Hindi Book "महेन्द्रपाल आर्य बनाम कथित महबूब अली" के द्वारा उठाई गयी आपत्तियों की विश्लेषणात्मक समीक्षा
लेखकः
डा. मुहम्मद असलम कासमी
Ph.D.
फोनः 9837788115
E-mail: dr_aslam.qasmi@yahoo.com
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पुस्तकः हकप्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश
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प्रकाशित:
सनातन सन्देश संगम
मिल्लत उर्दू एकेडमी, मौहल्ला सोत, रुड़की, उत्तराखंड
HIndi PDF Book Links महेन्द्रपाल आर्य बनाम कथित महबूब अली के द्वारा उठाई गयी आपत्तियों की विश्लेष्णात्मक समीक्षा
http://www.mediafire.com/view/q9waa7j9278ccw7/aslam_qasmi_rep_Mahendra_pal_Arya.pdf
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http://www.scribd.com/doc/148479080/Aslam-Qasmi-Reply-Mahendra-Pal-Arya
दो शब्द
आज़ादी के बाद भारतीय मुसलमानों को जहाँ कई प्रकार की समस्याओं का सामना है वहीं एक यह भी है कि एक विशेष मानसिकता के लोग इस्लाम और मुस्लमानों पर झूठे और बेतुके इल्जामात लगाकर उन्हें मानसिक उलझनों का शिकार रखना चाहते हैं। जिहाद सम्बन्धित कुरआन-ए-करीम की कुछ आयतें इनके खास निशाने पर रही हैं। इस तरह के आरोपों के कई प्रकार से उत्तर दिये जा चुके हैं स्वयं एक स्वामी ‘‘लक्षमी शंकर आचार्य’’ जिन्होंने कुरआन की ऐसी ही आयतों पर आधारित एक पुस्तक लिखी थी परन्तु जब उनके सामने सच्चाई पेश की गयी तो उन्हें अपने किये पर खेद हुआ, और उन्होंने अपनी पुस्तक से दस्त बरदार होते हुए स्वयं उक्त आपत्तियों के उत्तर पर आधारित एक पुस्तक ‘‘इस्लाम आतंक या आदर्श’’ के नाम से लिखी जिसमें उन्होंने अपनी गलती को स्वीकार करते हुए अल्लाह और उसके रसूल से और मुसलमानों से क्षमा याचना की है, और अपने ही द्वारा उठाये गये प्रश्नों के उत्तर स्वयं प्रस्तुत किये हैं। परन्तु अब शत्रु मानसिकता एक नया मोहरा लेकर आयी है। इस सरसरी लेख में उस नये मोहरे की वास्तविकता पर विचार किया गया है। अगर इस लेख में कहीं कोई बात वास्तविकता से हट कर दिखाई दे तो कृपया मुझे सूचित करें। मैं उसे वापस लेने को तैयार हूं ।
- डा. मुहम्मद असलम कासमी
मोबाईल फोन: 9837788115
मिल्लत उर्दू एकेडमी, मौहल्ला सोत, रुड़की
पंडित महेन्द्रपाल आर्य का लिखा आपत्ति पत्र ‘‘कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं’’ के शीर्षक का एक पत्रक मानवाधिकार आयोग के एक मेम्बर द्वारा प्राप्त हुआ, उन्होंने बताया कि यह पत्रक आयोग को डाक द्वारा मिला था। उस में जो आपत्ति जताई गई है वह कोई नई बात नहीं है। इस तरह की आपत्तियां इन्टरनेट पर काफी दिनों से मौजूद हैं जिनका भिन्न-भिन्न स्तरों से जवाब भी दिया जा चुका है। यों भी यह वही बातें हैं जो गत सैकडों वर्षों से इस्लाम विरोधी जताते रहे हैं और उस के अनेक बार अनेक लोगों की ओर से संतोषजनक और स्पष्ट उत्तर दिये जा चुके हैं। मुझे यह पत्र पहली बार प्राप्त हुआ है मैं भी पंडित महेन्द्र पाल के समक्ष उत्तर प्रस्तुत करुंगा, परन्तु एक बात का विश्लेषण आवश्यक है। वह यह कि महेन्द्रपाल की ओर से यह भ्रम फैलाया जा रहा है कि वह पूर्व में मौलवी महबूब अली थे, केवल मौलवी ही नहीं अपितु हाफिज-ए-कुरआन भी थे। ज्ञात हो कि मौलवी वह होता है जिसे कुरआन, हदीस, फिका, तफसीर, अकाइद, इल्म-ए-कलाम, मन्तिक, फलसफा आदि का पूर्ण ज्ञान हो। यह सब ज्ञान अरबी भाषा के माध्यम से प्राप्त किया जाता है। अतः एक मौलवी अरबी भाषा का पूर्ण ज्ञानी होता है। यह कोर्स करीब पन्द्रह वर्षो का है।
