हिन्दू राष्ट्र - सम्भव या असम्भव?
लेखक : डा. मुहम्मद असलम कासमी
प्रकाशितः- सनातन सन्देश संगम मिल्लत उर्दू,हिन्दी एकेडमी मौहल्ला सोत रूड़की (हरिद्वार) उत्तराखण्ड
इस पर थोड़ा बाद में चर्चा करेंगे, पहले इस प्रश्न का उत्तर तलाश करने का प्रयास करते हैं कि ‘‘श्री मोहन भागवत’’ जी ने या ‘‘श्री गोविन्दाचार्य जी’’ ने ऐसे समय में जब उनकी प्रिय पार्टी बी.जे.पी. संकट के दौर से गुज़र रही थी, उसे संकट से उबारने की ओर तवज्जोह न देते हुए राम-राज्य या तीस साल में भारत को ‘‘हिन्दू-राष्ट्र’’ बना लेने की बात क्यों आरम्भ कर दी? इसे एक कहानी के माध्यम से बेहतर तौर पर समझा जा सकता है। कहते हैं कि सामू चाचा एक बहुत चालाक व्यक्ति थे। एक बार उन्हें बुरे दिनों ने आ घेरा और उनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ गयी। ऐसे में उन्हें एक तरकीब सूझी और उन्होंने घोषणा कर दी कि उनके पास ऐसी ‘शक्ति है कि वह बीस वर्ष में गधे को बोलना सिखा सकते हैं! एक कुम्हार जो निःसन्तान था, उस ने सोचा कि क्यों न एक गधे को यह विद्या सिखवा ली जाये। यह सोचकर वह अपना एक गधा लेकर चाचा के यहाँ जा पहुँचा और उसने अपने गधे को यह विद्या सिखाने के लिए उनसे निवेदन किया। चाचा ने गधे के मालिक से बीस हजार रूपये एडवांस मांगे और माहाना खर्च पाँच सौ रूपये का अतिरिक्त मुतालबा किया। कुम्हार ने मजबूर होकर उनकी यह ‘शर्त कबूल कर ली। उसे अपने गधे को बोलना जो सिखवाना था, और वह पेशगी की रकम बीस हजार रू. और माहाना खर्च पाँच सौ रूपये चाचा को देकर अपना गधा उनके हवाले करके रूखसत हो गया। चाचा के एक मित्र जो उनके पास बैठे हुए थे, उन्होंने कुम्हार के चले जाने के बाद चाचा से पूछा कि चाचा! आपने गधे के मालिक से मोटी धनराशि तो प्राप्त कर ली है परन्तु बीस साल बाद आप उसे क्या जवाब देंगे ? चाचा बोले कि यार! तुम भी बहुत ही ‘शरीफ इन्सान हो, भाई! बीस साल बाद का समय किसने देखा है? बीस वर्ष बाद या तो मैं नहीं रहूँगा, या गधा नहीं रहेगा और या गधे वाला नहीं रहेगा।
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हिन्दू-राष्ट्र
अगस्त 2009 में बी.जे.पी. के सीनियर लीडर जसवंत सिंह ने पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना पर एक अदद किताब क्या लिखी कि उनकी पार्टी में कोहराम मच गया। पार्टी के कई नेता बुरी तरह बिफर गये और ऐसा लगने लगा कि इस घटना से पार्टी ही बिखर जायेगी। बी.जे.पी. और उसकी सरपरस्त आर. एस. एस. का इस घटना से विचलित होना स्वाभाविक था। अतः उक्त माह के अन्तिम सप्ताह में आर. एस. एस. के तत्कालीन सर संघचालक मोहन भागवत ने दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलायी। भागवत जी ने इस में बहुत स्पष्ट ‘शब्दों में ऐलान किया कि भारत अगले तीस वर्षों में हिन्दू राष्ट्र बन जायेगा। इस के अतिरिक्त कोई काबिले ज़िक्र बात उनकी प्रेस कान्फ्रेंस मे नहीं थी। यहाँ तक कि जब प्रेस वालो ने बी.जे.पी. के मौजूदा संकट के बारे में पूछा तो वह इसे पार्टी का अन्दरूनी मामला कहकर टाल गये। इस पार्टी के सम्बन्ध में पूछे गये अन्य सवालो के उत्तर देने से भी वह बचते नज़र आये। अगले दिन टी. वी. चैनल व अखबारों में यह चर्चा रही कि भागवत जी को अगर कोई विशेष बात नहीं कहनी थी, तो आखिर प्रेस कॉन्फ्रेंस बुलाने का औचित्य क्या था। प्रेस वालों ने ‘शायद इस बात पर ध्यान नहीं दिया की उन्होंने इस कॉन्फ्रेंस में एक बहुत ही महत्वपूर्ण घोषणा की थी, वह यह कि भारत आने वाले तीस वर्षों में ‘हिन्दू राष्ट्र‘ बन जायेगा। 30 अगस्त 2009 को एक प्राइवेट न्यूज़ चैनल ने बी.जे.पी के किसी समय के थिंक टैंक समझे जाने वाले मिस्टर गोविन्दाचार्य का एक इन्टरव्यू प्रसारित किया। इस इन्टरव्यू में उक्त महोदय ने ‘बी.जे.पी. और राम मन्दिर निर्माण’ के मुद्दे पर उनकी आलोचना करते हुए कहा कि यह पार्टी अपने मिशन से भटक गयी है, क्योंकि इस का मिशन केवल राम मन्दिर निर्माण नहीं था अपितु इस की मंज़िल राम मन्दिर निर्माण से राम-राज्य की ओर थी,
प्रश्न यह है कि ‘‘हिन्दुत्व’’ या ‘‘राम-राज्य’’ क्या है? और वर्तमान युग में भारत जैसे देश में या कहीं भी क्या ‘‘हिन्दुत्व’’ या ‘‘राम राज्य’’ की स्थापना सम्भव है?
- आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें अध्याय का अनुक्रमिक तथा प्रत्यापक उत्तर(सन 1900 ई.). लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
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मुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल . amazon shop लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
- '''रंगीला रसूल''' १९२० के दशक में प्रकाशित पुस्तक के उत्तर में मौलाना सना उल्लाह अमृतसरी ने तभी उर्दू में ''मुक़ददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल'' लिखी जो मौलाना के रोचक उत्तर देने के अंदाज़ एवं आर्य समाज पर विशेष अनुभव के कारण भी बेहद मक़बूल रही ये 2011 ई. से हिंदी में भी उपलब्ध है। लेखक १९४८ में अपनी मृत्यु तक '' हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश'' की तरह इस पुस्तक के उत्तर का इंतज़ार करता रहा था ।
शायद कुछ इसी तरह का मामला हिन्दुत्ववादी लीडरों का है, क्योंकि जिस प्रकार गधे को बोलना सिखाना सम्भव नहीं। ऐसे ही वर्तमान युग में हिन्दू राष्ट्र की स्थापना या किसी भी देश में राम-राज्य का लाना सम्भव नहीं है। यह कोई बे सोची समझी बात नहीं, बल्कि इस के स्पष्ट प्रमाण मौजूद हैं, वह कैसे आइए देखें।
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- आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें अध्याय का अनुक्रमिक तथा प्रत्यापक उत्तर(सन 1900 ई.). लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
- '''रंगीला रसूल''' १९२० के दशक में प्रकाशित पुस्तक के उत्तर में मौलाना सना उल्लाह अमृतसरी ने तभी उर्दू में ''मुक़ददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल'' लिखी जो मौलाना के रोचक उत्तर देने के अंदाज़ एवं आर्य समाज पर विशेष अनुभव के कारण भी बेहद मक़बूल रही ये 2011 ई. से हिंदी में भी उपलब्ध है। लेखक १९४८ में अपनी मृत्यु तक '' हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश'' की तरह इस पुस्तक के उत्तर का इंतज़ार करता रहा था ।
क्या है हिन्दुत्व?
हिन्दुत्व क्या है? जब हम इस को हिन्दू धर्म पुस्तकों, हिन्दू इतिहास ग्रन्थों या हिन्दू संस्कृति में तलाश करते हैं तो हिन्दुत्व की विशेष बातें जो हमें नज़र आती हैं वे इस प्रकार हैं-
1. वर्ण व्यवस्था वर्ण व्यवस्था हिन्दुत्व, या हिन्दू धर्म के इतिहास में विद्यमान एक मूल सिद्धान्त है कोई भी बुनियादी धर्म पुस्तक या इतिहास पुस्तक इस के वर्णन से खाली नहीं, मनु स्मृति में है-
भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः
बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठ नरेषु ब्राह्मणाः स्मृताः
(मनु स्मृति-अध्याय1,श्लोक98)
अर्थात- जीवों में प्राणधारी , प्राणधारियों में बुद्धिमान, बुद्धिमानों में मनुष्य एवं मनुष्यों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ है। यहाँ न्याय व्यवस्था में भी ब्राह्मण के लिए अलग नियम हैं और ‘शूद्र के लिए अलग, एक दोष कोई शूद्र करता है तो उसके लिए कठोर से कठोर सज़ा का विधान है, जब कि वही दोष अगर ब्राह्मण करता है तो उसके लिए बहुत मामूली सज़ा रखी गई है।
देखें-
मनु स्मृति-अध्याय 8-श्लोक 267.270 श्री भगवद गीता के नौवें अध्याय में स्त्री और शूद्र को नीच कुल में उत्पन्न बताया गया है।
प्रश्न यह है कि ऊँच-नीच की यह व्यवस्था क्या इस युग में लागू हो सकती है? 2. सर्व शिक्षा आज भारतीय कानून में सब के लिए शिक्षा का विधान है अपितु बुनियादी शिक्षा सब के लिए अनिवार्य है। जबकि हिन्दू धर्म ग्रन्थों में शूद्र के लिए न केवल यह कि शिक्षा प्राप्ति की अनुमति नहीं है, बल्कि अगर वह शिक्षा प्राप्त करे विशेष रूप से धर्म की शिक्षा प्राप्त करने पर उस के लिए कठोर दंड का विधान है। इसी पर टिप्पणी करते हुए स्वयं एक हिन्दू विशलेषक लिखते हैं- हमारे यहाँ धर्म ‘शास्त्रों में विधान है कि वेद का एक शब्द भी शूद्र के कान में पड़ जाये तो उसके कान में गरम सीसा भर दीया जाये। (सरिता मुक्ता रीप्रिंट स. न. 1 पृष्ठ 8)
कुछ इसी प्रकार की बातें स्त्री के सम्बन्ध में भी कही गईं हैं। हिन्दू धार्मिक व्यवस्था में नारी पराया धन है पिता के कन्या दान करने के बाद वह दूसरों की हो जाती है। अब उसके पूर्वज भी उसके माता-पिता नहीं रहते बल्कि उसके पूर्वज भी वहीं हैं जो उसके पति के पूर्वज हैं।
दूसरी ओर 2006 में हमारे देश के संविधान में यह व्यवस्था की गई है कि पुत्र की भाँति पुत्री भी बाप की जायदाद में हिस्सेदार होगी।
ऐसे में प्रश्न यह है कि जब देश में हिन्दू राष्ट्र आ जायेगा तो क्या इस व्यवस्था को बदल दिया जायेगा और क्या इस व्यवस्था को बदलना उचित होगा, या इसे बदल कर आप समाज की कोई विशेष सेवा करेंगेघ् 3. सती प्रथा अगर कोई महिला विधवा हो जाये तो हिन्दू धर्म में उसके लिए सब से अच्छा विकल्प अपने पति की चिता के साथ ही ज़िन्दा जलकर मर जाना है। इसे ही सती होना कहा जाता है। यह एक धार्मिक कार्य है महाभारत की ये पंक्तियां देखें- पति सुख के लिए स्त्रियां सती होती हैं और स्वर्ग में पहले पहँुच कर पति का स्वागत करती हैं। विवाह का यही उद्देश्य है। (संक्षिप्त महाभारत प्रथम खण्ड आदि पर्व पृष्ठ न. 36एप्रकाशित गीता प्रेस गोरखपुर)
इस के अतिरिक्त महाभारत में कई स्थानों पर महिला को विधवा होने की स्थिति में सती हो जाने की शिक्षा दी गई है। देखें पृष्ठ न. 63.59 तो क्या हिन्दू राष्ट्र में विधवा महिला के लिए यही विकल्प रह जायेगा? जब कि वर्तमान में इस प्रथा पर प्रतिबन्ध है। 4 अश्वमेघ यज्ञ यज्ञ और हवन तो अब भी होता है परन्तु ऐसा यज्ञ जिसमें अश्व (घोड़े) का प्रयोग होता हो। यह हिन्दुत्व की एक ऐसी परम्परा है जिसका विस्तार से हिन्दू धर्म ग्रन्थों में वर्णन मिलता है। त्रेता युग के अवतार माने गये ‘मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी‘ के समय में भी अश्वमेघ यज्ञ होता था। गीता प्रेस गोरखपुर, धार्मिक पुस्तकें छापने वाली एक विख्यात संस्था है, यहां से ‘तीस रोचक कथाएं’ नाम से एक पुस्तक छपी है इसके पृष्ठ न. 18 पर ‘मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी‘ के द्वारा किये गए अश्वमेघ यज्ञ की मंज़रकशी करते हुए लिखा है- अनेक हाथी,घोडे़,सारथी आदि देवासुर-संग्राम की तरह उस युद्ध में कट कटकर गिरने लगे, रक्त की नदी बह चली। (तीस रोचक कथायें, गीता प्रेस गोरखपुर)
क्या है अश्वमेघ यज्ञ?
कहते हैं कि इस यज्ञ में एक ‘ाक्तिशाली घोड़े को दौड़ा दिया जाता था, जो भी राजा उसको पकड़ लेता उससे युद्ध किया जाता और उसके राज्य को अपने राज्य में मिला लिया जाता था।
प्रश्न यह है कि क्या ‘ाान्तिपूर्ण रह रहे पड़ोसी के क्षेत्र में घोड़ा छोड़कर उसे युद्ध पर आमादा करना जायज़ होगा? और ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत पर अमल करते हुए ‘ाान्ति से रह रहे पड़ोसी से युद्ध कर के उसके क्षेत्र पर कब्ज़ा कर लेना, यह कौन सी नैतिकता होगी? और क्या अन्तर्राष्ट्रीय कानून इस की अनुमति देगा?
5. शिकार करना
1. हिन्दू धर्म ग्रन्थों में कुछ अन्य पूजा पाठ के तरीके भी ऐसे हैं जिन पर अमल करना असम्भव लगता है। ‘‘भगवद् गीता’’ अध्याय 6 के 11 वें ‘लोक में ‘‘श्री कृष्ण जी’’ योगी को बैठने का तरीका बताते हुए कहते हैं किः योगी एकान्त के स्थान पर पहले कुश(एक प्रकार की घास) बिछाए, उसके ऊपर मृगादि का चर्म बिछाए, उसके ऊपर कपड़ा बिछाए। प्रश्न यह है कि मृगादि का चर्म बिना मृग को मारे कैसे प्राप्त होगा? जाहि़र है कि हिन्दू राष्ट्र लाना है तो मृगादि को मारने की अनुमति देनी होगी, जो असम्भ्व लगता है। ,
2. ‘मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी‘ भी शिकार करते थे, जब सीता माता को रावण उठा कर ले गया था उस समय राम शिकार पर थे, उनके पिता राजा दशरथ भी शिकार करते थे, आज्ञाकारी श्रवण कुमार शिकार के धोखे में उनके हाथों ही मारा गया था। तो क्या हिन्दू राष्ट्र में शिकार करने की आम अनुमति होगी?
6. नियोग
हिन्दू धर्म में नियोग को मुख्य स्थान प्राप्त है। वर्तमान युग के प्रख्यात धर्म सुधारक ‘‘स्वामी दयानन्द जी’’ ने तो यहां तक लिखा है कि- पुरूष अप्रिय बोलने वाली स्त्री को छोड़कर दूसरी स्त्री से नियोग का लाभ ले सकता है। ऐसा ही नियम स्त्री के लिए है। (सत्यार्थ प्रकाश 4-145) अगर पति या पत्नि अप्रिय बोलें तो वे दोनों नियोग कर सकते हैं, अगर स्त्री गर्भवती हो और पुरूष से न रहा जाए अथवा पति दीर्घ रोगी हो और स्त्री से न रहा जाए, तो दोनों कहीं उचित साथी देखकर नियोग कर सकते हैं। (हवाला-उपरोक्त) स्वामी जी ने नियोग प्रथा की सत्यता, प्रमाणिकता और व्यावहारिकता की पुष्टि के लिए महाभारत कालीन सभ्यता के दो उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। लिखा है कि व्यास जी ने चित्रांगद और विचित्र वीर्य के मर जाने के बाद उनकी स्त्रियों से नियोग द्वारा सन्तान उत्पन्न की। अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्बालिका से पाण्डु और एक दासी से विधुर की उत्पत्ति नियोग के द्वारा हुई।
दूसरा उदाहरण पाण्डु राजा की स्त्री कुंती और माद्री का है, पाण्डु के असमर्थ होने के कारण दोनों स्त्रियों न नियोग द्वारा सन्तान उत्पन्न की।
हिन्दू धर्म के अधिक पात्र या तो नियोग द्वारा उत्पन्न हैं या स्वच्छन्द व्यभिचार द्वारा, वेद और महाभारत के रचयिता महर्षि वेद व्यास एक कुंवारी के पेट से व्यभिचार द्वारा उत्पन्न हुए थे। पवन पुत्र हनुमान जी, पाण्डु और धृतराष्ट्र भी नियोग द्वारा पैदा हुए थे। ‘मर्यादा पुरूषोत्तम श्री रामचन्द्र जी‘ व भरत आदि भी पुत्रेष्टि यज्ञ द्वारा उत्पन्न हुये थे। नियोग और वर्तमान समाज अगर कोई पति-पत्नि अपने जीवन साथी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति से यौन सम्बन्ध स्थापित करता है, तो अगर मेडिकल विज्ञान और नैतिकता के नियमों की भी अनदेखी कर दी जाए तो भी इतना क्या कम है कि ऐसा व्यक्ति समाज में मान सम्मान खो देता है, और समाज उसे वह कड़ी सजा देता है जो वह अधिक से अधिक दे सकता है, अर्थात ऐसा व्यक्ति समाज की निगाहों से गिर जाता है। परन्तु जब देश हिन्दू राष्ट्र बन जाएगा तो क्या समाज और नैतिकता के सारे नियमों को ताक पर रखकर नियोग व्यवस्था को मान्यता दे दी जाएगी?
