गहवारा बनाया और पहाड़ो को (पृथ्वी के लिए) मेखें बनाया (21:6-7)
यह पृथ्वी मनुष्य के लिये गहवारा कैसे है। उसका महत्व उस समय स्पष्ट होता है जब हमें पता चलता है है कि यह पृथ्वी तीव्र गति से घूम रही है। फिर भी हम इसके ऊपर चलते फिरते हैं, खेती-बाडी करते हैं और मकान बनाते हैं। इसी प्रकार आधुनिक विज्ञान इस बात की पुष्टि करता है कि पहाड़ों की जड़े ज़मीन में गहराई तक होती हैं जो जमीन के लिए मेखों का कार्य करती हैं ।
4. कुरआन कहता है कि -
हमने आसमान को तुम्हारे लिए सुरक्षित छत बनाया (21:32)
आसमान हमारे लिये सुरक्षित छत किस तरह है इसका अन्दाज़ा हमें तब होता तब आधुनिक विज्ञान बताता है कि जमीन के ऊपर ओजोन की एक मोटी चादर ज़मीन को घेरे हुए है जो सूर्य की हानि कारक किरणों एवं अन्य गैसों से हमारी सुरक्षा करती है। जो अगर न रहे तो जमीन से इन्सानी जीवन का खात्मा हो जाए।
यहाँ पर हमने पवित्र कुरआन की सूरह अम्बिया की कुछ आयतों के हवाले से बात की है। इस प्रकार की निशानियां आपको पूरे कुरआन में नज़र आयेगीं, स्वयं कुरआन कहता है -
हम उन्हें (लोगों को) अपनी निशानियां दिखाएंगे, संसार में, और स्वयं उनके अपने भीतर भी यहाँ तक कि उन पर स्पष्ट हो जायेगा यह कि वह (कुरआन) सत्य है । (41:53)
विस्तार से जानने के लिये देखें डा0 ज़ाकिर नायक की पुस्तक ‘‘इस्लाम और सांइस’’।
इस तरह हम देखते हैं कि कुरआन के 99 प्रतिशत हिस्से को आधुनिक विज्ञान प्रमाणित करता है या उसकी पुष्टि करता है। शेष एक प्रतिशत में वह भाग रह गया है जिसके बारे में आधुनिक विज्ञान भी खामोश है मसलन परलोक की बात को ही लीजिए, जिसके बारे में विज्ञान भी जुबान खोलने को तैयार नहीं ।
ऐसे में विचारणीय बात यह है कि जिस धर्म पुस्तक का निन्नानवे प्रतिशत भाग सूर्य के प्रकाश की मानिन्द स्पष्ट हो, उसके शेष एक प्रतिशत भाग (जिस पर विज्ञान भी अटका हुआ है) पर बुद्धि क्या कहती है ?
यक़ीनन स्वस्थ दिल व दिमाग की आवाज तो यही है कि एक प्रतिशत भाग पर भी दिल से यकीन किया जाएं, विशेष रूप से उस समय भी, जब उसके विरोध में स्पष्ट प्रमाण भी मौजूद न हों।
आवागवन की विचारधारा :--
अब हम आवागवन की विचारधारा के स्रोत पर बात करते हैं। जैसा कि ज्ञात है कि इसका मूल स्रोत ‘‘मनुस्मृति’’ है। लिहाज़ा उचित होगा कि परलोक के अतिरिक्त उसकी अन्य शिक्षाओं का विश्लेषण करें कि वे सांइस, समाज, बुद्धि और मानव विवेक को कहां तक स्वीकार्य हैं।
‘‘मनुस्मृति’’ का पहला पन्ना ही खोलिये तो आपको बुनियादी बात जो मिलेगी वह यह है कि इन्सानी समाज चार खानों में आवंटित है पहला ब्राह्मण है जिसका रूत्बा सबसे ऊपर है, दूसरा क्षत्रिय, तीसरा वेश्य और चैथा शूद्र है ।