- आर्यसमाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती की पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश के चौदहवें अध्याय का अनुक्रमिक तथा प्रत्यापक उत्तर(सन 1900 ई.). लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
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मुकददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल . amazon shop लेखक: मौलाना सनाउल्लाह अमृतसरी
- '''रंगीला रसूल''' १९२० के दशक में प्रकाशित पुस्तक के उत्तर में मौलाना सना उल्लाह अमृतसरी ने तभी उर्दू में ''मुक़ददस रसूल बजवाब रंगीला रसूल'' लिखी जो मौलाना के रोचक उत्तर देने के अंदाज़ एवं आर्य समाज पर विशेष अनुभव के कारण भी बेहद मक़बूल रही ये 2011 ई. से हिंदी में भी उपलब्ध है। लेखक १९४८ में अपनी मृत्यु तक '' हक़ प्रकाश बजवाब सत्यार्थ प्रकाश'' की तरह इस पुस्तक के उत्तर का इंतज़ार करता रहा था ।
मुझे असल इसी विषय पर बात करनी है मगर पहले उनकी आपत्तियों पर चर्चा करते हैं क्योंकि महेन्द्र पाल जी के मशहूर प्रश्नों जैसे के भिन्न-भिन्न विद्वानों के द्वारा कई-कई बार उत्तर दिये जा चुके हैं। इसलिये हम यहाँ पर सूक्ष्म शब्दों में उन के प्रश्न का उत्तर देते हुए या यों कहा जाए कि उनकी गलत फहमी को दूर करते हुए दूसरे विषय पर चर्चा करेंगे।
पहले उनकी गलत फहमी का समाधान
उन्हें गलत फहमी है कि कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं और इसी शीर्षक से उनका उक्त वर्णित पत्रक भी है। हमने इस पुस्तक के अंत में उनके पत्रक के शीर्षक वाले पृष्ठ को इस पुस्तक के पृष्ठ न. 45 पर दिया है। इस पत्रक में वह सबूत के तौर पर कुरआन की कुछ आयतें प्रस्तुत करते हैं। जिन आयतों पर उन को एतराज है हम उनको आगे नकल करेंगे परन्तु इस से पहले महेन्द्रपाल जी से इन आयतों के सम्बन्ध में कहना चाहेंगे के महाशय! आप तो (अपने दावे के अनुसार) सनद याफ्ता मौलवी हैं तो यकीनन यह तो आप जानते ही होगे कि कुरआन की हर आयत का एक बैकग्राउंड या पस-ए-मंजर होता है जिसे कुरआन की इस्तिलाह में शान-ए-नज़ूल कहते हैं। जिसे जाने और समझे बिना कुरआन पर प्रश्न चिन्ह लगाना स्वंय महेन्द्र जी पर इस बात का प्रश्न खड़ा करता है कि क्या उन्हें यह मान लिया जाए। कि वह भूतकाल में महबूब अली थे या इस से भी बढ़कर मौलवी महबूब अली थे।