ये कुछ उदाहरण हैं उन उसूलों, कानूनों और परम्पराओं के जो हिन्दू धर्म ‘ाास्त्रों, इतिहास ग्रन्थों और संस्कृति में पाये जाते हैं। अब यह हिन्दुत्व के झंडा वाहक सोचें कि क्या वर्तमान युग में इस प्रकार के नियमों और परम्पराओं को लागू किया जा सकताघ् कुछ बात राम-राज्य की
राम-राज्य की बात भी कुछ इसी प्रकार की है। इस नारे की उपज भी हिन्दू राष्ट्र के नारे के साथ-साथ हुई। स्वार्थी राजनीतिज्ञों ने इसका खूब दुरूपयोग किया। एक विशेष पार्टी ने इस प्रकार के नारों के द्वारा कईं वर्षों तक सत्ता का मज़ा लूटा, परन्तु सत्ताहीन होते ही वह इस नारे को भूल गये। वास्तव में राम-राज्य की स्थापना भी इस युग में सम्भव नहीं है। सच्चाई यह है कि राम-राज्य भी हिन्दू-राष्ट्र की भांति ही रहस्य है, यह हृदयमयी नारा केवल उस भोली भाली जनता को उत्तेजित कर सकता है। जिसने इस पर कभी विचार नहीं किया, कि राम-राज्य की वास्तविकता आखिर क्या है? क्योंकि राम-राज्य से तात्पर्य अगर भगवान राम का राज्य है तो वह इस युग मे कदापि सम्भव नहीं है। क्योंकि उस युग में जो व्यवस्था थी वह वर्तमान समाज को स्वीकार नहीं है ”रामायण“ के एक प्रसिद्ध टीकाकार पण्डित ह. गुप्ता के यह ‘ाब्द देखंे- राम-राज्य नाम से प्रसिद्ध राम के ‘ाासन में ब्राह्मण को देवता तुल्य माना जाता था, तथा वह अधिकार सम्पन्न व्यक्ति था, जब कि ‘ाूद्र मानव रूपी पशु था। जबकि बाकी दोनों जातियां बीच में लटकी हुई व ब्राह्मणों की स्वीकृति से अपना जीवन घसीटती हुईंं, अपना अस्तित्व बनाये हुए थी। न्याय एक जैसा नहीं था, अपराधी की जाति को देख कर ही न्याय किया जाता था। ब्राह्मण सभी प्रकार के दण्ड से मुक्त था। (रामायण एक नया दृष्टिकोण पृष्ठ 11,प्रकाशित-ई@7 मोहन का बदरपुर नई दिल्ली) इस प्रकार की व्यवस्था जिस में न्याय जाति को देखकर किया जाये क्या वर्तमान में लागू की जा सकती है? इस का उत्तर उन्हें देना चाहिए जो देश में राम-राज्य लाने के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं। 2. ‘‘रामायण’’ में एक घटना का वर्णन है कि एक ब्राह्मण ने अपने पुत्र के मर जाने पर सरे आम श्री राम को दोषी ठहराया, कि यदि राजा अपने कर्तव्य का ठीक-ठीक पालन करें तो पिता के रहते पुत्र की मृत्यु नहीं होती। अतः विशिष्ट ब्राह्मण की सलाह पर इस मामले में विचार विमर्श के लिए आठ ब्राह्मणों की एक समिति बनायी गई। उन्होंने सोच विचार करके बताया कि किसी ‘ाूद्र के जप-तप करने के कारण ब्राह्मण के पुत्र की मृत्यु हुई है। (रामायण उ. का. स. 87) आखिर सारे साम्राज्य की बारीकी से खोज बीन की गई तो शिवालिक की तराई में एक झील के किनारे ‘ाीर्षासन से तप करता हुआ एक ‘ाूद्र मिल ही गया, तो एक क्षण गवाए बिना श्री राम ने अति सुन्दर तथा तीक्ष्ण तलवार से उसका सर उड़ा दिया। उस बदनसीब ‘ाूद्र का नाम ‘ांबूक था। इस देवसदृशः कार्य से स्वर्ग में देवता इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने बार-बार फूलों की बारिश की और राम की प्रशंसा करते हुए कहा कि आपने यह देवकृपादृशः कार्य किया है। आप की कृपा से अब यह ‘ाूद्र स्वर्ग नहीं प्राप्त कर सकेगा। जब राम अगस्त ऋषि के आश्रम मेें आदर प्रकट करने पहुँचे तो उस महापुज्य ब्राह्मण ने राम के इस कार्य को न्यायपूर्ण कहकर प्रशंसा की। तथा पुरस्कार स्वरूप विश्वकर्मारचित एक आभूषण भेंट किया। (रामायण उ. का. स. 89) इस घटना के उल्लेख के उपरान्त टीकाकार पण्डित ह. गुप्ता लिखते हैं- निरंकुश व सर्व सप्तावादी ‘ाासन में अपराधी को अपनी सफाई देने का या अपना अपराध स्वीकार करके क्षमा माँगने का अवसर दिया जाता है, ‘ांबूक को यह मूलभूत अधिकार भी नहीं दिया गया, राम-राज्य की न्याय व्यवस्था की तुलना प्राचीन या आधुनिक किसी भी सभ्यता से नहीं की जा सकती। (रामायण एक नया दृष्टिकोण पृष्ठ 28)
वर्तमान में प्रसिद्ध आतंकवादी हमले के मुल्ज़िम अजमल आमिर कसाब को अपनी बात रखने और सफाई पेश करने का पूरा मौका़ दिया गया है, और यही एक सभ्य समाज की निशानी है, परन्तु राम-राज्य में ‘ांबूक को ‘ाूद्र होने के कारण इतना मौका भी नहीं दिया गया।
यहाँ यह कहा जा सकता है कि यह उस समय की न्याय व्यवस्था के अनुसार न्यायोचित था। चलिए मान लेते है, परन्तु उस समय की उक्त प्रकार की न्यायव्यवस्था इस आधुनिक युग मे कैसे लागू की जायेगी, इस का जवाब उन्हें देना चाहिए जो देश में राम-राज्य लाना चाहते हैं। 3. ‘ाूद्र की शिक्षा प्राप्ति ‘ाूद्र की शिक्षा प्राप्ति की बात भी कुछ इसी प्रकार की है, हिन्दू धार्मिक न्याय व्यवस्था में किसी ‘ाूद्र को यह अनुमति नहीं है कि वह शिक्षा प्राप्त करंे, हम लिख चुके हैं की धर्म ‘ाास्त्रों में निम्न विधान रखा गया है- वेद का एक ‘ाब्द भी यदि ‘ाूद्र के कानों में पड़ जाये तो उस के कान में गर्म सीसा भर दिया जाय, (सरीता मुक्त रीप्रिन्ट 1,पृष्ठ 8 लेखक - रमा कान्त दूबे) वर्तमान में सरकार सर्व शिक्षा अभियान चला रही है, जिसमंे भारत सरकार ने देश के हर नागरिक के लिए बुनियादी शिक्षा को लाज़मी किया है। इस अभियान के अन्तर्गत निःशुल्क पुस्तकें
उपलब्ध करायी जा रही हैं। इनमें संस्कृत की पुस्तकें भी ‘ाामिल हैं। आज किसी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं। कोई भी व्यक्ति(शूद्र हो अथवा मलेच्छ) बाज़ार से वेद खरीद कर पढ़ सकता है। स्कूल में किसी भी जाति या वर्ग का छात्र अपनी इच्छा से संस्कृत विषय ले सकता हैै। इस से बढ़कर यह कि हिन्दी भाषा के साथ संस्कृत का कुछ भाग सब के लिए पढ़ना अनिवार्य है। परन्तु जब देश में राम-राज्य आ जायेगा तो क्या शिक्षा प्राप्ति पर या किसी विशेष भाषा पर किसी विशेष जाति का अधिकार होगा? और अन्य जाति के लोग उस से वंचित रहेंगे।
यह बात बडे़ ही गर्व से कही जाती है कि राजा दशरथ ने प्राण दे दिये किन्तु प्रण नहीं छोड़ा और अपनी पत्नी कैकई को दिये गये वचनों के अनुसार अपने बड़े पुत्र और राज गद्दी के उत्तराधिकारी ‘‘राम’’ को चैदह वर्ष के लिए घर से निकाल दिया।
4. ”रामायण“ के अनुसार राम जब रावण का वध कर सीता को छुड़ा कर लाये तो अयोध्या में अग्नि परीक्षा देने के बाद भी उसके पवित्र होने का विश्वास नहीं किया गया और लोगों ने राम को ताने देने आरम्भ कर दिये तो राम ने सीता को घर से निकाल दिया जबकि सीता उस समय गर्भवती थी। अतः उस ने लक्ष्मण से क्या फरियाद की जो उसे वन में छोड़ने गये थे देखें- सीता ने लक्ष्मण से कहा कि ज़रा मेरे गर्भवती होने पर तो ध्यान दो ताकि तुम अपने भाई को मुझे न सही पर कम से कम बच्चे को तो स्वीकार करने को कह सको! (उ. का. स. 58) प्रश्न यह है कि वर्तमान में अगर कोई व्यक्ति अपने बेटे को इस लिए घर से निकाल दे कि उस ने किसी को इस प्रकार का वचन दिया हुआ है, या अपनी पत्नि के चरित्रहीन होने के ‘ाक में जंगल में छुड़वा दे और वह पत्नि या लड़का पुलिस या अदालत में फरियाद ले जाए तो ऐसे में पत्नि या लड़के को घर से निकालने वाले का क्या हश्र्र होगा? यही न कि ऐसी स्थिति में उसकी खैर नहीं, परन्तु क्या जब देश मंे राम-राज्य आयेगा तो फिर वर्तमान की न्याय व्यवस्था बदलकर उस में उक्त प्रकार की बातोें की अनुमति दे दी जायेगी?
5. अग्नि परिक्षा
श्री राम जब सीता जी को रावण के चुंगल से छुड़ा लाए तो उनके सतीत्व पर शक किया गया, अतः उन्हें अपनी पवित्रता साबित करने के लिए अग्नि परिक्षा देनी पड़ी। कहते हैं की राम के समय में सफाई देने का यही तरीका था कि अपनी पवित्रता साबित करने के लिए व्यक्ति को आग पर चलना होता था। तो क्या जब आप देश में राम-राज्य ले आऐंगे तो
इसी तरीके से सफाई पेश की जायेगी?
6. राम-राज्य में शिकार की अनुमति
राम-राज्य में मृगादि का शिकार करने की आम अनुमति थी। शिकार करना श्री राम की खानदानी परम्परा थी। वाल्मिकी रामायण में अनेक स्थानों पर राम व लक्ष्मण द्वारा शिकार करने का वर्णन है। रावण जब सीता जी को उठाकर ले गया राम उस समय शिकार पर थे, .वनवास के लिए वन में पहुँचकर लक्ष्मण ने सबसे पहला जो कार्य किया वह यह था कि उन्होंने राम की आज्ञा से चार हिरनों का शिकार किया जिनमें से एक कृष्ण मृग(काला हिरन) था। वर्तमान में इस प्रकार के शिकार पर प्रतिबंध है। मशहूर फिल्म अभिनेता सलमान खान पर इल्जा़म था कि उन्होंने काले हिरन का शिकार किया है बदलेे में उनको देश के एक उच्च न्यायालय ने सात साल की सजा़ सुनाई। तो क्या जब हिन्दुवादी संगठन देश में राम-राज्य ले आएंगे तो फिर राम के समय की तरह देश में शिकार की आम अनुमति दे दी जायगी? 7ण् राम-राज्य में आत्मदाह रामायण कथा के अध्ययन से पता चलता है कि राम के समय में आत्मदाह अर्थात स्वयं अपनी चिता जलाकर अपने हाथों से जीवन लीला समाप्त कर लेना ‘ाुभ कार्य माना जाता था, रामायण के अनुसार एक से अधिक घटनाएं ऐसी हैं जब पुरूषोत्तम राम के सामने किसी ने अपने हाथों अपनी चिता में कूदकर जान दे दी परन्तु श्री राम ने उन्हें ऐसा करने से नहीं रोका महर्षि तुलसीदास जी की रामायण में है राम फिर दण्डक वन में आगे बढ़े और महामुनि श्रभंग के आश्रम में पहुँचे। श्रभंग ऋषि उस समय अपनी चिता जलाकर महाप्रयाग की तैयारी कर रहे थे, बोले रघु नन्दन मैं धन्य हो गया आपके दर्शन पाकर, मैं आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था। इस नश्वर ‘ारीर को छोड़कर परमधाम जा रहा हूँ आपकी प्रतीक्षा में ही रूका हुआ था.......तत्पश्चात महामुनि श्रभंग ने चिता प्रज्वलित की और उस में प्रवेश कर गए। (रामायण, अरण्य काण्ड) दूसरी घटना उस समय की है जब श्री रामचनद्र जी सीता जी की खोज में महर्षि मतंग के आश्रम में पहुँचे और ‘ाबरी नामक एक भीलनी से मिले। रामायण में है-- राम की अनुमति लेने के पश्चात ‘ाबरी ने अपनी चिता स्वयं जलाई और अग्नि प्रवेश किया। दहकती चिता में उसका समस्त नश्वर ‘ारीर भस्मसात हो गया।राम और लक्ष्मण आदर व भक्ति से ‘ाबरी के नश्वर ‘ारीर को भस्मसात होते देखते रहे। (रामयण, अरण काण्ड) इसके अतिरिक्त श्री राम ने स्वयं भी सरयू नदी में समाधि लेकर अपनी जीवन लीला का समापन किया था और सीता माता को भी जब राम ने घर से निकाल कर जंगल में छुड़वाया तो वह भी इस ग़म को सहन न करते हुए जीते जी धरती में समा गई थीं। वर्तमान में अगर कोई सरे आम अपने ‘ारीर में आग लगा कर या पानी में डूब कर या किसी और प्रकार से अपना जीवन समाप्त करना चाहे तो लोग उसे बचाने का हर संभव प्रयास करते हैं, भारतीय कानून की दृष्टि में यह जघन्य अपराध है। प्रशासन भी स्वयं से मरते किसी व्यक्ति को बचाने की पूरी कोशिश करता है। परन्तु क्या राम-राज्य में इसका उलट होगा? और क्या वह व्यवस्था वर्तमान की व्यवस्था से कुछ अधिक बेहतर कही जा सकती है? हिन्दू धर्म-ग्रन्थों की न्याय-व्यवस्था हिन्दु धर्म ग्रन्थों में मनु स्मृति को विधि विधान का आधार माना जाता है। इस में जो न्याय व्यवस्था है वह बीते समय की बात है, और इतिहास का हिस्सा है, आज के आधुनिक युग में उस व्यवस्था को चाहकर भी लागू नहीं किया जा सकता है, क्यांेकि किसी भी स्थिति में वह समाज को स्वीकार नहीं है। इस के बावजूद भी जो संगठन या राजनेता उसे लागू करने का नारा लगाते हैं वे केवल भोली-भाली जनता की भावनाओं से खेलकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेकते है। उस न्याय व्यवस्था में क्या है इसका विश्लेषण स्वयं एक हिन्दू टीकाकार डा. राकेश नाथ ने निम्नलिखित प्रकार से किया है- ये थोथे हमारे आदर्श और सिद्धान्त (स. राकेश नाथ के लेख से) ब्राह्मण महिमाः मानवता की दृष्टि से मानव मात्र एक समान हैं। उन में कोई ऊँचा-नीचा नहीं है और कम से कम जन्म से तो कोई ऊँच या नीच नहीं माना जाना चाहिए। अच्छे और बुरे कामों के लिहाज़ से हम चाहें तो उन में विभेद कर सकते हैं। परन्तु न्याय की दृष्टि में तो सभी एक होने चाहिए। लेकिन मनु महाराज अपनी स्मृति का प्रारम्भ करते हुए ही लिखते हैंः भूतानां प्राणिनः श्रेष्ठाः प्राणिनां बुद्धिजीविनः बुद्धिमत्सु नराः श्रेष्ठाः नरेषु ब्राह्मणाः समृताः (अध्याय 1, ‘लोक 96.) (जीवों मंे प्राणधारी, प्राणधारियों में बुद्धिमान, बुद्धिमानों में मनुष्य एवं मनुष्यों में ब्राह्मण सर्वश्रेष्ठ कहे गये हैं.) सर्वं स्वं ब्राह्मणस्यसेदं यत्किचिज्जगतो गतम्. श्रैष्ठ्येनाभिजनेनेदं सर्वं वै ब्राह्मणोर्हति. (अध्याय 1, ‘लोक 100) (पृथ्वी पर जो कुछ धन है वह सब ब्राह्मण का है. उत्पŸिा के कारण श्रेष्ठ होने से सब ब्राह्मण के ही योग्य है.) उपर्युक्त ‘लोकों से स्पष्ट प्रकट होता है कि हमारे न्यायमूर्ति महाराज ने मनुष्यांे में एक वर्ग को सर्वश्रेष्ठ घोषित कर के उसे सब कुछ भोग करने की खुली छूट दे दी है। केवल इतने से ही उन्हें संतोष नहीं हो गया। ऊँच, नीच और घृणा की यह खाई और अधिक गहरी होती चली जाए, इसके लिए उन्होंने विधान किया। मांगल्यं ब्राह्मणस्य स्यत्क्षत्रियस्य बलान्वितम् वैश्यस्य धनसंयुक्तं, ‘ाूद्रस्य तु जुगुप्सितम्. (अध्याय 2, ‘लोक 31) (ब्राह्मण