शुद्र सब से नीचे है और ऊपर के तीनों वर्गो की सेवा करना उसका परम कर्तव्य है ।
इस पुस्तक के मशहूर हिन्दी अनुवादक ‘‘आचार्य वाद्रायण’’ पहले अध्याय के दूसरे श्लोक पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं -
वेद का वचन है कि ‘‘भगवान’’ ने अपने मुहं से ब्राह्मण को भुजाओं से क्षत्रिय को जांघों से वेश्य को और पैरों से शूद्र को पैदा किया है ।
-(मनुस्मृति पृष्ठ 7, टीकाकार आचार्य वादरायण, डायमंड पब्लिकेशन, मेरठ)
मनु स्मृति के अनुसार ब्राह्मण भगवान के सिर से उत्पन्न है, इसलिए वह सब से ऊपर है अन्य उसके बाद क्रमशः यहाँ तक कि शूद्र को इन्तिहाई जिल्लत का जीवन जीने पर मजबूर किया गया है। वह न तो शिक्षा प्राप्त कर सकता है और न ही धार्मिक कार्य कर सकता है। श्रीराम ने शंबूक नामी शूद्र का वध केवल इसलिए कर दिया था कि उसने शूद्र होते हुए भी जप-तप करने का दुस्साहस किया था ।
यहाँ पर न्याय व्यवस्था में भी सब के लिए अलग-अगल कानून है समान जुर्म होने पर ब्राह्मण के लिए हल्की से हल्की सजा, क्षत्रिय और वेश्य के लिए अपेक्षाकृत कठोर और शूद्र के लिए कठोर से कठोर सजा का विधान है। मसलन कहा गया है -
शूद्र अगर आरक्षित महिला से संभोग करे तो उसका वध किया जाए या उसकी मूत्रेन्द्रि काट दी जाय, क्षत्रिय या वेश्य करे तो आर्थिक दंड दिया जाए और ब्राह्मण करे तो उसके सर के बाल मुंडवाये जाए। -(मनुस्मृति अध्याय 8, श्लोक 374 से 379)
मनुस्मृति में यह ऊंच-नीच जीवन से मृत्यु तक चलती है यहाँ तक कि चारो वर्णो के पार्थिव शरीर को शमशान घाट ले जाने के लिए अलग-अलग रास्तों से ले जाने का विधान है । (देखें मनुस्मृति अध्याय 5, श्लोक 95)
नियोग
मनुस्मृति के अनुसार अगर किसी महिला के अपने पति से बच्चा उत्पन्न न हो तो वह किसी अन्य व्यक्ति से यौन सम्बन्ध स्थापित कर सकती है। इसे नियोग कहा जाता है, जिसकी हिन्दू धर्म में पूरी आजादी है। ( देखें मनुस्मृति अध्याय 9, श्लोक 59 से 63) यह बताने की आवश्यकता नहीं कि समाज में यह व्यवस्था एक ‘शार्मनाक विषय है।
गोमूत्र और गोबर रस
मनुस्मृति गो मूत्र एवं गोबर रस को पवित्र मान कर उसके सेवन करने की प्रेरणा देती है । (देखें मनुसृमति अध्याय 11, श्लोक 212) मलमूत्र चाहे जिसका हो, बुद्धि तो यही कहती है कि वह अपवित्र है। फिर चाहे वह किसी इंसान का हो या जानवर का। कुछ महाशयों को यह कहते सुना गया है कि गाय के मूत्र से औषधियां बनती हैं। परन्तु मेरा प्रश्न यह है कि अगर इससे औषधियां बनाई जाती हैं तो क्या इसका विकल्प नहीं? और अगर आस्था की बात है तो अपवित्र वस्तु में आस्था कैसी?