कुरआन का अवतरण लगभग 23 वर्षो में परिस्थिति के अनुसार हुआ वे आयतें जिन पर महेन्द्र जी को ऐतराज है वे नबुव्वत मिलने के दस वर्ष बाद जब आप मक्का छोड़ कर मदीना चले गये उनका नुज़ूल तब आरम्भ हुआ और इस प्रकार की आयतें जो करीब डेढ़ दर्जन हैं वे लगभग 15 वर्षो की लम्बी अवधि में समय अनुसार नाज़िल हुईं। इसलिये कुरआन की एक एक आयत को समझने के लिये हजरत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी को जानना आवश्यक है। श्री महेन्द्रपाल जी अगर अपने दावे के अनुसार पहले मौलवी महबूब अली थे तो हम उन से यह कैसे आशा कर सकते है कि वह मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी या कुरआनी आयतों के शान-ए-नुजूल से परिचित नहीं होंगे। परन्तु जो व्यक्ति हजरत मुहम्मद सल्लललाहु अलैहिवसल्लम की जीवनी व कुरआनी आयतों के शान-ए-नुजूल से परिचित होते हुये कुरआन की उक्त आयतों पर प्रश्न खड़ा करें। हम उसे अपने दिमाग का इलाज कराने की सलाह देंगे। यह केवल हमारा निर्णय नहीं। हम इसे पाठकों की अदालत में रखते हैं। वे स्वयं समझें और निर्णय लें और महेन्द्र जी के हाल पर विलाप करें ।
मुहम्मद सल्लललाहु अलैहि वसल्लम की जीवनी एक खुली किताब की मानिन्द है केवल मुसलमान ही नहीं अपितु कोई पढ़ा लिखा गैर मुस्लिम भी शायद ऐसा न होगा जो इस बात से परिचित न हो। कि मुहम्मद साहब मक्का नामक शहर में पैदा हुए थे और उन्होंने वहाँ पर इस्लाम धर्म का प्रचार शुरु किया तो मक्के वाले उनके शत्रु बन गये और उनको और उनके अनुयाइयों को यातनाएं देने लगे। यहां तक कि तीन वर्षों तक शत्रुपक्ष ने मुहम्मद सल्लललाहु अलैहि वसल्लम व उनके अनुयाइयों का पूर्ण रुप से बाइकाट भी किये रखा। जब यह यातनाएं बर्दाश्त से बाहर हो गईं तो मुहम्मद साहब ने आपने अनुयाइयों को मक्का छोड़ कर कहीं और चले जाने की सलाह दी और जब एक दिन मक्के वालों ने यह तय किया कि आज रात को वे सब एक साथ मिलकर (नऊजु बिल्लाह) मुहम्मद साहब का वध कर देंगे तो उन्हों ने स्वयं भी अपना शहर छोड़ दिया और जब वह अपने एक साथी के साथ रात के समय घर से निकले और शहर से बाहर जाकर जब उन्हांेने मदीने का रुख किया तो पीछे मुड़कर देखा और यह शब्द कहे, जो इतिहास में सुरक्षित हैं।
‘‘मेरे प्यारे वतन मक्के नगर! मुझे तुझ से बहुत प्यार है अगर तेरे वासी मुझे यहां रहने देते तो मैं तुझे कभी न छोड़ता।’’और फिर आप मदीने की ओर चल निकले। यह बात नोट करने लायक है कि आप मक्का नगर छोड़ कर किसी करीबी स्थान पर नहीं रुके अपितु मक्के से करीब पांच सौ कि.मी. दूर मदीना शहर में जा कर निवास किया। मक्के वाले जो मुहम्मद साहब के घर का घेराव कर चुके थे जब उन्होंने देखा कि वे बच निकले हैं और उन के तमाम साथी मदीना पहुँच कर आराम से रहने लगे हैं तो उन्हों ने वहाँ भी मुसलमानों को तंग करने का प्रयास किया। अतः पहले उन्होंने मदीने वालों को आपके विरुद्ध उकसाना चाहा। इसमें कामयाब न हुए तो स्वयं लाव-लश्कर लेकर मदीने पर चढ़ाई के लिए निकल पड़े। मक्के वालों की मदीने पर पहली चढ़ाई में मक्के वालों की ओर से करीब सात सौ व्यक्तियों ने भाग लिया जबकि मदीने में मुसलमानों की कुल संख्या उन से लगभग आधी थी। यहां से उन आयतों का अवतरण आरम्भ हुआ जिनसे महेन्द्र जी के दिल की धड़कनें बढ़ गयीं।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि मक्के वालों ने मदीने पर तीन बड़े आक्रमण किये। पहला हिजरत से दूसरे वर्ष, दूसरा हिजरत से तीसरे वर्ष और तीसरा हिजरत के चौथे वर्ष, अतः कुरआन की निम्न आयतें जिन पर महेन्द्र जी ने ऐतराज किया है, वे भी स्थिति के अनुसार समय-समय पर नाज़िल होती रही हैं। यहाँ तक कि कुछ आयतें हिजरत से आठ-दस वर्ष बाद फतह मक्का के समय भी नाज़िल हुईं।