का नाम मंगलयुक्त, क्षत्रिय का बलयुक्त, वैश्य का धनयुक्त एवं ‘ाूद्र का निंदायुक्त होना चाहिए.) तात्पर्य यह कि ‘ाूद्र को पगपग पर यह मान होता रहे कि वह जीवन में कभी उन्नति न कर सके, ताकि द्विजों के लिए सेवकों की कमी न हो जाये, और फिर ये सेवक ‘ाारीरिक दृष्टि से भी इतने स्वस्थ न हो जाये कि वे द्विजोें कि प्रतिस्पर्धा करें, अतः उन के लिए जहाँ एक ओर उच्छिष्ट भोजन आदि की व्यवस्था की गई, वहाँ दूसरी ओर ब्राह्मण के लिए याज्ञवल्क्य महाराज ने व्यवस्था कीः ब्राह्मणः काममश्नीयाच्छ्राद्धे व्रतमपीडयन्. (याज्ञवल्क्यस्मृति, ब्रह्मचारी प्रकरण, ‘लोक 32) (ब्राह्मण श्राद्ध मंे चाहे जितना खाए, उन का व्रत नहीं बिगड़ता.) मनु स्मृति का भी निम्न उदाहरण देखने योग्य हैः जातिमात्रोपजीवी वा कामं स्याद्ब्राह्मणब्रुवः धर्मप्रवक्ता नृपतेर्नतु ‘ाूद्रः कथ्ंचन. (अध्याय 8, ‘लोक 20) (केवल जाति में जीविका करने वाला कर्मरहित ब्राह्मण ही राजा की ओर से धर्मवक्ता हो सकता है, परन्तु ‘ाूद्र कभी नहीं हो सकता) विद्वत्ता एवं योग्यता में भी मनु महाराज जाति को उच्च स्थान देतें हैं. इतना ही नहीं जो संसार के किसी भी धर्म में उचित नहीं माना जा सकता, उस असत्य भाषण को भी मनु महाराज धर्म का संरक्षण प्रदान करते हैंः कामिहेषु विवाहेषु गवां भक्ष्ये तथंेधने ब्राह्मणाभयुपपŸाौ च ‘ापथे नास्ति पातकम्. (अध्याय 8, ‘ालोक 112) (स्त्री संभोग, विवाह, गौओं के भक्ष्य, होम के ईंधन और ब्राह्मण की रक्षा करने में वृथा ‘ापथ खाने से भी पाप नहीं होता.) ब्राह्मण न हुुआ, कोई ऐसा पुरूष हो गया की जिसके मर जाने से सृष्टि में भूकम्प आ जाएगा और फिर साथ ही स्त्री संभोग में भी झूट बोलने से पाप नहीं होता! फिर तो संसार के सारे न्यायालय एंव कानून व्यर्थ ही समझे जाने चाहिए। वही दोष करने पर ‘ाूद्र के लिए कठोर से कठोर दंड विधान है और ब्राह्मण के लिए कोई दंड नहीं, मनुस्मृति के अनुसार, ‘‘कठोर वचन कहने का अपराध करने पर द्विजातियों को कुछ क्षण का दंड ही काफी है, परन्तु ‘ाूद्र को जीहवोच्छेदन अथवा जलती हुई दस अंगुल की ‘लाका मुख में डालना तथा मुख, कान में तपा हुआ तेल डालने का विधान किया गया है’’ (अध्याय 8, ‘लोक 267-272) मजेदार बात यह है कि दंड केवल तभी है जब कठोर वचन ब्राह्मण या क्षत्रिय के प्रति कहे गए हों, यदि वैश्य को गाली दी जाए तो कुछ धन का दंड ही काफी है, और भी देखें- ‘ाूद्र यदि द्विजाति को मारे तो उसके हाथ यदि लात मारे तो पैर, यदि आसन पर बैठना चाहे तो चूतड़, ब्राह्मण पर थूके तो होंठ, पैशाब करे तो लिंग और यदि अधोवायु करे तो गूदा की जगह कटवा दे (अध्याय 8, ‘लोक 277-283) ‘‘‘ाूद्र यदि रक्षित या अरक्षित जाति की स्त्री से भोग करे तो उसकी मूत्रन्दिय कटवा दें अथवा प्राण दंड दें, परन्तु अन्य जातियों के लिए धन दंड ही काफी है और ब्राह्मण के लिए तो सिर का मुंडन ही काफी’’ (अध्याय 8, ‘लोक 374-379) इतना ही नहीं- न जातु ब्राह्मणं हन्यात्सव्रपापेष्वपि स्थितम् राष्ट्रादेनं बहिः कुर्यात्समग्रधनमक्ष्तम्ं (8, 380) न ब्राह्मणवधाद्भूयानधमों विद्यते भुवि तस्मादस्य वधं राजा मनसापि न चिन्तयेत् (8, 381) (सब पापों में लिप्त होने पर भी ब्राह्मण का वध कदापि न करें, उसे धन सहित अक्षत ‘ारीर से राज्य से निकाल दे, ब्राह्मण वध के समान दूसरा कोई पाप पृथ्वी पर नहीं है, इसलिए राजा मन में भी ब्राह्मण वध का विचार न करेें) द्वितीय विधाननिर्माता याज्ञवल्क्य मुनि तो और भी आगे बढ़ जाते हैंः पादशैचं द्विजोच्छिप्टमाज्र्जनं गोप्रदानवत्. (श्लोक 9, दानधर्मप्रकरण) (द्विजो के पांव एवं झूठन धोना गोदान के समान है) अस्वन्नमकथं चैव प्रायश्चिŸौरदूष्तिम् अग्नेः सकाशाद्विप्राग्नौ हुतं श्रेष्ठमिहोच्यते. (श्लोक 16, राजधर्म प्रकरण) (अग्नि में यज्ञ करने की अपेक्षा ब्राह्मणरूपी अग्नि में हवन करना अधिक श्रेष्ठ है) इस प्रकार इन स्मृतियों ने वेद द्वारा गाया हुआ अग्निहोत्र का सारा गुणगान ब्राह्मण के ऊपर न्योछावर करके वेदों और उनके कर्मकांड को ही धता बता दी हैः नारी निंदा ‘ाूद्र की तरह नारी भी सदैव पुरूष की भोगिया गिनी जाती रही है इसीलिए विवाह आदि के सम्बन्ध मंे जहां एक ओर उसे विधवा हो जाने पर दूसरे विवाह तक की आज्ञा नहीं है वहां दूसरी ओर पुरूषों को कईं-कईं विवाहों का आदेश दिया गया है, वैसे ऊंच-नीच की उस खाई को यहां भी नहीं पाटा जाता- ‘ाूद्रैव भार्या ‘ाूद्रस्य सा च स्वा च विशः स्मृते ते च स्वा चैव राज्ञश्च ताश्च स्वा चाग्रजन्मनः - मनुस्मृति ः अध्याय 3, ‘लोक 13. (शूद्र की स्त्री एक ‘ाूद्र ही हो, वैश्य की स्त्री वैश्य एवं ‘ाूद्र, क्षत्रिय ‘ाूद्रा, वैश्य एवं क्षत्राणी तथा ब्राह्मण की ब्राह्मणी, क्षत्राणी, वैश्य एवं ‘ाूद्र कही गई हैं.) (याज्ञवल्क्य स्मृति-विवाह प्रकरण श्लोक 59) (‘कितने खरे हमारे आदर्श’ पृष्ठ 8.9 प्रकाशितः विश्व बुक दिल्ली) उपरोक्त ‘ाब्द हमारे नहीं, अपितु एक हिन्दू विचारक के लेख से लिए गए हैं। इन्हें पढ़िए, बार-बार पढ़िए और सर धुनते जाइए उन राजनीतिज्ञों पर जो उक्त प्रकार की राज व्यवस्था को देश में लाने के लिए बेचैन दिखाई पड़ते हैं, और उन धर्म गुरूओं पर जिन्होंने निजी स्वार्थांे के आड़े आने के कारण कभी यह नहीं सोचा कि यह धर्म व्यवस्था गए गुज़रे समय की बात हो गई, और उस भोली-भाली जनता पर जिसने कभी यह जानने का प्रयास नहीं किया कि ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ या ‘‘राम राज’’ आखिर क्या है? यह एक मामूली झलक है उस व्यवस्था की जिसे लेकर एक विशेष राजनीतिक वर्ग पूरे देश को भ्रम में डालकर उस का राजनीतिक ‘ाोषण करता रहता है, यद्यपि उक्त प्रकार की व्यवस्था के चन्द एक नियम ही यहां पर अंकित किये गए हैं परन्तु यह कोई मामूली नियम नहीं हैं बल्कि ये वह बुनियादी और मौलिक नियम हैं जिनको अपनाने के लिए पूरी राज व्यवस्था बदलनी होगी, देश का सारा संविधान बदलना होगा और इससे देश का एक-एक नागरिक प्रभावित होगा, बुरा न लगे तो मैं कहूंगा कि देश का कोई नागरिक इसकी मार से बच न पाएगा। यह एक गम्भीर विषय है जिस पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है परन्तु हमने जानबुझ कर इस विषय को विस्तारित रूप न देते हुए इस पर केवल एक सरसरी निगाह डाली है। हमारा मकसद किसी की आस्था को आघात पहुँचाना नहीं, अपितु सच्चाई को सामने लाना है। अतः जिस प्रकार चावलों की हांडी से एक दोे दाने देख यह जाँच हो जाती है कि चावल गल गये अथवा नहीं, इसी प्रकार हम केवल कुछ ही उदाहरण पेश कर के अपने कलम को विराम देना चाहते ह,ै क्यांेकि जिस कदर भी बात आगे बढ़ती है उतना ही गूलर का पेट फटता दिखाई पड़ता है। अतः सौ बात की एक बात यह है कि हमें हिन्दू राष्ट्र या राम-राज्य का सपना किसी भी प्रकार साकार होता दिखाई नहीं देता, अब यह हिन्दुत्व के झंडा वाहक बताये कि वे इसको किस प्रकार साकार करेंगे ? एक प्रश्न लाख टके का प्रश्न यह है कि कहीं ऐसा तो नहीं की हमने हिन्दू राष्ट्र या राम-राज्य से जो कुछ समझा है वह उस के अतिरिक्त कुछ और हो और हम समझने में गलती कर रहे हों, अगर वास्तव में ऐसा ही है कि राम-राज्य वह नहीं जो हमने ऊपर लिखा है, अपितु उस के अतिरिक्त कुछ और है, तो ऐसी स्थिति में प्रश्न उठता है कि जो व्यवस्था राम के इतिहास या हिन्दू धर्म के नियमों से मेल न खाए उसे राम-राज्य या हिन्दू राष्ट्र कैसे कहा जा सकता है? अतः ऐसी व्यवस्था उपरोक्त के अलावा कुछ भी हो सकती है, परन्तु राम-राज्य या हिन्दू राष्ट्र की व्यवस्था नहीं हो सकती, आप ही बताइये जिस राज्य में हिन्दू धर्म के नियम लागू न हों वह हिन्दू राष्ट्र कैसे हुआ, और जिस राज्य मंे ‘‘पुरूषोŸाम राम’’ के समय वाले नियम लागू न हो, या जिस राज्य में राम के आदर्शों पर अमल न होता हो वह राम-राज्य कैसे हुआ? यहाँ एक प्रश्न और है जिस पर विचार किया जाना चाहिए, वह यह कि एक विशेष वर्ग जो लम्बे समय से देश में राम-राज्य लाने या देश को हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित करने की बात करता आ रहा है, वह कोई मामूली वर्ग नहीं जिसे यों ही नजर अंदाज कर दिया जाय, यह वर्ग संगठित है इसके साथ राजनीतिक पार्टियां है, समाजिक संस्थाये है जिन में देश के प्रभुत्व रखने वाले बुद्धिजीवी अक्ल व होश के मालिक आला दिमाग के हामिल सियादत व कयादत के माहिर लोग ‘ाामिल हैं, जो यकीनन यह जानते होंगे कि वर्तमान में न तो श्री राम के समय की व्यवस्था को लागू किया जा सकता है और न ही हिन्दू धर्म की व्यवस्था को, फिर भी वे पूरे विश्वास के साथ यह एलान करते हैं कि वे देश में ‘‘राम राज्य’’ लाना चाहते हैं और देश को हिन्दू राष्ट्र बनाना चाहते है। इस से तो प्रतीत होता है कि उन के दिल व दिमाग में अवश्य ही कोई और व्यवस्था है जिस की वह अभी व्याख्या नहीं कर पा रहे हैं।परन्तु वह उसे वर्तमान की व्यवस्था से बेहतर समझते हैं। यह बात हमने इसलिए कही कि हमने जितने भी हिन्दू मित्रों, आदरणीय धर्माचार्यो या हिन्दुत्व का नारा बुलन्द करने वाले राजनीतिज्ञों से पूछा कि हिन्दुत्व क्या होता है? उन सबने यही कहा कि यह जीवन जीने की एक पद्धति है। परन्तु उस के उसूल और नियम क्या हैं? यह हमें किसी ने नहीं बताया अतः इस बात का एक सरसरी जायजा़ लेते हैं कि अगर यह अलग से कोई जीवन व्यवस्था है तो क्या वह हमारे देश में लागू वर्तमान की जीवन व्यवस्था से बेहतर है, अगर हां, तो क्यों न सब मिलकर उसके लिए प्रयास करें। मेरे सामने सी. बी. एस. सी. बोर्ड के माध्यमिक पाठ्य क्रम की समाजिक विज्ञान की पुस्तक है। इसमें भारतीय नागरिकों के कुछ मौलिक अधिकार एवं कर्तव्यों पर आधारित एक पाठ है। उन में से कुछ ऐसे विशेष बिन्दु जिनका सम्बन्ध हर नागरिक से हो, उन पर चर्चा करते हुए, आइए यह जानने का प्रयास करेंः कि देश को हिन्दू राष्ट्र या राम-राज्य में परिवर्तित करते हुए क्या उससे कुछ बेहतर व्यवस्था दी जा सकती है? जो देश में वर्तमान समय में लागू है- 1. समानता का अधिकार यह भारतीय संविधान का बुनियादी बिन्दु है जिसके अनुसार देश के हर नागरिक को हर क्षेत्र में समान अधिकार प्राप्त हैं, प्रश्न यह है कि राम-राज्य या हिन्दू राष्ट्र के लिए अथक प्रयास करने वालों के मस्तिष्क में इस से उत्तम और बेहतर सिद्धान्त है? अगर हां तो प्रश्न यह है कि समानता और बराबरी से बेहतर और क्या हो सकता है? इस से हटकर जो कुछ भी होगा वह असमानता ही होगी जिस के लिए समाज में अब कोई स्थान नहीं है। 2. स्वतन्त्रता का अधिकार अतीत में एक दौर ऐसा भी गुज़रा है जब कोई मनुष्य अपने से कमजो़र व्यक्ति को दास बनाकर रख लिया करता था। परन्तु अब यह अपराध की श्रेणी में आता है। स्वतन्त्रता हर नागरिक का मौलिक अधिकार है, क्या हिन्दुत्व के झंडा वाहक इस से कोई उत्तम व्यवस्था ला सकते हैं? 3. धार्मिक स्वतन्त्रता का अधिकार एक समय था जिसे धार्मिक जब्र का समय कहा जा सकता है जब प्रजा का धर्म भी वही होता था जो राजा का होता, परन्तु अब ऐसा नहीं, हमारे देश के संविधान में हर नागरिक को अपनी पसन्द का धर्म स्वीकार करने और उसका ‘ाान्ति पूर्वक प्रचार करने का मौलिक अधिकार दिया गया है। हमें नहीं मालूम कि इस संसार में धर्म से सम्बन्धित इससे बेहतर भी कोई सिद्धान्त हो सकता है? 4. शिक्षा सम्बन्धित मौलिक अधिकार बुनियादी शिक्षा हर नागरिक का मौलिक अधिकार है, यह राज्य की जिम्मेदारी है कि वह कम से कम बुनियादी शिक्षा का हर नागरिक के लिए बन्दोबस्त करे, इस के अतिरिक्त हर नागरिक को किसी भी प्रकार की शिक्षा प्राप्त करने का न केवल यह कि जन्म सिद्ध अधिकार ही प्राप्त है, बल्कि राज्य शिक्षा के लिए अपने नागरिकों को तरह तरह से प्रोत्साहन देता है। आखिर इससे बेहतर और क्या व्यवस्था हो सकती है। 