दिनांक 20.3.2010 को हिंदी समाचार पत्रों में हरिद्वार के महाकुंभ का एक समाचार छपा है जिसमें बताया गया है कि दसियों विदेशियों ने हिंदू धर्म की दीक्षा प्राप्त की, जिन्हें पंचगव्व (गौमूत्र, गोबर, दूध, घी और दही के मिश्रण) से धार्मिक अनुष्ठान कराया गया और पंचगव्व को ‘श्ारीर पर मलकर उनका ‘शुद्धिकरण किया गया। (देखें दैनिक जागरण, 20.3.2010)। बुद्धि कहती है कि अपवित्र वस्तुओं से ‘शुद्धि नहीं अशुद्धि प्राप्त होती है।
विरोधाभास
नियमों का विरोधाभास किसी भी संहिता को संदिग्ध साबित करने के लिए पर्याप्त होता है। मनुस्मृति के अध्ययन से पता चलता है कि इसमें बहुत ही अधिक विरोधाभास विद्यमान हैं। यहाँ पर एक स्पष्ट उदाहरण प्रस्तुत है।
सामान्य रूप से माना जाता है कि माँस भक्षण हिन्दू धर्म में पाप है मनुस्मृति में भी इसके स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं अध्याय 5 के श्लोक 51 में मांस भक्षण के गुनाहगारों में मांस काटने वाले से लेकर परोसने वाले और खाने वाले को पाप लगने की बात कही गई है। परन्तु विचित्र बात यह है कि इसी अध्याय के श्लोक 30 में कहा गया है -
भक्ष्य पदार्थो को प्रति दिन खाने से भक्षक को किसी प्रकार का दोष नहीं लगता, (5 - 30)
इसी अध्याय के श्लोक 27 मे है -
ब्राह्मणों को माँस भोजन खिलाने की इच्छा होने पर विवेक शील द्विज को मांस को प्रोक्षण विधि से शुद्ध कर के खिलाना चाहिये, और स्वयं भी खाना चाहिये । (5-27)
इसी अध्याय के श्लोक 32 में है -
खरीदे गये, मार कर लाये गये अथवा किसी अन्य द्वारा उपहार आदि के रूप में दिये गये किसी पशु के मांस को देवों और पितरों को समर्पित करने तथा उनका अर्चन पूजन करने के उपरान्त प्रसाद के रूप में मांस को खाने वाला दोषग्रस्त नहीं होता (5-32)
इसी अध्याय के श्लोक 36 में है -
मन्त्रों द्वारा पशुओं को परिष्कृत करने के उपरान्त ही उनका वध करना और मांस भक्षण करना चाहिए यही प्राचीन परम्परा है और यही वेद की आज्ञा है। (5-36)
अध्याय 3 में मांस द्वारा पितरोें को श्राद्ध करने सम्बन्धी कहा गया है
विभिन्न पशु-पक्षियों के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की तृप्ति-सन्तुष्टि की अवधि का उल्लेख करते हुए मनु जी बोले महऋषियांे ! मनुष्य के पितर विधि विधान से श्राद्ध करने पर मछली के मांस से दो महीने तक हिरन के मांस से तीन महीने तक, मेंढे के मांस से चार महीने तक, पक्षियों के मांस से पांच महीने तक, बकरे के मांस से छः महीने तक, मृग के माँस से नौ महीने तक, ऐण मृग के मांस से आठ महीने तक, रुरुमृग के मांस से नौ महीने तक, शूकर के मांस से दस महीने तक भैंसे तथा खरगोश और कछुए के मांस से ग्यारह महीने तक तृप्त सन्तुष्ट रहते हैं । इस प्रकार श्राद्ध में उपयुक्त पशु पक्षियों का मांस परोस कर पितरोें को दीर्घकाल तक तृप्त सन्तुष्ट बनाये रखना चाहिए।
- (अध्याय 3, श्लोक 269, 270, 271)
उक्त प्रकार के श्लोकों से क्या समझा जाए? यही न कि एक और मांस भक्षण निषेध है और दूसरी ओर माँस भक्षण के न केवल आदेश ही हैं अपितु मांस द्वारा श्राद्ध करने से पितर दीर्घकाल तक तृप्त बने रहते हैं ।
इस विरोधाभास का मतलब इसके अतिरिक्त क्या हो सकता है कि अगर एक आदेश सही है तो दूसरा शत प्रतिशत गलत होगा और जहाँ एक भी बात की गलती संभव है वहाँ दूसरी के सही होने की क्या गारन्टी हो सकती है ?
यहाँ पर बिना किसी भूमिका के पवित्र कुरआन की एक आयत प्रस्तुत करना उचित होगा। कुरआन कहता है -
क्या लोग कुरआन में सोच विचार नहीं करते, अगर यह अल्लाह के अतिरिक्त कहीं ओर से होता तो निश्चय ही वे उसमें अधिकाधिक विरोधाभास पाते (4:82)
इस आयत-ए-करीमा के सन्दर्भ में कोई टिप्पणी किये बिना मुझे यह कहने दीजिए कि जिस ग्रन्थ में इस हद तक विरोधाभास हो और जिसकी आम शिक्षाओं को ज्ञान, विज्ञान, बुद्धि, विवेक और समाज स्वीकार न करे, परलोक जैसे संवेदनशील एवं महत्वपूर्ण मुद्दे पर उसकी विचार धारा कैसे स्वीकार की जा सकती है। विशेष रूप से उस समय जब उसके विपरीत अन्य विचारधारा प्रस्तुत करने वाला वह ग्रन्थ हो जिसके एक भी अंग को विज्ञान, बुद्धि या समाज ने आज तक रद्द न किया हो।
मेरा ख्याल है कि अभी तक के तर्क-वितर्क की बुनियाद पर हमें मान लेना चाहिये कि परलोक के सम्बन्ध में पवित्र कुरआन का दृष्टिकोण ही सही है। वह यह कि मरणोपरान्त कोई इस संसार में वापस नहीं आयेगा अपितु कर्मानुसार या तो स्वर्ग का आराम है या नरक की दहकती आग।
परन्तु अगर अभी भी आप का मन आवागवन में ही अटका हुआ है तो आइए एक अन्य दृष्टिकोण से इस विषय का विश्लेषण करते हैं।
हमें यह देखना चाहिए कि कौन सी विचार धारा को छोडने में जोखिम अधिक है, ना कि यह कि कौन सी विचार धारा अपनाने में आज के दिन लाभ अधिक है । क्योंकि बुद्धिमान वही है जो भविष्य की चिन्ता करें लिहाज़ा भविष्य के अनन्त जीवन के सुख-दुख की चिन्ता आज के थोड़े से जीवन के आराम से बेहतर है। यह तो हम जानते ही है कि इस संसार का नियम है कि जो भविष्य की चिन्ता करता है वही भविष्य के जीवन का निर्माण कर पाता है। अगर एक किसान खेत की खुदाई, निराई और बुआई न करे तो क्या उसे फसल मिल पायेगी ?