अब कुरआन की वे आयतें देखें -
1. जिन लोगों को मुकाबले के लिये मजबूर किया जा रहा है और उन पर जुल्म ढ़ाये जा रहे हैं अब उन्हें भी मुकाबले की इजाजत दी जाती है क्योंकि वह मजलूम हैं। यह इजाजत उन के लिये है जिन्हें नाहक उनके घरों से निकाला गया। सिर्फ इस लिये कि वे कहते थे कि हमारा परवरदिगार अल्लाह है (सूरह हज 49)
2. और उन से लड़ो जहां भी वे मिलें और उन्हें निकाल बाहर करो वहां से जहां से उन्होंने तुम्हें निकाला था औैर फितना बरपा करना कत्ल से भी बढ़ कर है और तुम उन से मस्जिद हराम के पास मत लड़ना जब तक वह तुम से न लड़ें।(सूरह बकर 119)
3. फिर अगर वह लोग बाज़ रहें तो बेशक अल्लाह बड़ा बख़्शने वाला मेहरबान है (सूरह बकर 192)
4. क्या तुम नहीं लड़ोगे उनसे जिन्होंने सन्धि को तोड़ा और मुहम्मद साहब को निकाल बाहर करने के लिए तत्पर रहे, क्या तुम उन से डरते हो? अगर तुम इमान रखते हो तो ईश्वर इस बात का अधिक योग्य है कि तुम उस से डरो। लड़ो उन से ईश्वर तुम्हारे हाथों उन्हे दंड दिलवायेंगे उन्हें ज़लील करेंगे और तुम्हारी सहायता करेंगे- (सूरह तोबा, आयत 13, 14)
5. हे नबी। इमान वालों को युद्ध करने के लिये आमादा करो यदि तुम में से बीस भी डटे रहने वाले होंगे तो वे 200 पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे, यदि सौ ऐसे होगें तो वे 4000 पर भारी रहेंगे (सूरह अनफाल, आयत 65)
हम इन आयतों के हवाले से महेन्द्र जी से कहना चाहेंगे कि पंडित महाश्य ज़रा इन कुरआन की आयतों का अन्दाज़-ए-ब्यान तो देखिये -
1. और निकाल बाहर करो उन्हें वहां से जहां से उन्हों ने तुम्हें निकाला था, आप जानते है कि मक्के वालो ने मुहम्मद साहब और उन के साथियों को निकाला था, अतः ज़ाहिर है कि यह उसी के दृष्टिगत है तो महेन्द्रपाल जी आपको क्या परेशानी हुई?
2. लड़ो उन से जिन्हों ने सन्धि को तोड़ा है।
इस्लामी इतिहास का एक मामूली विद्यार्थी भी इस बात को जानता है कि सन सात हिजरी में मुहम्मद साहब और मक्के वालो के बीच एक सन्धी हुई थी जो मुसलमानो की ओर से बेहद दबकर की गई सन्धि थी। इसमें सारी बातें , सारी शर्तें, मक्के वालों की मानी गई थी। शर्तें भी एक तरफा थीं। विस्तार से ब्यान करने का मौका नहीं परन्तु एक उदाहरण देखिये-उसमें मक्के वालों ने शर्त रखी थी कि अगर हमारा कोई आदमी मुसलमान बन कर आपके पास आता है तो आप को लौटाना होगा, परन्तु अगर तुम्हारा आदमी हमारे पास आता है तो हम उसे नहीं लौटाएंगे - इस प्रकार की करीब एक दर्जन शर्तें मक्के वालों की मुहम्मद साहब ने स्वीकार की थी और इस के बदले अपनी केवल एक शर्त मनवायी थी वह क्या थी उसे भी देखिए।
मुहम्मद साहब ने मक्के वालों से केवल एक बात की गारंटी चाही थी। वह यह कि मक्के वाले मुसलमानों पर अगले दस सालों तक न तो कोई आक्रमण करेंगे न किसी आक्रमण करने वाले का साथ देंगे।
लेकिन दुर्भाग्य से मक्के वालों ने इसका एक वर्ष तक भी निर्वहन नहीं किया। उक्त आयत में इसी सन्धी को तोड़ने का जिक्र है परन्तु महेन्द्र जी! आपने तो किसी सन्धी को नहीं तोड़ा है। फिर आपको क्यों चिंत्ता हो रही है?