5. लोकतन्त्र लोकतन्त्र आधुनिक युग की सबसे लोक प्रिय राज्य प्रणाली है। इस में सत्ता का स्रोत राजा नहीं जनता है, इसके अनुसार हर भारतीय नागरिक को यह अधिकार प्राप्त है कि वह संवैधानिक तरीके से सत्ता में भागेदारी करे, अब राजा ‘‘दशरथ’’ का उत्तराधिकारी न तो पुरूषोत्तम श्री राम हो सकते हैं, न किसी कैकयी को दिये गये वचन की बुनियाद पर किसी भरत को ही गद्दी सौंपी जा सकती है। परन्तु जब देश में राम-राज्य आएगा तो क्या फिर किसी को दिये गए वचन की बुनियाद पर घर के किसी सदस्य को घर छोड़ने पर मजबूर किया जाएगा, और क्या फिर राजगद्दी वंश की बुनियाद पर प्राप्त होगी? इस प्रकार क्या राम-राज्य के हिमायती देश में वंश वाद लाना चाहते हैं? इसके अतिरिक्त धर्मनिर्पेक्षता, समाजवाद, राष्ट्रीय एकता, मानवाधिकार न्याय पाने का अधिकार, एंव न्याय व्यवस्था, प्रशासन व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, हमारे महान भारत की वह कौन-सी व्यवस्था है जिस से बेहतर कोई अन्य व्यवस्था लाई जा सकती है? उक्त प्रकार की सभी सामाजिक व्यवस्थाएं इस्लामी हैं। क्या आप जानते हैं कि यह सारी व्यवस्था उस इस्लामी व्यवस्था और इस्लाम धर्म से ली गई हैे, जिसके नाम से भी ‘‘राम राज्य’’ और ‘‘हिन्दू राष्ट्र’’ वालों को एलर्जी हो जाती है। यकीनन आपको आश्चर्य होगा यह जानकर कि लोकतन्त्र की अधिकांश व्यवस्था प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में इस्लाम से ली गई है। और भारत क्योंकि एक लोकतन्त्रात्मक देश है। अतः भारतीय संविधान का नब्बे से निन्यानवे प्रतिशत भाग इस्लामी कानूनों पर आधारित है। इस्लाम धर्म जिसका नाम सुनते ही उसके विरोधियों का जा़यका बिगड़ जाता है यह उसकी सत्यता का प्रमाण है, कि उसका एक-एक नियम इंसानी फितरत और उसके मिज़ाज के अनुकूल है। यही कारण है कि आज के समाजवादियों और सैकुलरिस्टों ने अपने परम्परागत और सांस्कृतिक तौर तरीकोें को त्याग कर मानवता की बुनियाद पर जो नियम अपनाये उन्हों ने स्रोत के बतौर चाहे इस्लाम को समाने न रखा हो, परन्तु यह आश्चर्य जनक है कि वह इस्लामी शिक्षा से हैरत अंगेज तौर पर मेल खाते गये, इसे एक उदाहरण से बेहतर तौर पर समझा जा सकता है। जैसा कि आप जानते है कि भारतीय सरकार विधवा महिला से ‘ाादी करने को प्रोत्साहन देती है, कुछ प्रान्तीय सरकारों ने इसके लिए बाकायदा प्रोत्साहन राशि का प्रबन्ध किया हुआ है, परन्तु अगर विधवा की ‘ाादी न हो पाये तो उसके लिए विधवा पेंशन का प्रावधान है। क्या आपको मालूम है कि इस्लाम ने विधवा के लिए यह कानून सवा चैदह सौ वर्ष पूर्व उस समय बना दिया था, जब विधवा के लिए भारत मंे बेहतर विकल्प पति की चिता के साथ जलकर मर जाना था। हम इस विषय को विस्तार देना नहीं चाहते तुलनात्मक अध्ययन हमारा विषय नहीं है, परन्तु इस कदर पुष्टि करना अनिवार्य समझते है कि भारतीय संविधान का पिच्चयानवें प्रतिशत भाग ऐसा है जिसका इस्लाम धर्म से कोई टकराव नहीं है। जबकि हिन्दू धर्म से अनेक नियम व कानून स्पष्ट रूप से टकराते है। मिसाल के तौैर पर समानता के अधिकार से वर्ण व्यवस्था टकराती है। विधवा पेंशन स्कीम से विधवा सती का उलंघन होता है। सभी के लिए शिक्षा भी हिन्दू धर्म के विपरीत है। और इसे आप क्या कहेंगे कि उस धर्म के अनुयायी ही जिसने यह नियम दिया कि अगर कोई ‘ाूद्र संस्कृत का एक ‘ाब्द भी सुने तो पिंघला हुआ सीसा उसके कान में भर दिया जाय, और अगर पढ़ ले तो उसकी जबान काट ली जाय, आज उसी धर्म के अनुयायी संस्कृत की पुस्तकंे छपवा कर ‘ाूद्रों की बस्तियों में निःशुल्क भिजवा रहे हैं और अनिवार्य रूप से उन्हें संस्कृत पढ़वा रहे हैं। जिन्हें कभी ‘ाूद्र कहा जाता था। ऊपर से उन्हें पाठशाला भी बनवा कर देतें हैं। क्या यह इस्लाम का ही जादू नहीं था जिसके भय ने मनुवादियों को मजबूर किया कि वह इन्सानों के बीच की छुआ छूत को समाप्त करें अन्यथा स्वयं समाप्त होने को तैयार हो जायं। सच पूछिये तो यह इस्लाम की ही देन है यह उसी का भय है उन मनुवादियों के सिर पर जिन्होंने एक बडे़ वर्ग को शिक्षा से वंचित रखा हुआ था। क्योंकि यह इस्लाम ही था जिसने सवा चैदह सौ वर्ष पहले ऐलान कर दिया था कि शिक्षा प्राप्त करना हर व्यक्ति का जन्म सिद्ध अधिकार है। अतः अब कोई किसी को विद्या प्राप्ति से रोक नहीं सकता। हमने ऊपर भारतीय संविधान के कुछ मूल सिद्धान्तों का वर्णन किया, यहां यह उल्लेख करना उचित होगा कि इस्लाम नेे इन सिंद्धातों को कई ‘ाताब्दियों पहलेे उस समय प्रस्तुत कर दिया था, जब समानता, सर्व शिक्षा, और विधवा अधिकार के बारे में उच्च वर्ग एक ‘ाब्द भी सुनना नहींं चाहता था परन्तु समय की आँखों ने देखा कि दुनिया न चाहते हुए भी उसे अपनाने पर मजबूर हुई। आइए हम आपको यह भी बताते चले की ऊपर बयान किए गए मानवता के नियमों का स्रोत क्या है। समानता सारे इन्सान बराबर है न कोई छोटा है और न कोई बड़ा क्योंकि ईश्वर ने सबको एक माता-पिता से पैदा किया है, अच्छे व बुरे की बुनियाद इन्सान के अच्छे व बुरे कर्मो से है, यह सिद्धान्त इस्लाम ने उस समय मानव जगत के समाने इन्तहाई स्पष्ट ‘ाब्दों में पेश किया जब ऊँच-नीच ही संसार की पहचान थी, पश्चिमी देशों में गोरांे और कालोे के बीच न पटने वाली खाई मौजूद थी तो अरब क्षेत्र के निवासी अपने को गैर अरब से श्रेष्ठ मानते थे। वहीं भारत में समाज चार खानों में इस प्रकार विभाजित था कि जीवन के तमाम संसाधनों पर पहले वर्ग का कब्ज़ा था, फिर बचे कुचे हिस्से पर दूसरे वर्ग को इस ‘ार्त के साथ अधिकार दिया जा सकता था कि उसे अपने बाहुबल से पहले वर्ग अर्थात उच्च वर्ग की सुरक्षा का कर्तव्य भी निभाना है। बाकी रहे दो वर्ग तो उनमें से एक की जिम्मेंदारी व्यापार या खेती बाड़ी करके सभी के लिए रोजी रोटी कमाना था, तो दूसरे का तीनों वर्ग की सेवा करना ही जन्म सिद्ध कर्तव्य था। . स्वयंभु श्रेष्ठ प्रथम वर्ग ने अपनी श्रेष्ठा साबित करने के लिए तर्क का जो बुत तराशा था उसकी मिसाल इतिहास में नहीं मिलती, उसका दावा था कि उसे ‘‘ब्रह्मा’’ ने अपने मुख से पैदा किया है, इसलिए वह श्रेष्ठ है जबकि दूसरे और तीसरे वर्ग को ईश्वर ने क्रमशः अपनी भुजाओं और पेट से पैदा करके सुरक्षा एवं अन्न के बन्दोबस्त करने की जिम्मेंदारी उन्हीं दोनों को दी है, रहा चैथा वर्ग तो उसे ईश्वर ने अपने पैरों से पैदा किया है अतः पहले तीनों की सेवा करना उसका जन्म सिद्ध कर्तव्य है। ऐसे समय में इस्लाम ने बड़े स्पष्ट ‘ाब्दों में ऐलान किया- हे लोगों हमने तुम्हे एक पुरूष व एक स्त्री से पैदा किया और इसलिए कि तुम एक दूसरे को पहचान सको कुनबे और कबीले बना दिये (वरना) अल्लाह के नजदीक तुम सब में श्रेष्ठ वह है जो ज्यादा तक़वे वाला है. (कुरआन-सूरह-हुजरात-आयत न0 13) एक दूसरे स्थान पर कहा गया है- वह अल्लाह है जिसने तुम को एक जान से पैदा किया और उसी से उसका जोड़ा बनाया। (कुरआन-सूरह-आराफ-आयत 189) हज़रत मुहम्मद साहब(स0) ने अन्तिम हज के अवसर पर अपने आखिरी उपदेश के अन्तर्गत जिन ‘ाब्दों में यह कानून पेश किया वह इस सम्बन्ध में मील के पत्थर की हैसियत रखता है। आप के यह ‘ाब्द देखें- ‘‘लोगों आगाह हो जाओ कि तुम्हारा पालनहार एक है, तुम्हारा बाप(आदम) एक है ,हाँ कोई अरब का रहने वाला किसी गैर अरब से श्रेष्ठ नहीं, और कोई गैर अरब किसी अरब से श्रेष्ठ नहीं और गोरा काले से श्रेष्ठ नहीं, काला गोरे से श्रेष्ठ नहीं, हाँ, श्रेष्ठता की बुनियाद तक़वा और परहेज़गारी है।’’ (तारीख-ए-इस्लाम पृष्ठ 85, लेखक- मौलाना अकबर ‘ााह नजीबाबादी) यह पवित्र क़ुरआन और हदीस के उपदेशांे का असर ही था कि पूरी इस्लामी दुनिया भेद-भाव की वबा से महफूज़ रही, जब कि अन्य राष्ट्रों में इसके कीटाणु आज भी विद्यमान हैं, उन्नीसवी सदी मंे यू. एन. ओ. ने इस कानून की सरपरस्ती ‘ाुरू की, तब कहीं जाकर पूरी दुनिया पर उसके असरात देखें जा सके। स्वतन्त्रता एक समय था जब ताकतवर कमजोर को पकड़ कर उसे दास बना लेता, उससे जबरदस्ती सेवा करवाता, और फिर जानवरों की तरह उसे बेच देता, पन्द्रहवीं, सौलहवीं एवं सतरवीं सदी मंे अपनी नौआबादियां बसाने वाले यूरोपी ‘‘मसीहीयों’’ नें भी यह कार्य खूब किया। हमारे देश से कितने ही कमजोर लोगों को वे पकड़ ले जाते और यूरोपीय व अफ्रीकी देशों में बेच देते। इस्लाम ने चैदह सौ वर्ष पूर्व इस अन्याय के विरूद्ध आवाज़ बुलन्द की, और मानव जगत को मानवता का पाठ पढ़ाया। पवित्र कु़रआन की यह आयत देखें- यकीनन हमने औलाद-ए-आदम को बडी़ इज्जत दी और उन्हें जल और थल की सवारियां दीं और उन्हे पाक व साफ अन्न दिया और अपनी बहुत सी मखलूक पर उन्हे श्रेष्ठता दी। (कुरआन सूरह बनी इसराईल, आयत न0 70) ह़ज़रत मुहम्मद(स0) के आखिरी उपदेशों के ये ‘ाब्द भी देखें- लोगांे तुम्हारे खून और तुम्हारे माल और तुम्हारी आबरू(मान सम्मान) कयामत तक के लिए उसी इज़्ज़त व हुरमत के पात्र है जैसी इज्जत तुम आज के दिन (हज के दिन) और इस महीने(हज क महीने) और इस ‘ाहर(मक्का) की करते हो। (खुत्बा-ए-हज्जातुल विदा) गरीबों को दास बनाकर उन से सेवा कराने में क्योंकि लोगो के स्वार्थ मौजूद थे अतः इस्लाम ने बड़ी ही हिकमत और होशियारी से इस वबा को खत्म किया, इस तौर पर की इन्सानियत को श्रेष्ठ घोषित कर किसी स्वतन्त्र व्यक्ति को दास बनाने पर धार्मिक प्रतिबन्ध लगाया और जो दास पहले से मौजूद थे उनकी स्वतन्त्रता के लिए गुलाम को आजाद करने में विशेष सवाब(पुण्य) की घोषणा की, और बहुत सी गलतियों के कफ्फारे(दण्ड) के तौर पर गुलाम को आजाद करने की ‘ार्त रखी। गुलामों को आजाद होने की प्रेरणा दी, और मालिकों को उनकी आजादी मेें सहयोग करने का आदेश दिया। देखें- (क़ुरआन सूरह नूर आयत 33) नतीजा यह हुआ कि बहुत ही कम समय में इस्लामी दुनिया से यह वबा समाप्त हो गई। लोगो ने दूसरों से गुलाम खरीद खरीद कर आजाद कर दिये मुिस्लम राजाओं महाराजाओं ने अपने गुलामों को आजाद कर के उन्हें बड़े बड़े पदों पर नियुक्त किया लिहाजा कई देशों में गुलाम वंश की हुकूमत कायम हुई। भारत और मिस्र में गुलाम वंश के राज्य की स्थापना इसका बड़ा प्रमाण है। सब के लिए शिक्षा इस्लाम ने सब से पहले शिक्षा के ऊपर से एक विशेष वर्ग के अधिकार को समाप्त किया और सब के लिए(आवश्यकता के अनुसार) शिक्षा प्राप्ति को अनिवार्य करार दिया। कुरआन और हदीस में जगह-जगह सब के लिए शिक्षा प्राप्ति के आदेश देखें जा सकते हैं। यह अलग बात है कि वर्तमान में कुछ राजनीतिक कारणों से मुस्लिम समाज इस मैदान में पीछे छूट गया है। धार्मिक स्वतन्त्रता यह दौर धार्मिक स्वतन्त्रता का दौर है अब सारे संसार में हर व्यक्ति को अपनी पसन्द का धर्म ग्रहण करने और उसका प्रचार करने का अधिकार प्राप्त है, परन्तु इस अधिकार की ‘ाुरूआत एलानिया तौर पर सर्वप्रथम सिर्फ और सिर्फ इस्लाम ने की थी चुनाँचे पवित्र कुरआन में बड़े स्पष्ट ‘ाब्दों में एलान किया गया- दीन धर्म के मामले में(किसी) पर कोई जोर जबरदस्ती नहीं है। (सूरह बकर 256) एक दूसरे स्थान पर कहा गया- कह दीजिए कि ह़क़(सच्चा धर्म)तुम्हारे पालनहार की ओर से आ चुका है अब जिसका जी चाहे वह स्वीकार कर ले और जिसका जी चाहे वह इंकार कर दे। (सूरह कह्फ 29) पवित्र कुरआन के इन आदेशों और उपदेशो के कारण ही मुस्लिम जगत ने धार्मिक स्वतन्त्रता का अमली नमूना पेश किया जिस का सबूत यह है कि अरब क्षेत्र जहाँ चैदह ‘ाताब्दियों से भी अधिक समय से खालिस मुसलमानों की हुकूमतें कायम हैं फिर भी बड़ी संख्या में वहां गैर मुस्लिम आबाद हैं जो पूरी स्वतन्त्रता के साथ भली-भंाति निवास करते हैं, वहंा से कभी साम्प्रदायिक दंगों की खबरें नहीं आती अपितु इस से बढ़कर यह कि दुनिया के दर्जनों देश ऐसे हैं जहाँ कईं-कईं सदियों तक मुस्लिमों की सरकारें स्थापित रहीं और जब वहां से उन की हुकूमत का खात्मा हुआ तो मुसलमान धर्मावलंबी वहां की आबादी का एक छोटा सा वर्ग था। उदाहरण के तौर पर भारत, स्पेन, सस्ली, हंग्री, बलकान, यूनान, आरमीनिया आदि ऐसे देश है जहाँ कई ‘ाताब्दियों तक मुलसमानांे ने राज्य किया परन्तु आज इन देशों की आबादी में कहीं भी मुसलमान पन्द्रह प्रतिशत से अधिक नहीं हैं। सच्चाई तो यही है, परन्तु फिर भी हमारे देश में बुद्धिजीवियांे का एक ऐसा वर्ग भी है जो राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए यह ‘ाोर मचाता है, कि भारत में मुस्लिम ‘ाासकों ने बल पूर्वक इस्लाम का प्रचार किया है, अफसोस है उन बुद्धिजीवियों पर जिन्हें यह समझ नहीं आता कि हजार आठ सौ वर्ष का समय कोई मामूली अवधि नहीं होती, अगर मुस्लिम राजा बल पूर्वक धर्म के प्रचार पर आते और वे केवल एक परिवार को प्रतिदिन मुसलमान बनाते तो इतनी लम्बी अवधि में एक भी गैर मुस्लिम, मुसलमानों को यह इल्जाम देने के लिए बाकी न रहता, विशेष रूप से इस लिए भी कि उस समय आज की तुलना में भारत की जनसंख्या काफी कम थी। यह मुसलमान ‘ाासकों पर उनके धर्म का ही प्रभाव था कि उन्होंने धार्मिक जब्र के दौर में भी किसी पर इस विषय में जो़र जबरदस्ती नहीं की, क्योंकि पवित्र कु़रआन में स्पष्ट आदेश दिया गया था कि- ‘‘दीन धर्म के मामले में काई जो़र जबरदस्ती नहीं है’’ (सूरह बकर आयत नः 256) फिर भी साम्प्रदायिक ताकतें किस कदर तर्क हीन बात करती हैं उसका एक नमूना देखें, मुग़ल ‘ाासक औंरगजेब के सम्बन्ध में कहा और लिखा जाता है कि वह रोज़ाना चार मन जनेऊ फूंक कर खाना खाता था। प्रश्न यह है कि अगर ऐसा था तो कम से कम राजधानी दिल्ली में तो कोई गैरमुस्लिम बाकी़ न रहता, जबकि उनके दुर्ग लाल किले के द्वार के सामने ही औरंगजेब के समय का लाल मन्दिर आज भी मौजूद है और उसमें स्वयं औरंगजेब के हाथ की मन्दिर को आर्थिक सहायता और जागीर देने सम्बन्धी दस्तावेज भी मौजूद हैं, यही नहीं अपितु औरंगजेब ने इस मन्दिर के पुजारी का बाकायदा वजीफा जारी किया था जो अन्तिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर के समय तक चलता रहा। देखें-(हिन्दु मन्दिर और औरंगजेब के फरामीन पृष्ठ 4) लेखक डॉ बी. एन. पाण्डे (भूतपूर्व गवर्नर उड़ीसा) यह बात भी गौरतलब है कि औरंगजेब को धार्मिक कट्टरपथीं के तौर पर प्रचारित किया जाता है, सवाल यह है कि अगर वह धार्मिक जब्र का हामी था तो वह कैसा धार्मिक था जो अपने ही धर्म के आदेशों की अवहेलना करता था क्योंकि जैसा कि हमने ऊपर लिखा है पवित्र धर्म ग्रन्थ कु़रआन में अनेक स्थान पर आदेश दिया गया है कि धर्म के सम्बन्ध में कोई जो़र जबरदस्ती न की जाए। दूसरी ओर यह भी इतिहास है कि औरंगजेब राजकोष से पैसा नहीं लेता था बल्कि अपने हाथों से कु़रआन लिखकर कर उसकी आमदनी से जीविका चलाता था अतः यह भी नहीं कहा जा सकता के कु़रआन के इन आदेशों पर उसकी नज़र न थी। वास्तविकता यह है कि यह बातें मुस्लिम ‘ाासकों पर निराधार आरोप के सिवा कुछ नहीं। गैरमुस्लिम जगत में धार्मिक जब्र अब कुछ बात गैर मुस्लिम जगत में धार्मिक जब्र की भी देखते चलें, गैरमुस्लिम जगत में सोलहवीं, सत्रवीं सदी तक धार्मिक जब्र की मिसालें मिलती हैं जिनकी तफसील इतिहास के पन्नों में देखी जा सकती हैं, यहाँ पर हम दो उदाहरण प्रस्तुत करते है- 1. फलस्तीन का ‘ाहर येरूशलम मुसलमानों और मसीहीयोें दोनों के लिए पवित्र स्थान का दर्जा रखता है। अतः सदियों से यह ‘ाहर इन दोनों कौमों के बीच संघर्ष का विषय रहा है, अतीत में जब भी यह ‘ाहर मुसलमानों की निगरानी में रहा, उन्हांेने कभी अन्य धर्मावलम्बियों को उसमें दाखिल होने से नहीं रोका, जबकि ईसाइयों के तसल्लुत में रहते हमेशा गैर ईसाइयों के लिए इस ‘ाहर के दरवाजे बन्द कर दिये गये। 