इस सन्दर्भ में हम देखते हैं कि परलोक संबंधी कुरआन के कथन को छोडने में अधिक जोखिम है क्योंकि मान लो कि मैं आवागवन के सिद्धान्त को नहीं मानता और मैंने पूरा जीवन इस सिद्धान्त को प्रस्तुत करने वाले धर्म के विपरीत व्यतीत किया, तो मेरे लिए कड़ी से कड़ी चाहे जो भी सजा निर्धारित की जाए, आना तो मुझे इसी दुनिया में है। परन्तु कुरआन के कथनानुसार अगर उसके विपरीत जीवन व्यतीत करके परलोक जाने वाला मनुष्य ईश्वर के आगे चीखेगा, पुकारेगा, और एक बार और दुनिया मे भेजने का आग्रह करेगा, ताकि इस बार वह ईश्वरीय धर्मानुसार जीवन व्यतीत कर सके, परन्तु उसकी एक न सुनी जायेगी और उसे नरक की दहकती आग में डाल दिया जायेगा । कुरआन में है-
और लोगों को उस दिन से डराइये, जब अजाब आयेगा, उस समय जालिम लोग कहेंगे। हे ईश्वर! हमें थोड़ी मोहलत दे दे। अब की बार हम तेरे पैगाम को स्वीकार करेंगे और संदेष्टा के बताये मार्ग पर चलेंगे। - (14:44)
और जिन लोगों ने अपने पालनहार का इंकार किया, उनके लिये नरक का अजाब है। और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है, जब वह उस में फेकें जायेंगे तो उसके दहाड़ने की भयानक आवाज सुनेंगे, ऐसा लगेगा कि वे प्रकोप से अभी फट जायेगी, हर बार जब भी उस में कोई समूह डाला जायेगा तो उसके कारिन्दे कहेंगे कि क्या तुम्हारे पास कोई सावधान करने वाला नहीं आया था, वे कहेंगे कि आया था, परन्तु हम उसको झुठलाते रहे । - (67:8-9)
इंकार करने वालों की बस्तियों में चलत फिरत तुम्हें धोखे में न डाले ये तो बहुत थोड़ी सुख सामग्री है फिर उनका ठिकाना जहन्नम (नरक) है और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।
किन्तु जो लोग अपने पालनहार से डरते रहे उनके लिए ऐसी जन्नत (सवर्ग) होगी जिनके नीचे नहरे बह रही होंगी, वे उसमे सदैव रहेंगे।-
(3:196, 97, 98)
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- आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें अध्याय का अनुक्रमिक तथा प्रत्यापक उत्तर(सन 1900 ई.). लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
मुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल . amazon shop लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
- '''रंगीला रसूल''' १९२० के दशक में प्रकाशित पुस्तक के उत्तर में मौलाना सना उल्लाह अमृतसरी ने तभी उर्दू में ''मुक़ददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल'' लिखी जो मौलाना के रोचक उत्तर देने के अंदाज़ एवं आर्य समाज पर विशेष अनुभव के कारण भी बेहद मक़बूल रही ये 2011 ई. से हिंदी में भी उपलब्ध है। लेखक १९४८ में अपनी मृत्यु तक '' हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश'' की तरह इस पुस्तक के उत्तर का इंतज़ार करता रहा था ।