जिस व्यक्ति के सामने कुरआन की आयतों के यह पसमंजर हों और फिर भी वह किसी आयत पर आपत्ति जताये, ऐसे व्यक्ति के बारे मे यही कहा जा सकता है कि वह या तो एक समुदाए के लोगों को समुदाय विशेष के विरुद्ध भड़काकर अपने स्वार्थ की दुकान चलाना चाहता है और या उसका दिमागी तवाज़ुन बिगड़ चुका है और या फिर उसने कुरआनी आयत के पसमन्ज़र को जाने बगैर उसका सरसरी अध्ययन किया है, परन्तु महेन्द्र पाल तो मौलवी थे उनसे यह आशा कैसे करें। अतः स्पष्ट है कि पहली दो बातों में से कोई एक उन पर लागू होती है।
आयत न. 2 और 3 को एक बार फिर पढ़िएः
यह आयतें महेन्द्र जी के पत्रक के पृष्ठ न. 5 पर अंकित की गयी हैं।
जब मुहम्मद साहब अपने हजारों साथियों के साथ हिजरत के दस्वें वर्ष मक्के में दाखिल हुये इस मौके पर कोई युद्ध नहीं हुआ ना ही मक्के वालों की ओर से कोई खास विरोध की स्थिति सामने आयी परन्तु आप उन आयतों की शब्दावली देखिये जो इस मौके पर नाज़िल हुयीं।
उन्हें वहाँ से निकाल दो जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला था -
और तुम उन से मस्जिद-ए-हराम के पास मत लड़ना -
इस में मक्के वालों के लिये एक पैग़ाम था कि अगर वे युद्ध न चाहें तो मस्जिद-ए-हराम में दाखिल हो जायें।
यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि यहाँ जिस मस्जिद में और उसके आस-पास लड़ने को मना किया जा रहा है वह उस समय मक्के वालों के ही कबज़े में थी ।
अब इस मोके पर मुहम्मद साहब ने जो घोषनाएं की वह भी देखें: -
आप ने ऐलान कराया जो मस्जिद के पास चला जाये, उसे कुछ न कहा जाये जो अपने घर के दरवाजे बन्द कर ले उसे न छेड़ा जाये और जो अबूसुफयान के घर में घुस जाये उसे कुछ न कहा जाये।
अबू सूफयान कौन थे?
मुहम्मद साहब व उनके साथियों से मक्के वालों के जितने भी युद्ध हुये हैं उन में से एक को छोड़ बाकी सभी की कमान अबू सुफयान के हाथ में रही है। क्या संसार का इतिहास कोई एक ऐसा उदाहरण पेश कर सकता है कि जिस में शत्रु फौज के कमान्डर को यह सम्मान दिया गया हो कि अगर कोई उस के घर में घुस जाये तो उस की जान बच जायेगी।
यहाँ मैं एक विशेष बात कहना चाहूंगा ।
अकसर कहा जाता है कि मुसलमान बड़ा जज़बाती होता है और वह अपने धर्म या धर्म प्रवर्तक के बारे में कुछ भी सुनने की सहनशीलता नहीं रखता ।
हाँ यह बात सही है परन्तु उसका कारण स्वभाविक है। जिसका धर्म प्रवर्तक ऐसा हो जैसा ऊपर बताया गया फिर भी कोई उस पर यह इलजा़म लगाये की उनके यहाँ गैर मुस्लिमों को जीने का हक़ नहीं तो अनुयाइयों का जज़बाती होना स्वाभाविक होता है।
श्री महेन्द्र जी ने सूरह अनफाल की आयत न. 65 का वर्णन किया है, जिसमें कहा गया है कि लड़ो उन से तुम्हारे बीस उनके दो सौ पर भारी रहेंगे और तुम्हारे सौ उनके चार हजार पर प्रभुत्व प्राप्त करेंगे। कुरआन में जहाँ यह आयत है वहीं दो आयतों के अन्तर पर निम्न आयतें भी है।