2. दूसरी मिसाल जो तारीख की किताबों में महफूज है वह योरोपीय देश ‘‘स्पेन’’ की है जहाँ पर सात सौ वर्षों तक मुसलमानों ने राज किया। परन्तु 1492 में जब वहां से इस्लामी हुकूमत का खात्मा हुआ और सŸाा ईसाई हुकमरां जनरल फैडरक के हाथों मंे आई तो उस ने सबसे पहला एलान यह किया कि जो गैर ईसाई देश में मौजूद हैं वे या तो ईसाइयत कबूल कर लें अथवा देश से निकल जायं चुनाँचे आज वहां ‘‘अलहमरा’’ का दुर्ग और ‘‘कर्तबा’’ की मस्जिद के सिवा मुसलमानों की कोई निशानी दिखाई नहीं पड़ती। लोकतन्त्र लोकतन्त्र में सत्ता का आधार प्रजा होती है, इसका अमली नमूना सबसे पहले हजरत मुहम्मद(स0) ने पेश किया था जैसा कि मालूम है, कि आपको अपने जीवन काल में अरब से फलस्तीन तक के हुकमराँ की हैसियत हासिल हो गई थी। आपने अपने आखि़री समय में अनुयाइयों के इसरार के बावजूद अपना उत्ताधिकारी नियुक्त नहीं किया, ‘‘हदीस’’ और ‘‘सीरत’’ की किताबों में इस की तफसील दर्ज है, कि जब आप मृत्यु ‘ाय्या पर थे, और आप पर बार-बार गशी तारी हो रही थी, तो उस समय जब भी आप होश में आते, उनके अनुयायी बार-बार क़ाग़ज़ कलम लेकर आते और आपसे कुछ लिखवाने को कहते, परन्तु आप ने यह मामला अवाम पर छोड़ दिया और कुछ नहीं लिखवाया, अतः आप के स्वर्गवास के बाद अवाम ने अपने मशवरे से ह़ज़रत अबूबक्र के हाथ पर बैत की, उनके बाद ह़ज़रत उमर ख़लीफ़ा बनाये गए और फिर ह़ज़रत उस्मान और उनके बाद ह़ज़रत अली के हाथ पर बैत की गई। ख़ास बात यह है कि इन महानआत्माओं के बीच सिलसिलेवार कोई ख़ानदानी रिश्ता नहीं था। जिसके हाथ पर बैत करने का बहुमत होता सब उसके हाथ पर बैत करते थे। आज के दौर मेें बैत को आप खुला वोट कह सकते हैं। लोकतन्त्र में आपसी मशवरे से निज़ाम चलाया जाता है। पवित्र कु़रआन में कम से कम दो स्थानों पर इसकी ताक़ीद मौजूद, है। देखें- (आल-ए-इमरान 159 और ‘ाूरा 38) परन्तु यह खेद का विषय है कि इस्लामी जगत में यह सिलसिला लम्बे समय तक नहीं चल सका और यहां भी बहुत जल्द वंशवाद की नींव पड़ गई। मगर इस से क्या फर्क पड़ता है के्रडिट उसे ही मिलता है, जिसने किसी काम को आरम्भ किया हो, अतः कहा जा सकता है कि लोकतन्त्र की बुनियाद भी इस्लाम ने ही डाली है। यह एक सरसरी जायजा था, वर्तमान की राज व्यवस्था का जिसमें हमने यह बताने का प्रयास किया है कि इस व्यवस्था का सा्रेत इस्लाम है। और यह ऐसी व्यवस्था है कि इससे बेहतर कुछ और नहीं हो सकता। यहां पर हमने केवल कुछ अहम और मोटी-मोटी बातों का वर्णन किया, आप इस विषय की गहराई में जायंगे तो आपको मालूम होगा कि हमारी राज व्यवस्था का बहुत ही कम हिस्सा इस्लामी सिद्धान्तों के विपरीत है। अपितु भारतीय व्यवस्था के अधिक कानून व नियम ऐसे हैं जिन की इस्लाम धर्म पहले से ही ताकी़द करता आ रहा है, मसलन, सरकारें दहेज लेने, देने पर अब प्रतिबन्ध लगा रही हैं, इस्लाम में यह पहले से ही प्रतिबन्धित है, बाप की जायदाद में बेटी का हिस्सा भारतीय सरकार ने 2006 में कानून बनाकर स्वीकार किया है, इस्लाम ने चैदह सौ वर्ष पूर्व ही महिला का हिस्सा निर्धारित कर दिया था, भ्रूण हत्या पर प्रतिबन्ध को देश में अब कानूनी दर्जा दिया गया है, इस्लाम में पहले दिन से ही इस पर कठोर कानून मौजूद है, जन्म से पहले लिंग पता करने पर अब सरकारें प्रतिबन्ध लगा रही हैं, इस्लाम ने चैदह सौ वर्ष पूर्व इन जैसी बातों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, जमाखोरी का व्यापार राज्य की दृष्टि में अब अपराध है, तो इस्लाम ने पहले दिन से ही इसको अपराध घोषित किया हुआ है। यह एक लम्बी फहरिस्त है जिसको इस छोटे से लेख में समोना कठिन है क्योंकि हमारा प्रयास है कि यह लेख छोटे से छोटा रहे ताकि हम अधिक से अधिक हाथों तक इसे पहुँचा सकें, इसलिए इस विषय की गहराई में न जाते हुए हम लेखनी को विराम देते हैं। यहां यह पुष्टि भी ज़रूरी मालूम होती है कि वर्तमान के तथाकथित आधुनिक मानव समाज ने जिन बिन्दुओं पर इस्लाम से अलग लीक बनाने की कोशिश की है वह कभी उस लीक को पटरी पर लाने में कामयाब नहीं रहा, अपितु ऐसे मामलों में उसे मुँह की खानी पड़ी है। उदाहरण के तौर पर स्त्री पुरूष की समानता की बात को लें, यूं तो इस्लाम ने भी एक दूसरे की तुलना में दोनों को समान अधिकार देते हुए कहा है कि- महिलाओं के भी पुरूषों पर ऐसे ही अधिकार है जैसे पुरूषों के हैं (कुरआन सूरह बकर आयत 228) परन्तु यह वज़ाहत भी की है कि उत्पŸिा के उद्देश्य एवं ‘ारीर की बनावट के अलग-अलग होने के कारण पुरूष स्त्री से ताकत में एक दर्जा ऊपर है, अतः कुछ विशेष मामलों में दोनों की जिम्मेेंदारियां अलग-अलग हैं मसलन काम, कारोबार, पढ़ाई-लिखाई, व्यापार, खेल, और उचित मनोंरंजन आदि अर्थात जिन्दगी के हर क्षेत्र में तो दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं परन्तु स्त्री के ‘ारीर को कुदरत ने एक विशेष उद्देश्य के कारण पुरूष के लिए आकर्षणीय बनाया है, अतः उसे इस बात का पाबन्द भी किया है कि वह घर से निकले तो अपने आकर्षण वाले अंगों को छुपा ले। बस यही बात वर्तमान के तथाकथित आधुनिक समाज को पसन्द नहीं आई और उस ने इस्लाम के द्वारा निर्धारित सीमा को लांग कर एक कदम आगे बढ़ाना चाहा। अतः उसने दावा किया कि हम स्त्री और पुरूष दोनों को एक पायदान पर खड़ा करेंगे। स्त्री को भी समाज का यह नारा बहुत लुभावना मालूम हुआ और उसे भी इस में अपनी स्वतन्त्रता नजर आयी। अतः वह भी आँखे बन्द करके इस नारे के पीछे दौड़ने लगी। वह गरीब यह न समझ सकी कि जिसे प्रकृति ने समान नहीं बनाया है, उसे समान पायदान पर लाना इंसान के बस की बात नहीं। यही कारण है कि समानता के नाम पर पुरूष महिला को बाजारों व कार्यालय में तो खींच लाया और अपने हिस्से का काम उसने महिला के कन्धों पर डालकर उसके कन्धों को बोझल तो कर डाला, लेकिन पुरूष ने उसके काम में हाथ नहीं बटाया। नतीजा यह हुआ कि जो महिला आफिसों में काम कर के रोजी कमाती है, घर में खाना भी उसे ही बनाना और परोसना होता है। इस्लाम ने न तो महिलाओं को काम, कारोबार से रोका है और न नौकरी और व्यापार से, लेकिन आवश्यकता के अनुसार, क्योंकि इस्लाम माँ और बेटियों को इज्जत देता है, वह उन्हें बाजार की जीनत बनने से रोकता है। आज के समाज ने महिला की जीनत को बाजार में रखकर बेच दिया है। समानता के नाम पर उसके ‘ारीर को नंगा करके उसकी असमत को तार-तार कर दिया है। यह कैसी समानता है? कि टी.वी. स्क्रीन पर अख्बारात में, फिल्मों के पर्दे पर, पुरूष का पूरा ‘ारीर वस्त्रों में ढ़का नजर आता है, और स्त्री अर्धनग्न देखी जा सकती है। आखिर हसीन दोशीजा़एं अपनी लहलहाती जुल्फों को सीने के दिलकश उभार पर सजा कर ‘ारीर के नाजुक अंगो की नुमाइश करने वाले चुस्त और अल्प वस्त्र धारण करके महिला स्वतंत्रता के नाम पर किसे अपना योबन दिखाने बाजारों में बेजरूरत घूमने निकलती है? फिर जब नौजवान लड़के अपने जज्बात पर काबू न पाकर किसी अनहोनी को अन्जाम देते हैं तो वही कसूरवार ठहरते हैं उन्हें जेल जाना पड़ता है, और सजाएं भुगतनी होती हैं। इस्लाम केवल यह चाहता है कि किसी बहन की असमत न लुटे, किसी बेटी पर किसी की बुरी नज़र न पड़े, उसी के उपाय के तौर पर वह महिलाओं को पाबन्द करते हुए ताकीद करता है कि- मुसलमान महिलाओं से कह दीजिए कि अपनी निगाहें नीची रखें और अपनी असमत में फर्क न आने दें, और अपनी श्रृंगार को ज़ाहिर न करें (कु़रआन सूरह नूर आयत नः 30) कु़रआन का यह हुक्म माँ और बेटियों की इज्जत व आबरू की सुरक्षा और उन्हें बुरी निगाहों से बचाए रखने के लिए है। यही वजह है की जब स्त्रि ऐसी आयुवस्था को पहुँच जाए की उस पर आवारागर्दाें की निगाहें उठने का भय न रहे तो उन्हें छूट देते हुए कु़रआन कहता है- जो स्त्रियां युवावस्था से गुजर चुकी हों उन पर कोई दोष नहीं की वे अपने (पर्दे) के कपड़े उता दें बशर्ते की वे श्रृंगार का प्रदर्शन करने वाली न हों। (सूरह नूर 60) कु़रआन के यह उपदेश बता रहे हैं कि इस्लाम का मकसद माँ और बेटी की सुरक्षा है, उन पर पर्दे का बोझ डालना नहीं। गृहमंत्री के पद पर रहते हुए श्री एल0 के0 अडवाणी ने बलात्कार के मुजरिम को मौत की सजा देने की वकालत की थी (ख़्याल रहे कि इस्लाम धर्म में बलात्कारी की यही सजा है) परन्तु इस्लाम वह तदबीर भी बताता है, जिससे ऐसी घटनाएं न हों और वह है महिला का अपने ‘ारीर के नाजुक अंगों को छुपाना, इसके बिना अपराध पर काबू पाने का प्रयास ऐसा ही है जैसे किसी व्यक्ति का पैर गंदी नाली में गिर जाय और वह पैर को नाली में डाले डाले ही धोनां चाहे और वहीं उस पर पानी डालता रहे, जाहिर है जब तक वह पांव को बाहर निकाल कर नहीं धोएगा तब तक उसके पैर की गन्दगी दूर नहीं होगी। यही हाल आज के समाज का है, लड़कियों को तो छूट है वे अपने ‘ारीर को नंगा करके हुस्न-ए-बेपर्दा को हथेली पर रखकर घूमें और लड़को की निगाहों पर पहरे हैं। आखिर यह कैसे संभव है, अतः नतीजा जाहिर है कि स्त्री की असमत तार-तार है वह महज बाजार की जीनत बन कर रह गई है, समानता के नाम पर महज उसके ‘ारीर की नुमाईश हुई है। पुरूष स्वतन्त्रता के बहाने उसे कार्यालय में खींच लाया, और यहां उसे अपने पहलू में बिठाकर उसने महज अपने जज्बात को ‘ाान्त और उसकी असमत का ‘ाोषण किया है। इसका ज्यादा भयानक चेहरा पश्चिमी देशों में दिखाई पड़ता है, जहां पचास प्रतिशत आबादी को यह गिनती याद नहीं कि उन्होने कितनी स्त्री व पुरूषों के साथ जिन्सी ताअल्लुक कायम किया है। जहां पर हर तीसरी औलाद नाजायज पैदा होती है। जिनके मजहब में तलाक का तसव्वुर नहीं, फिर भी हर तीसरे जोडे़ में तलाक हो जाती है। इस लम्बी तफसील का निष्कर्ष यह है कि ये सारी खराबियां इसलिए पैदा हुई कि समाज ने इस्लाम से एक कदम आगे रखना चाहा लिहाजा मुँह की खाई। कहावत है कि आसमान का थूका मुँह पर आता है। आज भारतीय पार्लियामैन्ट में समानता की बुनियाद पर महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण देने की बात हो रही है, क्या इस से समानता लाई जा सकती है? नहीं बिल्कुल नहीं, स्त्री और पुरूष उस समय तक समान नहीं होंगे जब तक पुरूष स्त्री की तरह बच्चा न जन्ने लगें उसके जुल्फों की स्याही और गालों की सुर्खी आकर्षण का केन्द्र न बन जाय, उसकी आँखों की तिरछी निगाहें दिलों को जख्मीं न करने लगे। उसके अल्लढ़ होंट गुलाब की पŸिायों में परिवर्तित न हो जायं, उसकी चाल में नजाकत, अन्दाज में ‘ाराफत और आवाज में हलावत पैदा न हो जाय, उसकी अंगड़ाई दिल पर बिजली बन कर न गिरने लगे और उसकी छातियों में उभार पैदा होकर उनमें दूध न उतर आए। तात्पर्य यह है कि जिसे प्रकृति ने समान नहीं किया उसे यह इन्सान कैसे समान कर सकता है? तथाकथित महिला स्वतन्त्रता की यह आवाज सब से पहले पश्चिमी देशों में उठी थी, परन्तु पश्चिमी देशों का अगुआ अमेरिका अपने देश को आज तक(2010)कोई महिला राष्ट्रपति न दे सका, एक विदेश मंत्रालय को छोड़कर जिस पर किसी खास उद्देश्य से वे अपने यहां की किसी महिला को बिठाते हैं, बाकी तमाम महत्वपूर्ण पद पर आज भी वहां पुरूष ही नजर आता है। आप अपने ही देश में देखें कितने ही विभागों में पचास प्रतिशत तक महिलाएं हैं परन्तु रोड वेज बसों में आज तक एक महिला भी बस ड्राईवर के पद पर नहीं देखी गई, आटो रक्शा और टेम्पांे टेक्सी चलाते हमने किसी महिला को नहीं देखा। ये उदाहरण इस बात को सिद्ध करने के लिए प्रयाप्त हैं कि समाज ने जहां जहां भी इस्लाम से अलग लीक बनाने की कोशिश की है वहां उसे कामयाबी नहीं मिल पाई। यह क़ुरआन का चमत्कार ही है कि उसके पेशकरदा सिद्धान्तों की विमुखता सम्भव नहीं, और जहां जहां उसके सिद्धान्तों की अनदेखी की गई वहां मानव जगत ने नुकसान ही उठाया है, इस के बावजूद एक वर्ग है जिसे इस्लाम और मुसलमान के नाम से ही ख़ुदा वास्ते का बैर है, अतः वह भोली-भाली जनता के मस्तिष्क में झूठे इल्जामों का सहारा लेकर इस्लाम और मुसलमानांे के ख़िलाफ़ नफरत का जहर घोलता रहता है। कुछ करम फरमाओं की टिप्पणियां देखें- इस्लाम का मानना है कि नारी में जीवन नहीं होता, अतः वह वस्तु है भोगने योग्य है। (‘‘क्या हिन्दुत्व का सूरज डूब जायेगा’’) (पृष्ठ 32, लेखक-डा0 अनूप गोड, प्रकाशित-जागृति प्रकाश,हरिद्वार) जिसने अपने हाथ से कम से कम एक काफ़िर को क़त्ल किया हो ऐसे मुसलमान को ग़ाज़ी कहा जाता है। (‘‘विश्व व्यापी मुस्लिम समस्याएं’’) (पृष्ठ 15, लेखक-बलराज मधोक) क़ुरआन में मुसलमानों को बुतपरस्तों के ख़िलाफ़ पवित्र लड़ाई लड़ने की शिक्षा दी जाती है। ( ‘‘इस्लाम के बढ़ते कदम’’) (पृष्ठ 151, लेखक-आर0 के0 आहरी) अकसर ऐसा होता है कि ‘ात्रुता में अंधा होकर इन्सान किसी सही कथन को तोड़ मरोड़ कर कुछ का कुछ अर्थ बयान कर देता है परन्तु इन महाशयों ने ऐसा नही किया है, बल्कि इन महापुरूषों ने सीधा-सीधा झूठ घढ़ा है, और उसे इस्लाम और कु़रआन के सर मढ़ दिया है, और ये कोई मामूली लोग नहीं, इनमंे से एक देश की बड़ी यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर और एक राजनीतिक संस्था का अध्यक्ष रहा है, तो एक आई. ए. एस. अफसर रह चुका है, अन्दाजा किया जा सकता है कि इन्होंने अपने-अपने पद पर रहते हुए गैर हिन्दुओं के लिए क्या-क्या गुल न खिलाए होंगे। प्रश्न यह है कि लोग ऐसा क्यों करते हैं? जहां तक हमने समझा है यह इस्लाम धर्म का जादू है, जो सर चढ़कर बोल रहा है। ये इस्लाम धर्म से भयभीत हैं, और इसकी लोक प्रियता में बाधा डालना चाहते हैं, अतः झूठ का सहारा लेते या लचर और बेहूदा ओछे प्रश्न खड़े करते हैं। देश की एक मशहूर साध्वी एक धार्मिक सभा में भाषण देते हुए हंस-हंस कर यह नुक्ता बयान कर रही थी, कि मुसलमान हर काम उल्टा करता है, हिन्दू सूर्योदय के समय उसकी ओर मुँह करके पूजा करता है, तो मुसलमान उससे मँुह फेर कर नमाज पढ़ता है, हिन्दू हाथ धोता है तो ऊपर से नीचे को धोता है मुसलमान हाथ धोता है तो नीचे से ऊपर को धोता है। आगे साध्वी जी श्रोताओं से हंस-हंस कर पूछ रहीं थी कि हिन्दू खाना मुंँह से खाता है तो मुसलमान को कहंा से खाना चाहिए, इन ओछी और बेहूदा बातों को कहने वाले और सुनने वाले दोनों की बुद्धि और विचारों पर यकीनन आप को दया आएगी, हम ऐसे लोगों के लिए ईश्वर से सदबुद्धि की प्रार्थना ही कर सकते हैं। एक वर्ग वह है जो स्वदेशी की दुहाई देकर भोली-भाली जनता को इस्लाम से दूर रखना चाहता है, इसीलिए उसे ‘‘जैन इज़्म’’ और ‘‘बौद्ध इज्म’’ सरीखे धर्मों से कोई एलर्जी नहीं, जिन्होंने मनुवादी हिन्दुत्व और सनातनी ब्रह्मणवाद का सब से ज्यादा विरोध किया है। क्योंकि वे कुछ भी हों, फिर भी भारत में जन्में धर्म हैं, और इस्लाम से उन्हें इसलिए ख़ुदा वास्ते का बैर है क्योंकि वह अरब देश से यहँा पहुँचा है। ऐसे लोगों से मैं कहना चाहूँगा कि सत्य केवल सत्य होता है वह स्वदेशी या विदेशी नहीं होता, धर्म अगर सत्य है तो याद रखिए कि सत्य क्षेत्र में नहीं बटता सत्य भारत में भी सत्य है, और भारत से बाहर भी, और सत्य पर हर सत्यवादी व्यक्ति का पहला ह़क़ है। कुछ ऐसी ही बात हमें ह़ज़रत मुहम्मद साहब(स.) के कथन में मिलती है, आपने फ़रमाया, कि हिकमत(सच्ची और अच्छी बात) मोमिन की धरोहर है, वह जहँा भी मिले उसका सबसे बढ़कर अधिकारी वही है। इस लिए हर सत्यवादी इन्सान का कर्तव्य है कि वह सत्य की खोज करे, और अगर उसे सत्य मिल जाए तो उसे ग्रहण करने में देर न करे, और यह कह कर छोड़ न दे कि यह सत्य विदेशी है। भारत एक प्रगतिशील देश है, जो तेजी से उन्नति कर रहा है, आज मनुष्यी आवश्यकता की हर वस्तु भारत स्वयं बनाता है, परमाणु ‘ास्त्रों से लेकर टेलीफोन, रेडियो आदि। अस्त्र-शस्त्र हों सूचनाप्रौद्योगिकी के क्षेत्र की वस्तु हो या जीवन क्षेत्र की कुछ अन्य वस्तु, इनमें से अधिक ऐसी हैं जिनका सिद्धान्त विदेशों से पेश किया गया, अगर हम इन वस्तुओं के सिद्धान्त को यह कह कर छोड़ देते कि यह तो विदेशी सिद्धान्त है, तो क्या आज भारत उन्नति के शिखर पर होता? और क्या भारत परमाणु ‘ाक्ति बन पाता? एक नज़र इधर भी इन पृष्ठों में हमने हिन्दू धर्म के परम्परागत रूप का जायजा़ पेश किया है, यद्यपि हिन्दुओं का बहुसंख्यक वर्ग इसी में आस्था रखता है परन्तु कुछ लोगों ने उक्त प्रकार की अव्यावहारिक बातों से बेजा़र हो कर अपनी डेढ ईंट की मस्जिद अलग बना ली है, इनमें कई सोसायटी, कई ईश्वरीय विश्वविद्यालय, कई आध्यात्मिक संस्थाएं हैं, प्रथम दृष्टया इन के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि इस आधुनिक दौर में जब लोग पढ़ लिखकर मस्तिष्क से काम लेना जान गए हैं, ऐसे में हिन्दुत्व के धर्म गुरूओं ने जब यह देखा कि अब आम जनता उन के द्वारा दी गई धार्मिक जकड़ बन्दियों से मुक्त हो गई है, और शिक्षा व सत्ता जिस पर केवल एक विशेष वर्ग का अधिकार हुआ करता था उसमें तेजी़ से आम जनता का प्रवेश हो रहा है, लिहाजा अब इन रूढ़ीवादी बुनियादों पर धार्मिक दुकान चलने वाली नहीं है, अतः उस मनुवादी मस्तिष्क की उपज देखिए! कि उसने बहुत तेजी से धर्म की ऊपरी परत का आधुनिकीकरण कर डाला, जिसकी आड़ में अब भी वह पहली तरह ही आम जनता का ‘ाोषण कर रहा है। प्रश्न यह है कि धर्म क्या आपके हाथ की बपोती है कि जब चाहें और जैसा चाहें आप उसमें फैर बदल कर लें। परन्तु छोड़िए इसको! धर्म आपका है आप जैसे चाहें उसमें रद्दो बदल करें, मगर यह क्या कि आपने अपने मूल धर्म के विपरीत इस्लाम के पेश करदा बहुत सारे सिद्धान्त चुराकर उसमें ‘ाामिल कर लिए हैं, मसलन इनमें से अधिक का कहना है के हमारे यहाँ छुआ-छूत नहीं, ‘ाुद्र हो या वैश्य सब हमारे सत्संग में आ सकते है। यहाँ तक की मुसलमान या ईसाइ जो कभी उन की दृष्टि में मलेच्छ हुआ करते थे, अब उन से भी इन्हें परहेज नहीं, अब ये किसी महिला को सती होने के लिए नहीं कहते, अब यहाँ नियोग की बात नहीं की जाती, परन्तु यह सब तो इस्लामी सिद्धान्त हैं! जो इस्लाम धर्म ने सवा चैदह सौ वर्ष पूर्व पेश कर दिए थे, इस्लाम से इन्होनें यही कुछ नहीं लिया, अपितु कोई इस्लाम के ज़िक्र व अज्कार के मानिन्द नाम देकर उसका जप करने को कहता है तो किसी ने इस्लाम के पाँच सिद्धान्तों की नकल करते हुए अपने भी पाँच ही सिद्धान्त प्रस्तुत कर दिए हैं, इसी प्रकार की एक धार्मिक संस्था के पाँच सिद्धान्त ये हैं- 1 तन. मन. धन. ईश्वर को अर्पित करना। 2 खान पान एंव मन चाहे वस्त्र पहनने की स्वतंत्रता। 3 गृहस्त आश्रम में जीवन व्यतीत करना। 4 छुुआ-छूत से मुक्ति। 5 गुरू की आज्ञा का पालन करना और उसकी आज्ञा के बिना किसी को ज्ञान न देना इनमें से कुछ ऐसे भी हैं, जिनके यहाँ गुरू मंत्र(नाम) तन्हाई में और राज़दारी से दिया जाता है, और फिर नाम लेने वाले को इस बात का पाबन्द किया जाता है कि वह अपना गुरू मंत्र किसी को न बतलाए यहँा तक कि पति-पत्नि भी एक दूसरे से अपने गुरू मंत्र को छुपा कर रखते हैं। इसके मुकाबले हज़रत मुहम्मद साहब(स.) की यह ह़दीस देखें आप(स.) ने फरमाया कि जिस व्यक्ति से कुछ पूछा गया जबकि वह उसे जानता था परन्तु उसने छुपा लिया(अर्थाथ नहीं बतलाया)तो कयामत में उसे आग से बनी लगाम पहनाई जायगी। ईश्वर की बात खुली किताब है क्योंकि वह समस्त मानवता के लिए है, उस पर एक-एक इंसान का अधिकार है उसे किसी पूछने वाले को न बतलाना अन्याय है, ज्ञान अगर आपके पास है तो उसे फैलाना और दूसरों तक पहुँचाना ही धर्म है, परन्तु ज्ञान को छुपाने की पुरानी परम्परा यहाँ अभी भी ‘ोष है, इसे ही कहते हैं की रस्सी जल गई मगर बल नहीं गए। नए ज़माने के इन नए धार्मिक पन्थों की जड़ उसी मनुवादी हिन्दू धर्म में है जिसका वर्णन ऊपर किया गया, इनका स्रोत भी वही धर्म पुस्तकें हैं, और इनके प्रवर्तक भी और मूल सिद्धान्त भी वहीं हैं जिनका जायजा पेश किया जा चुका है, गोया नई बोतल में पुरानी ‘ाराब है। भारत एक भारी जनसंख्या वाला देश है यहाँ मानव संख्या की कोई कमी नहीं, अतः अन्य संस्थाओं की तरह इनके पास भी मानव संख्या बहुत है, इनके यहाँ भी लाखों के समागम होते हैं, तो उसका कारण यह है कि धर्म या आस्था इंसान की जरूरत है उसकी आत्मा को उस समय तक ‘ाान्ति नहीं मिलती जब तक वह अपनी आस्था को किसी से जोड़ न दे, इन संस्थाओं से जुड़कर हिन्दू भाई को दो फायदे नज़र आते है, एक ओर तो वह हिन्दू का हिन्दू रहता है दूसरी ओर वह समझता है कि वह ऊपर दिए गए अव्यावहारिक आडम्बर से भी बच गया है, क्योंकि यहाँ उसे एक नया गुरू मिल गया है जो उसके लिए सब कुछ है, अब वह उसी गुरू को असल भगवान समझता है, उसी के लिटरेचर को धर्म का मूल समझकर पूरी आस्था से पढ़ता है, इसे ही कहते हैं आसमान से गिरा खजूर में अटका। इन धर्म गुरूओं ने अपने-अपने पंथों को बड़ी चालाकी से कुछ बैसाखियों के सहारे खड़ा किया है, किसी ने ‘ारीर को चुस्त रखने के लिए व्यायाम के गुर उठा लिए हैं, तो किसी ने एक विशेष मंत्र के जप-तप को सहारा बनाया है, किसी ने श्रद्धालुओं को ध्यान की घुट्टी पिलाई है तो किसी ने ईश्वर के दर्शन कराने के सुनहरे ख्वाब की बैसाखी लगाई है। ये धार्मिक संस्थाएं जीवन व्यवस्था का अलग से कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं करती हैं इसलिए इन पंथों पर अधिक चर्चा न करते हुए केवल नए दौर की एक विशेष धार्मिक संस्था के सम्बन्ध में कुछ विचार प्रस्तुत करना उचित मालूम होता है। इन संस्थाओं मेंे एक पंथ ऐसा भी है जो ऐकेश्वर वादी है अतः वह कुछ अधिक ही आत्मविश्वास में जीता है, वह वर्ग है महर्षि स्वामी दयानन्द जी का आर्य समाज, क्योंकि वह केवल एक ईश्वर को मानते हैं इसलिए समझते हैं की हमने तो इस्लाम धर्म के पायदान को छू लिया है। दरअस्ल स्वामी दयानन्द जी(1824-1883 ई.) जब युवा अवस्था को पहुँचे और उन्होंने हिन्दू समाज में प्रत्येक स्तर पर व्याप्त पाखण्ड और अनाचार को अपनी आँखों से देखा, तो वह इस पाखण्ड को धिक्कार कर सत्य की खोज में घर से निकल गए। सत्य एक ही होता है, अतः जो सच्चे मन से उसे ढ़ूढ़ने निकले वह पा लेता है, कहते है कि स्वामी जी किसी मन्दिर में रात्री विश्राम कर रहे थे,उन्होंने देखा की भगवान जी की मूर्ति पर एक चूहा घूम रहा है, यहाँ पर उनके मन को झटका लगा और उन्हें सत्य का बोध हो गया, वह सत्य क्या था? वह कोई नई बात नहीं थी, अपितु वही सत्य था जिसको पवित्र कु़रआन ने निम्न ‘ाब्दों में बयान किया है- ऐ! लोगों एक मिसाल पेश की जाती है, उसे ध्यान से सुनो, अल्लाह से हटकर तुम जिन्हें पुकारते हो, वे एक मक्खी भी पैदा नहीं कर सकते, यद्यपि इसके लिए वे सब इकठ्ठे हो जायं, और यदि मक्खी उन से कोई चीज़ छीन ले जाए तो उससे वे उसको छुड़ा भी नहीं सकते। (सुरह हज 73) ‘ाायद उस समय तक स्वामी जी ने कु़रआन का अध्ययन न किया हो, फिर वह उस सत्य तक कैसे पहुँच गए जो कु़रआन ने प्रस्तुत किया था? इसका उत्तर यही है कि सत्य एक ही होता है, जब कोई सच्चे मन से बिना किसी हीले हवाले और ‘ार्तों के खुले दिमाग से खोजेगा तो अवश्य ही उसे पा लेगा। स्वामी दयानन्द जी के इतिहास से पता चलता है कि उन्हें एक सच्चे गुरू की तलाश थी जिसके लिए उन्होेंने कई गुरू बनाए परन्तु कहीं भी उनके मन को संतुष्टि न हुई, प्रश्न यह है कि स्वामी जी को सच्चा गुरू क्यों न मिल पाया, ‘ाायद उस का कारण यह था कि जिस प्रकार उन्होंने सत्य को जानने और समझने में कंडीशन्स को आड़े नहीं आने दिया अतः जब उन्हें इस बात का बोध प्राप्त हुआ कि ईश्वर एक है और वह सर्वशक्तिमान ईश्वर निराकार है लिहाज़ा उसकी कोई प्रतिमा नहीं बनाई जा सकती तो इस ज्ञान को उन्होंने यह कहकर छोड़ नहीं दिया कि यह तो कु़रआन का बोध है, जो अरब क्षेत्र से आया है, अतः मैं उसे ग्रहण नहीं करूंगा, बल्कि मुझे तो वह बोध चाहिए जो भारतीय हो। स्वामी जी ने ऐसा इसलिए किया कि सत्य या बोध सीमाओं या भाषाओं में नहीं सिमटता। परन्तु गुरू की तलाश में ‘ाायद स्वामी जी ने सीमाओं की ‘ार्त लगा दी थी, उन्हें केवल भारतीय गुरू ही चाहिए था, जबकि इस युग में सारे संसार के लिए ईश्वर ने एक ही गुरू निर्धारित किया था, और यह निर्णय सुना दिया था कि अब केवल उसी एक गुरू का गुरूत्व स्वीकार होगा और अब सारा संसार न चाहते हुए भी उस एक गुरू के द्वारा दिए गए नियमों पर अमल कर सकेेगा(जैसा की इन पृष्ठों में हमने सिद्ध किया है कि आज संसार भर में केवल इस्लाम धर्म के द्वारा दिये गए नियम ही स्वीकार्य हैं।) जिसे दुनिया इस्लाम के अन्तिम पैग़म्बर ह़ज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा(स.) के नाम से जानती है परन्तु इस महान विभूति का सम्बन्ध तो अरब क्षेत्र से था अतः इसलिए बहुत से बुद्धिमानों ने समझकर भी उसे गुरू न माना। उस जगत गुरू तक न पहुँचने से क्या हानि हुई उसे भी देखें, महर्षि स्वामी दयानन्द जी कहते हैं--- ब्राह्मण तीनों वर्णाें, बा्रह्मण,क्षत्रिय और वैश्य-क्षत्रिय-क्षत्रिय और वैश्य, तथा वैश्य, वैश्य वर्ण को यज्ञोपवीत कराके पढ़ा सकता है। और जो कुलीन ‘ाुभ लक्ष्णयुक्त ‘ाूद्र हो तो उसे मंत्र संहिता छोड़ के सब ‘ाास्त्र पढ़ावे, ‘ाूद्र पढ़े परन्तु उसका उपनयन न करे। (सत्यार्थ प्रकाश, तृतीय. , पृष्ठ 31) यह बताने की जरूरत नहीं कि पठन-पाठन सम्बन्धी स्वामी जी के द्वारा पेश करदा उक्त नियमावली पर इस युग में अमल नहीं किया जा सकता, अब जो चलने वाला कानून है वह जगत गुरू ह़ज़रत मुहम्मद(स.) के द्वारा बताया गया एक अल्लाह का यह कानून है कि एक ‘ाूद्र भी अगर योग्यता पैदा कर ले तो वह हर प्रकार की शिक्षा प्रत्येक वर्ण के व्यक्ति को दे सकता है, उच्च वर्ण ब्राह्मण को भी न केवल वह पढ़ा सकता है अपितु भारत वर्ष में कितने ही ‘ाूद्र जाति के अध्यापक, लेकचर्र, रीडर और प्रोफेसर बनकर छोटे विद्यालयों से विश्व विद्यालयों तक में पढ़ा रहे हैं। स्वामी जी ने अपनी किताब सत्यार्थ प्रकाश के चैदहवें समुल्लास में इस्लाम धर्म और कुरआन पर कुछ सतही और बचकाना प्रश्न लगाए हैं। (जिसके कईं उत्तर भी प्रकाशित हो चुके हैं। देखें ‘हक प्रकाश’ लेखक सनाउल्ला अमर्तसरी) अतः उनके भक्त समझते हैं कि गुरू जी ने इस्लाम के किले में सेन्ध लगा दी है। यह केवल एक धोखा है, स्थिति का विश्लेषण करें तो यह बात स्पष्ट होकर सामने आती है कि स्वामी जी के केवल उन आदेशों पर ही अमल हो रहा है जो इस्लाम धर्म के अनूकूल हैं, उदाहराणर्थ ऐकेश्वरवाद पर उन्होंने जोर दिया है, ईश्वर की प्रतिमा बनाने या उसे साकार रूप देने का खण्डन किया है, तो इस्लाम चैदह सौ वर्ष पूर्व से इस बात की भलि भाति शिक्षा देता आ रहा है, उन्होंने पौराणिक पाखण्डों का खण्डन किया है तो इस्लाम धर्म पहले दिन से इनका खण्डन करता आ रहा है, उन्होने लड़का-लड़की के इख्तलात को ना पसन्द करते हुए शिक्षा आदि हेतू दोनों के लिए अलग अलग व्यवस्था करने की ताकीद की है तो इस्लाम धर्म पहले से ही इस बात पर जोर देता आ रहा है। ऐसी स्थिति में क्या यह समझा जाए कि ये शिक्षाऐं उन्होंने इस्लाम धर्म से ग्रहण की थी? आप कह सकते है कि नहीं! वेदों में भी ऐकेश्वरवाद है उदाहरण मंे ब्रह्मम सूत्र को पेश किया जा सकता है जो ऐकेश्वरवाद की ताकीद करता है और वेदों का सार कहलाता है, परन्तु वेदों में अग्नि देवता भी तो है? सूर्य देवता भी तो है? गायत्री मंत्र आदि में जिसकी स्तुति करने को कहा गया है। यह हम बता चुके हैं कि जहां-जहां स्वामी जी ने इस्लाम धर्म से अलग लीक बनाने का प्रयास किया है और इस्लाम की शिक्षाओं के विपरीत व्यवस्था प्रस्तुत की है उस पर इस युग में अमल करना सम्भव नहीं है। अगर स्वामी जी सच्चे गुरू को पा लेते तो वे सारी बातें वही प्रस्तुत करते जिन पर अमल करना संम्भव होता। आज भी बहुत सारे लोग यह गलती करते हैं की वे सत्य की खोज में निकलते हैं, परन्तु इस शर्त के साथ कि उन्हें भारत ब्रान्ड सत्य ही चाहिए, और जहां भी उन्हें ठिकाना मिलता है, उसी में लीन होकर अपनी आत्मा को झूठा विश्वास देने का प्रयास करते हैं। इन लोगों की मिसाल ऐसी ही है, जैसे कोई अमेरिकी या आस्ट्रेलियाइ नागरिक हिमालय की चोटी को सर करने निकले लेकिन उसकी शर्त यह हो कि वह अपने देश की सीमाओं से बाहर नहीं जाएगा। जाहिर है कि ऐसे में वह अपने देश के किसी ऊँचे से पहाड़ पर चढ़कर ये मान लेगा की उसने हिमालय को फतह कर लिया है। अतः इस लेख के माध्यम से मैं उन सत्यवादियों से निवेदन करता हूँ जिन्हें सत्य की तलाश है, और उनसे भी जो देश में हिन्दू राष्ट्र या राम-राज्य लाने का बेनतीजा प्रयास कर रहे हैं। कि सत्य आपके सामने आ गया है, और वह यह है कि हिन्दू राष्ट्र या राम-राज्य को इस युग में लाना सम्भव नहीं, और यह भी कि आप जिस व्यवस्था में जी रहे हैं, वह इस्लामी व्यवस्था है, अर्थात इस्लामी सिद्धान्त के एक बड़े भाग को आपने स्वतः ही स्वीकार कर लिया, उसका बाकी बचा भाग भी ऐसा ही सत्य है। जो आपको स्वीकर कर लेना चाहिए। उदाहरण के तौर पर क्या यह सत्य नहीं कि इस संसार को बनाने और चलाने वाली कोई प्रभु सत्ता है, जिसे हम ईश्वर या अल्लाह कहते हैं, क्या यह सत्य नहीं कि वह केवल एक है, जैसा कि पवित्र क़ुरआन में है कि- अगर ईश्वर अनेक होते तो सारा निज़ाम दरहम-बरहम हो जाता। (सूरह अल-अंबिया 22) और अगर ईश्वर है और उसने हमें पैदा किया है, तो क्या उसने मानव जगत को पैदा करके यों ही भटकने के लिए छोड़ दिया और कोई जीवन मैनुअल नहीं दिया होगा, अगर हां तो बस उसी मेनुअल को धर्म कहते हैं, वही धर्म हैं, जिसका विशुद्ध रूप है इस्लाम। ईश्वर के नज़दीक अब केवल वही स्वीकार्य है, जैसा कि कुरआन में है कि- धर्म (के नाम पर) केवल इस्लाम (ही मान्य) है। (आल-ए-इमरान 19) और एक दूसरे स्थान पर कहा गया है कि- जो इस्लाम के अतिरिक्त कोई धर्म स्वीकार करेगा तो वह मान्य नहीं होगा। (आल-ए-इमरान 85)
अतः निवेदन है कि इस्लाम धर्म का अधिकंाश हिस्सा समय की रफ्तार के साथ आपने स्वतः ही स्वीकार कर लिया है, बाकी बचा जो बहुत मामूली है, उसे सोच समझ कर आप अपनी इच्छा से स्वीकार कर लें,
अगर आप ऐसा नहीं करते तो मैं आपके लिए पवित्र कु़रआन के वही ‘ाब्द लिखना चाहूंगा जो ह़ज़रत मुहम्मद साहब (स.) ने रूम के सम्राट को लिखे गए अपने पत्र के अन्तिम में अंकित किये थे कि- अगर आप नहीं मानते तो गवाह रहना कि हम तो (बहरहाल) मान चुके हैं। (कुरआन आले इमरान 64) अंत में उस विषय पर आते हैं जहां से बात शुरू हुई थी कि क्या इस दौर में ‘हिन्दू राष्ट्र‘ या ‘राम राज्य‘ लाया जा सकता है? तार्किक चिन्तन के बाद तो यही निष्कर्ष निकलता है कि इस दौर में ‘हिन्दू राष्ट्र‘ या ‘राम राज्य‘ की स्थापना अव्यवहारिक और असम्भव है। ....
असलम भाई, सबसे पहले तो बात गाली-गलौज के बारे में कर ली जाए.
ReplyDeleteआपने कहा कि हम गाली से बात न करें. सही कह रहे हैं आप. बात हमेशा सही तरीके से ही होनी चाहिए. लेकिन शायद आप भुल रहे हैं कि ऊपर जब भारत भारती ने कुछ गलत लिखा था तो आपने उसका समर्थन किया था. उसके बोल को मजबूत किया था. पूछ सकता हूं कि क्यों आपने भारत भारती को सही ठहराया और समर्थन किया.
असल बात तो यह है कि, जब किसी ने आपको उसी श्ब्दों में जवाब दिया जिसका आपने ऊपर समर्थन किया था तो आपको मिर्च लग गई.
जहां तक आपने कहा कि जिसके अपने धर्म में कुछ नहीं होता वो दुसरों के धर्म के बारे में लिखते और बोलते हैं .
असलम मियां, हम और हमारे दोस्त ऐसे नहीं हैं जो केवल दूसरों की बुराईयां देखते हैं. हम दूसरों के बारे में कुछ कहने से पहले अपने-आप को देखते हैं और अपनी बुराई करते हैं. फौज़िया, फिरदौस, रहुल और भी बहुत सारे लोग ऐसा ही कर रहे हैं लेकिन आप जैसे कथित धार्मिक लोग अपने को हमेशा पाक-साफ बताते फिरते हैं और दूसरों पर उंगली उठाते हैं.
मैंने आपका ब्लौग देखा है. हिन्दू धर्म की ऐसी तैसी कर रखी है आपने. लेकिन मुझे इससे कोई दिक्कत नहीं है. कोई परेशानी नहीं है. अच्छा होता अगर आप साथ-साथ अपने धर्म की भी बखिया उधेरते लेकिन आप ऐसा नहीं कर सकते क्योकि आप बेहद डरपोक हैं. आपको अपने अल्लाह और मोहम्मद साहब से डर लगता है.
फिर भी कोई बात नहीं. अगर आप डरपोक हैं तो चुप तो रह ही सकते हैं. जो हिम्मत कर रहे हैं जो बोलना चाह रहे हैं उम्हें गलत तरीके से चुप कराने की कोशिश क्यों?
एक बात का ध्यान रहे. जो अपने भगवान, अल्लाह से नहीं डरा वो किसी असलम-वसलम की फालतू बातों पर तो कान भी नहीं देता.
अगर आपको भारत-भारती से इतना ही प्यार है तो उसे अपने घर बुलाइए. दावत खिलाइए और हो सके तो रात को अपने ही घर पे रोक लीजिए शायद उसका और आपका कुछ भला हो जाए.
क्या जमाना आ गया है. खुद गाली-गलौज का समर्थन करने वाले और फालतू की बात करने वाले तर्क की बात करते हैं.
श्री अनभिग्य ओर श्री विकास जी ,,, मैंने कब कहा की आप गालियाँ न दें मैंने तो केवल यह कहा था की बात गलियों से नहीं तर्कों से होती हे ,,,रही बात गलियों की तो मेरे भोले भाले भाइयों आप यह शोक शोक के पूरा कीजिये ,में हूँ न गलियां खाने को , रही बात डरपोक होने की , हाँ में डरपोक भी हूँ , ओर एक इनसान अगर किसी स्थान पर स्वयं को कमज़ोर , या दूसरे के मुकाबले असहाय महसूस करता हे तो उसे अपने से ताक़तवर से डरना ही चाहिए ,ओर मेरा मानना हे कि अगर हर इनसान को मरना हे जिस से किसी को इनकार नहीं हो सकता ,अगर इनसान यह मानता हे कि उसकी मोत ज़िन्दगी दुसरे के हाथ में हे ,अगर वह मोत के समय स्वय को असहाय महसोस करता हे तो फिर उसे डरना ही चाहिए उस से जिस के सामने वह छोटा या असहाय हे ,,, सोचो कब सोचोगे ,,,, मोत आजायगी तब सोचोगे ,,,,,, ?
ReplyDeleteMay 6, 2010 8:58 PM
bahut khoob
DeleteMashallah...Gr8 Reply...
Deletebahut sahi !!!
ReplyDeleteहिन्दू धर्म के गुरु का मतलब है अपनों की कमी और विकाश
ReplyDeleteऔर मुस्लिम धर्म के गुरु का मतलब है दुसरे धर्म की कमियों और धर्म परिवातेर्तन
1वर्ण
व्यवस्था वर्ण व्यवस्था हिन्दुत्व, या हिन्दू धर्म के इतिहास में विद्यमान
एक मूल सिद्धान्त है कोई भी बुनियादी धर्म पुस्तक या इतिहास पुस्तक इस के
वर्णन से खाली नहीं, मनु स्मृति में है
वेर्द वाव्स्था किस वेद में है जरा बतायेगे ????
क्या ये मुस्लिम में नही है
2
क्या है अश्वमेघ यज्ञ?
कहते
हैं कि इस यज्ञ में एक ‘ाक्तिशाली घोड़े को दौड़ा दिया जाता था, जो भी
राजा उसको पकड़ लेता उससे युद्ध किया जाता और उसके राज्य को अपने राज्य
में मिला लिया जाता था।
प्रश्न
यह है कि क्या ‘ाान्तिपूर्ण रह रहे पड़ोसी के क्षेत्र में घोड़ा छोड़कर
उसे युद्ध पर आमादा करना जायज़ होगा? और ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत पर
अमल करते हुए ‘ाान्ति से रह रहे पड़ोसी से युद्ध कर के उसके क्षेत्र पर
कब्ज़ा कर लेना, यह कौन सी नैतिकता होगी? और क्या अन्तर्राष्ट्रीय कानून
अंस---किस हिन्दू ने प्रधानमंत्री ने पकिस्तान में हमला करवाया
तेरी ही कोम के कारन आज भारत ३ लड़ाई लड़ चूका है
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हिन्दू धर्म ग्रन्थों में कुछ अन्य पूजा पाठ के तरीके भी ऐसे हैं जिन पर
अमल करना असम्भव लगता है। ‘‘भगवद् गीता’’ अध्याय 6 के 11 वें ‘लोक में
‘‘श्री कृष्ण जी’’ योगी को बैठने का तरीका बताते हुए कहते हैं किः योगी
एकान्त के स्थान पर पहले कुश(एक प्रकार की घास) बिछाए, उसके ऊपर मृगादि का
चर्म बिछाए, उसके ऊपर कपड़ा बिछाए। प्रश्न यह है कि मृगादि का चर्म बिना
मृग को मारे कैसे प्राप्त होगा? जाहि़र है कि हिन्दू राष्ट्र लाना है तो
मृगादि को मारने की अनुमति देनी होगी, जो असम्भ्व लगता है।
उत्तर-बकरा इएद कोन मनाता है धर्म के नाम पर हजरों जानवरों की बलि कोन देता है
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6. नियोग
हिन्दू
धर्म में नियोग को मुख्य स्थान प्राप्त है। वर्तमान युग के प्रख्यात धर्म
सुधारक ‘‘स्वामी दयानन्द जी’’ ने तो यहां तक लिखा है कि- पुरूष अप्रिय
बोलने वाली स्त्री को छोड़कर दूसरी स्त्री से नियोग का लाभ ले सकता है।
किस हिन्दू परिवार ये करते देखा आज तक
अपनी ही घर की लडकियों के साथ सोना तुम कतुओ का ही काम है
@mindwassup...आपका कॉमेंट पढ़ कर आपकी सौच पर बड़ी हसी आई...अश्वमेघ यज्ञ,मृगादि और नियोग को आपने खुद ही ग़लत बताया...आपका तर्क यह था की यह सब किसी हिंदू को करते देखा है क्या? आपने असलम साहब की बातो का समर्थन किया है...उन्होने भी तो यही कहा था की अगर हिंदू रास्ट्र बनता है तो यह सब हिंदू नीति लागू करना होगी जोकि किसी भी सभ्या समाज मे असंभव है...आप लोग अपना समय हिंदू रास्ट्र के लिए (जी की असंभव है) देने की बजाए भारत को इस्लामी रास्ट्र बनाने पर काम करो जो की हो कर रहेगा...यह हदीस है की कयामत से पहले एसा एक भी घर नही बचेगा जहा इस्लाम दाखिल नही होगा (आमीन)
Deleteडाक्टर मुo असलम क़ासमी
ReplyDeleteकहते है धर्म मूर्खो के लिए नही होता
शायद इसी लिए धरती जनम के इतने साल बाद भी संतो के कुछ चंद नाम ही गिने जा सकते है
जरा इनकी बातो पर गौर फरमाइए
ये भारत को हिन्दू राष्ट बनाने का विरोध करते है और तर्क क्या देते है
क्या है अश्वमेघ यज्ञ?
इस यज्ञ में एक ‘ाक्तिशाली घोड़े को दौड़ा दिया जाता था, जो भी
राजा उसको पकड़ लेता उससे युद्ध किया जाता और उसके राज्य को अपने राज्य
में मिला लिया जाता था।
प्रश्न
यह है कि क्या ‘ाान्तिपूर्ण रह रहे पड़ोसी के क्षेत्र में घोड़ा छोड़कर
उसे युद्ध पर आमादा करना जायज़ होगा? और ‘आ बैल मुझे मार’ वाली कहावत पर
अमल करते हुए ‘ाान्ति से रह रहे पड़ोसी से युद्ध कर के उसके क्षेत्र पर
कब्ज़ा कर लेना, यह कौन सी नैतिकता होगी? और क्या अन्तर्राष्ट्रीय कानून
इस की अनुमति देगा?
ये आर्यावर्त में फैले एक राजपरम्परा थी न की हिन्दू परम्परा
इसी तरह अग्रेजो ने नीति चलायी थी की जिस राजा के संतान नही होगी उसको वो अपने राज्य में मिला लेगे
दुनिया के हर कोने में इस तरह की परम्परा थी
अब इनको क्या लगा की यदि हिन्दू राष्ट हो गया तो भारत का प्रधानमंती एक घोडा छोड़ेगा .जो अगर पकिस्तान या चीन में घुस गया
तो वह से हमें लड़ाई करनी पड़ेगे
सही मायने में भारत ने आज तक कभी लड़ाई की पहल ही नही की ,सदेव बचाव किया है
लड़ाई सदेव इस्लाम धर्म के ठेकेदार पकिस्तान ने किया है और जो भी इस्लाम राष्ट है उनकी हालत कुत्तो से भी बेबतर है
हा हा हा हा हा हा हा
काजमीजी जाती पर इतना बवाल क्यूँ है ? जबकि जाती सभी जीवो और निर्जीवों मे भी होती है और उनके गुणो मे भी अन्तर होता है । तो मनुष्य क्या लग से आया है । अब हिंदु जाती और मुसलमान जाती मे ही देखल्कों कितना अन्तर है 99 % आतंकवादी सोच के क्यूंकी उनके रक्त मे तरह तरह की मिलावट है । और हिंदु रक्त शुद्ध है जिसके गुण अलग हैं । अब शिकार की बार है तो क्षत्रीय सीमा की रक्षा के लिए मांसाहारा एक लक्ष्य के लिए किया करते थे मुह के स्वाद या कामेच्छा बड़ाने के लिए नही और वेदिक हिंदु को छोड़ सभी समाप्त होने वाले हैं । क्यूंकी हिंदुओ को छोड़ किसी भी जाती मे वंश परंपरा नही मानी जाती यदि अपने वंश का पता न हो तो अपने ही किसी रक्त संबंधी स एविवाहस ए जन्मी संतान की रोगो से लड़ने की शक्ति एयर संतान को जन्म देने की शक्ति समाप्त हो जाती है साथ ही कई दोष भी हो जाते हैं । और मलेच्छया ( मुसालेबीमान और किसाई ) तो अपनी ही भाई बहनो के बच्चो की शादी कर देते हैं । हिंदु धर्म मे इस तरह के कई नियम हैं जो दूसरो मे नही हैं । आने वाली कोई भी महामारी तुम सबको जड़ से समाप्त कर देगी पहले यह सोचो । इसे वेज्ञानिक और डाक्टर भी मानते हैं की पास के रिशों मे विवाह से यह दोष होता है । उल्टी गिनती शुरू है । बच भी नाही सकते
ReplyDeleteकासमीजी धर्म की परिभाषा क्या है जरा पहले यह बता दीजिये इसके बाद आगे की कुछ कहिएगा । आपका सिर्फ एक संप्रदाय है जिस तरह पूर्ण चंद्रमा की सिर्फ एक कला आपके संप्रदाय का प्रतीक है उसी तरह आपका भी सिर्फ एक संप्रदाय है न की कोई धर्म । हिंदुओ को छोड़कर कांही भी कोई धर्म नही है । यदि है तो प्रमाणित करो । मेएने यदि कुरान और हदीसे खोलनी शुरू कर दी तो आपकी तो निकाल जाएगी । एक ब्राह्मण कालीदास ने मंत्रो की आहूती देकर जिस तरह आपके पोगामबार के प्राण उड़ा दिये थे उसी तरह भविष्य मे भी ब्राह्मण कर सकते हैं । अभी यह न भूलो की ब्राह्मण जीवित हैं । आगे जिसे आप पोगांनबर कहते हिन उसके पैर के निशान नेट पर हैं जिसके अनुसार भारतीय लक्षण शास्त्र और आधुनिक अपराधविज्ञान भी कहता अहै की पोगंबर के पैर के नुईशान जिस तरह के हैं वो सिर्फ एक व्यभिचारी , अपराधी के ही हो सकते हैं । विश्वास न हो तो नेट पर इन प्रमाणों को देख सकते हो
ReplyDeleteजो लोग अज्ञानवश "ईश्वर अल्लाह तेरे नाम "का भजन करते रहते हैं ,शायद उनको ईश्वर की महानता शक्तियों और गुणों के बारे में ,और अल्लाह की तुच्छता और अवगुणों के बारे में ठीकसे पता नहीं है .ईश्वर असंख्य अल्लाह पैदा कर सकता है .क्योंकि असल शब्द अल्लाह नहीं "अल -इलाह "है देखिये कुरआन की पारिभाषिक शब्दावली पेज 1223 और 1224 पर शब्द "इलाह "
ReplyDeleteइलाह का अर्थ देवता या "god "है
मुहमद के समय अरब में मूर्तिपूजा प्रचलित थी. अकेले काबा में 360 देवता थे हरेक कबीले का अलग अलग देवता था .लोग अपने लड़कों का नाम अपने देवता के नाम से जोड़ देते थे .तत्कालीन अरब इतिहासकार "हिश्शाम बिन कलबी "ने अपनी किताब "किताब अल असनाम "जिसे अंगरेजी में "Book of Idols "भी कहा जाता है अरबों के देवताओं के बारे में विस्तार से लिखा है ,उस से कुछ देवताओं के बारे में दिया जा रहा है .
1 -अरबों के देवता और उनका स्वरूप
अरबों के देवता कई रूप के थे जैसे मनुष्य ,स्त्री ,पशु ,या पक्षी आदि ,कोई आकाश वासी था ,कोई यहीं रहता था .कुछ नाम देखिये -
वद्द-मनुष्य ,सु आ अ -स्त्री ,यगूस-शेर ,याऊक -घोड़ा ,नस्र-बाज ,इसी तरह और देवता थे जिनका नाम कुरआन में है ,जैसे लात ,मनात ,उज्जा और मनाफ .कुरआन में लिखा है -
"क्या तुमने लात ,मनात ,एक और उज्जा को देखा .सूरा -अन नज्म 53 :19 -20
इसी तरह एक और देवता था जिसका नाम "इलाह "था जो चाँद पर रहता था वह "Moon god "था उसका स्वरूप "अर्ध चंद्राकार cresent जैसा था चाँद में रहने के कारण उसकी मूर्ति काबे में नहीं राखी जाती थी ,इलाह विनाश का देवता था .और बड़ा देवता था .
2 -मुहम्मद के पूर्वजों के देवता -
मुहम्मद के पूर्वजों के नाम भी उनके देवता के नाम पर थे जैसे मुहम्मद के परदादा का नाम "अब्द मनाफ़ "था यानी मनाफ़ का सेवक मुहम्मद की पत्नी खदीजा की देवी का नाम "उज्जा 'था इसलिए खदीजा के चचेरे भाई के नाम में नौफल बिन अब्द उज्जा लगा था ,जब मुहम्मद के पिताका जन्म हुआ तो उसका नाम "अब्द इलाह "रखा गया था यानी इलाह देवता का सेवक .यह नाम बिगड़ कर अबदल्ला हो गया था
3 -कुरआन में इलाह का वर्णन -
"अल -इलाह एक बड़े सिंहासन का स्वामी है -सूरा अत तौबा 9 :129
"वह महाशाली एक सिंहासन पर बैठता है -सूरा अल मोमनीन 33 :116
"इलाह एक ऊंचे सिंहासन पर बैठता है "सूरा -अल मोमिन 40 :१५
4 -इलाह से अल्लाह कैसे बना ?
अरबी भाषा में किसी भी संज्ञा (Noun )के आगे Definit Article अल लगा दिया जाता है .इसका अर्थ "the "होता है मुहम्मद ने "इलाह "शब्द के आगे "अल "और जोड़ दिया .और "अल्लाह "शब्द गढ़ लिया .वास्तव में इलाह शब्द हिब्रू भाषा का है ,इसका वही अर्थ है जो अंगरेजी में "god "का है .इलाह को बाइबिल में "अजाजील "भी कहा गया है ,यानी विनाश का देवता -बाइबिल -लेवी अध्याय 16 :8 -10 -26
5 -मुहम्मद की कपट नीति
पाहिले मुहम्मद सभी देवताओं को समान बताता था और लोगों से यह कहता था ,कि-
"हमारा इलाह (देवता )और तुम्हारा इलाह एक ही हैं .सूरा -अनकबूत 29 :46
6 -अरब में तीन काबा थे
एक काबा मक्का में था .जो मुहम्मद के कबीले 'कुरेश 'के कब्जे में था दूसरा काबा नजरान में जो बहरीन केथा पास था ,तीसरा काबा सिन्दादका था जो कूफा और बसरा के बीच स्थित था इनसे चढ़ौती में काफी धन आता था कुरेश मक्का के काबे से जो मिलता था उस से रोजी चलाते थे .जैसा कुरआन में लिखा है -
"क्या हमने तुम्हें यह जगह (काबा )नहीं बनादी ,जिस से लोगों की कमाई खिचकर तुम्हारे पास चली आती है ,और तुम्हारी रोजी रोटी आराम से चलती है "सूरा -अल कसस 28 :57
7 -अल इलाह की इबादत क्यों
जब दूसरे काबे बन गए तो कुरेश की कमाई कम होने लगी .और मुहमद भी गिरगिट की तरह रंग बदलने लगा .उसने लोगोंपर दवाब डाला की वे केवल "अल -इलाह "की इबादत करें उसने कुरआन में यह कहा -
"तुम्हारा पूज्य केवल इलाह ही है सूरा -अल बकरा 2 :163 ऎसी कई आयतें है -
8 -मुहम्मद ने काबा की मूर्तियाँ क्यों तोडी ?
मुहम्मद को अपने कबीले कुरेश से लगाव था ,जब कुरेश की कमाई कम होने लगी और कमाई में कई कबीले हिस्सेदार बन गए तो मुहमद ने सारी मूर्तियाँ तुड़वा दीं.ताकी पूरी कमाई कुरेश के पास आने लगे ,कुरआन में उसने यह लिख दिया -
"मैंने कुरेश के साथ सम्बन्ध (Attachment )रखा ताकि वे मेरे कारवां को यात्रा के समय सर्दी और गरमी से बचाएं ,इसीलिए मैंने कुरेश को इस घर (काबा )की पूजा के लिए नियुक्त कर दिया .और उनको भूखों मरने से बचाया ,और भय से मुक्त कर दिया .सूरा कुरेश 106 :1 से 4
खतना कराना शैतान की चाल है !अल्लाह का हुक्म नहीं !!
ReplyDeleteवैसे तो सभी मुसलमान मानते हैं कि इंसान को अल्लाह ने बनाया है.और उसका अकार,रूप संतुलित और ठीकठाक बनाया है .उसे किसी तरह की कमी नहीं रखी.और यह भी दावा करते हैं कि अल्लाह ने कुरआन में सारी बातें खोल खोल कर साफ़ बता दी हैं.
लेकिन जब उनसे खतना के बारे में पूछा जाता है ,तो वे बेकार के बहाने करने लगते हैं.एक व्यक्ति ने जब इसके बारे में सवाल किया तो इम्पेक्ट उर्फ़ सलीम ने कहा कि अप फल को छीलकर क्यों खाते हैं.हमने कहा अगर अल्लाह को छिला हुआ फल पसंद है तो फल का नाम भी बता देते
लेकिन मेरा मुसलमानों से सवाल है कि वे एक भी आयत बताएं जिसमे खतना का हुक्म हो .या वे बता दें कि मुहम्मद ने कब खतना कराई थी .,इसकी कोई हदीस बता दें अब हम मुख्य विषय पर आते हैं
1 -अल्लाह ने इंसान को उचित रूप में बनाया
"हमने तुम्हें बनाया तो ,ठीक अनुपात और आकार में बनाया और इस प्रकार की रचना बनाई जैसी होना चाहिए .सूरा अल इनफितार 82 :7 -8
"तुम क्यों नहीं मानते कि हमने ही तुम्हें पैदा किया और तुम्हारा आकार देने वाले हम हैं ,या तुम आकार देने वाले हो .सूरा अल वाकिया -56 :57
"हमने तुम्हारा अकार बनाया और अच्छा आकार बनाया .सूरा अल मोमिनीन -40 :64
"अल्लाह ने जो भी चीज बनाई व्यर्थ नहीं बनाई .सुरा आले इमरान -3 :191
"हमने इन्सान को अच्छे से अच्छी स्थिति में बनाया .सूरा अत तीन -95 :3
2 -अल्लाह के दिए आकार को बदलना शैतान की चाल है -
"शैतान ने अल्लाह से कहा ,मैं तेरे बन्दों को बहकाऊँगा ,उनको वासना के मायाजाल में फंसऊँगा ,फिर वे अपने चौपायों के कान फडवाएंगे और अलाह की रचना में बदलाव करेंगे ,और पशुओं को देवताओं के नाम छोड़ देंगे ,ऐसा करने वाले शैतान के मित्र हैं "सूरा अन निसा -4 :119
इस आयत की तफ़सीर में "अल्लाह की रचना "में बदलाव का उदहारण दिया गया है जैसे -नसबंदी करना .किसी को बाँझ करना ,परिवार नियोजन करना ,आजीवन ब्रह्मचारी रहना ,और किसी को हिजड़ा बनाना है .
इसी आयत कि बदौलत मुसलमान परिवार नियोजन नहीं करते हैं .इसे गुनाह मानते है .
3 -खतना कराना यहूदिओं की नक़ल है -
वैसे तो मुसलमान यहूदिओं को रोज गालियाँ देते हैं .लेकिन उनकी नक़ल करके छोटे छोटे बच्चों की खतना कर देते है .जब वह नादान होते है .कुरआन में ऐसा कोई आदेश नहीं है ,यह बाईबिल का आदेश है -
" खुदा ने कहा तू और तेरे बाद तेरे वंशज पीढी दर पीढी हरेक बच्चे का खतना कराये,और उनके लिंग की खलाड़ी काट दे,जो ट्रे घर में पैदा हो या जिसे मोल से खरीदा हो सबका खतना कर "बाइबिल -उत्पत्ति अध्याय -17 :9 से 14
4 -मूसा और उसके पत्रों का खतना नहीं हुआ
" मिस्र निकालने बाद जितने लोग पैदा हुए किसी का खतना नहीं हुआ -यहोशु-5 :5
"अपना नहीं बल्कि अपने ह्रदय का खतना करो "बाइबिल व्यवस्था -10 :16
यहाँ तक तो लड़कों के खतना की बात है .लेकिन मुहम्मद ने अल्लाह से आगे बढ़ कर औरतों के खतना का हुक्म दे डाला
5 -औरतों का खतना -female genital mutilation
यह मुहमद के दिमाग की खुराफात है .इसका कुरान में कोई जिक्र नहीं है चूँकि यहूदी लड़कों का खतना करते थे मुहम्मद उसका उलटा करा चाहता था .उसे यहूदिओं से नफ़रत थी .उसने कहा -
"रसूल ने कहा कि काफिर और यहूदी जैसा करते हैं ,उम उसका उलटा करो .बुखारी -जिल्द 7 किताब 72 हदीस 780
एक दिन मदीना में उम्मे अत्तिया लड़किओं की खतना करने जा रही थी ,मुहम्मद ने उस से कहा कि लड़की की योनी को गहराई से मत छीलो .ऐसा न हो कि वह उसके पति को अच्छी न लगे -अबू दाऊद-किताब 41 हदीस 5149 ,5151 और 5152
"रसूल ने कहा कि लड़किओं की सिर्फ भगनासा clitoris और आस पास के भागोस्ष्ठ छील दो बुखारी जिल्द 7 किताब 72 हदीस 779
6 -महिला खतना में क्या होता है
भगनासा को बिलकुल निकाल देना -removal clitoris भगोष्ठ को छील देना या काट देना trimming of labia majora .और cutting
महिला खतना अरब में अधिक है .लेकिन भारत के मुसलमान भी अपनी औरतो की खतना इस लिए करा देते है कि उनकी औरतें किसी गैर मुस्लिम के साथ न भाग जाए ,क्योंकि सिर्फ मुस्लिम ही ऎसी बर्बाद और बिद्रूप औरत को रख सकता है
http://sheikyermami.com/2009/09/30/are-you-a-sponsor-of-female-genital-mutilation/
भांडा जी का भांडा फूट गया कृपया इस ब्लॉग लिंक पर जाये -
ReplyDeletehttp://keedemakode.blogspot.com/2011/09/blog-post.html
Mian....kuch to sahi likha karo aur jab dharm ki bat karte ho to Hindu dharm se kyada khamiyan to apke dharm me maujud hain...apne unpar prakash nahi dala jara bhi...
ReplyDeletekya aap batana chahenge ki agar apke Mohammad ne Islam Dharm ke prachar ka kam kia to Mohhamad se pahle kisi ka nam nahi ata hai ki kisi ne kia ho...to ye to Mohammad ne hi Sanatan Dharm ko tod marod kar ek naya dharm banaya.
kya kisi dharm me bhagwan ye dara kar bole ki meri puja karo ho...par yaha kaha jata hai ki allah se daro wo nemat dega barakkat dega.
dusra apke dharm me to Striyo ki halat bahut achi hai kyu...3 bar bolo chahe phone par hi par talak ho gaya....jis ladki ko khala kaho usi se shadi kar lo...
shauch karne baitho aur pani na mila to waha pdi mitti se hi poch lia...aur apne ko shudh bolte ho aap
bharat me to koi Musalman tha nahi to ye kaum bharat ayi kaise...akraman karke...to atatai kaun hua Musalman ya hindu
tum ram mandir ki bat karte ho...tum jab yaha ke hue hi nahi to ram mandir tumhara masjid kaise ho gaya
more than 95% muslim converted muslim hain jo hindu se muslim bane...kyuki unme wo buta nahi tha ki wo khade ho sake aur unhone apne dharm aur desh se gaddari karke musalman dharm swikar kia
to agar 95% muslim apna dharm chhod sakte hain ya desh se gaddari karke akramankariyo ka sath de sakte hain wo kya hue....SIRF EK GADDAR DESH KE BHI AUR DHARM KE BHI
abhi tak ka itihas hai baap ko, bhai ko mar dia tum logo ne kyu kewal satta ke liye to tum kya hue.
tumhare liye maa se bada allah hai...are jab tum apni janni maa ke hue nahi to tum kya khak kisi aur ke hoge desh ki to bat hi chhod do
jaha kahi musalman bahutayat me paye jate hain us gali se gujarna muskil hota hai kyuki itni sadandh hoti hai...kyu kyuki aajbhi salike se rahne nahi aaya hai musalmano ko
Hindustan ke sabhi dango ka itihas utha kar dekho 95% dange musalmano ke chalte hue ya musalmano ne hi shuru kiye...atatai shuru se hi the tum log wahi karna chahte ho
Ladkiyan to tumhe har jagah chahiye yaha tak ki swarg me hbi kuwari hure chahiye...kya isi liye musalman bane ho taki marne ke bad huro ke sath rangraliya manao...apni bahan ke sath manane ke bad
AKHIR JAISI SURAT WAISI HI TO SIRAT RAHEGI
GANDUNATH ! GAAND MEIN RAHKAR GU KHA RAHA HAI
ReplyDeletehttps://scontent-b-sin.xx.fbcdn.net/hphotos-xfp1/t1.0-9/1937448_255962161264555_3015990446688061592_n.jpg
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