और अगर शत्रु (युद्ध के बीच) सुलह/सन्धि की ओर झुके तो तुम भी सुलह कर लेना और ईश्वर पर भरोसा करना वह सब कुछ सुनता और जानता है। यहाँ तक कि अगर उनका (शत्रु पक्ष) इरादा धोखे का हो (तो भी परवाह न करना) तुम्हारे लिए ईश्वर काफी है। (सूरह अनफाल आयत न. 61-62)
एक दूसरे स्थान पर कुरआन में आदेश है कि
सुलह करना (बहरहाल लड़ाई झगडे़ से) बेहतर है। सूरह निसा 128
इस परिपेक्ष में महेन्द्र जी से पूछना चाहूंगा कि क्या इस्लाम और कुरआन पर उंगली उठाते हुए बिलकुल ही न सोचा? अरे भाई जो संविधान यहां तक सुलह पसन्द हो कि वह अपने अनुयाइयों को आदेश करे कि अगर सुलह के नाम पर शत्रु पक्ष धोखा देने का इरादा रखता हो तो भी तुम सुलह कर लेना क्योंकि शान्ति हर स्थिति में युद्ध से बेहतर है और जो संविधान धर्म के बारे में यह आदेश करे कि धर्म के सम्बन्ध में कोई जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती जो चाहे स्वीकार करे जो चाहे इन्कार करे। (सूरह बकर 256)
आप उसे यह इलजाम दें कि इस्लाम में गैर मुस्लिमों को जीने का हक़ नहीं? मैं तो आपके बारे में यही कह सकता हूं कि: शर्म आनी चाहिये नफरत के ऐसे पुजारियों को जो समाज के बीच नफरत का बीज बोकर उसके जहरीले फल शान्त समाज को खिलाना चाहते हैं।
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बहरहाल महेन्द्रपाल जी ने कुरआन को छोड़कर वैदिक धर्म को अपना लिया है तो आईए अब यह भी देखलें कि वेदों में गैर अनुयाइयों के बारे में क्या कहा गया है।
नम्बर 1
राजा प्रजा के पालने और बैरियों को मारने में उद्यत रहे - अथर्वेद 8-3-7
नम्बर 2
तुम बैरियों का धन और राज्य छीन लो - अथर्वेद 5-20-3
नम्बर 3
सज्जन पुरूष दुखदायी दुष्टों को निकालने में सदा प्रयत्न करे - अथर्वेद 12-2-16
नम्बर 4
है राजन प्रत्येक निंदक कष्ट देने वाले को पहुंच और मार डाल - अथर्वेद 20-74-7
नम्बर 5
तू वेद निंदक पुरूष को काट डाल, चीर डाल, फाड़ डाल, जला दे, फूंक दे, भष्म कर दे - अथर्वेद 5-12-62
नम्बर 6
वेद विरोधी दुराचारी पुरूष को न्याय व्यवस्था से जला कर भष्म कर दे - अथर्वेद 5-12-61
नम्बर 7
उस वेद विरोधी को काट डाल, उसकी खाल उतार ले, उसके मांस के टुकड़े को बोटी-बोटी कर दे, उसकी नसों को ऐंठ दे, उसकी हडिड़्यों को मसल डाल, उसकी मींग निकाल दे, उसके सब जोडों और अंगों को ढीला कर दे - अथर्वेद 12-5-65 से 71 तक
हम महेंद्रपाल जी को यह भी बता दें कि कुरआन के अनुसार शत्रु पक्ष से इस प्रकार के बरताओ की युद्ध क्षेत्र में भी अनुमति नहीं है।
यह तो वेदों की बात थी। गीता में एक पूरा अध्याय इसी विषय पर है। जिसमें श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने पर आमादा करते हैं। जबकि वह हथियार रख चुके थे परन्तु श्री कृष्ण ने उनसे कहा कि यह तो कायरता है तुम्हारा धर्म ही युद्ध करना है। युद्ध करो वरना अधर्म हो जाएगा तुम युद्ध में मारे गये तो स्वर्ग को प्राप्त होगे और अगर जीते तो दुनिया की दौलत पाओगे (मज़े की बात यह है कि कृष्ण जी जिन लोगों से युद्ध करने को कह रहे हैं उनके साथ स्वयं महाराज ने अपनी फौज खड़ी की हुई है) क्यों? क्या इसलिए कि जो भी जीते वही आभारी रहे?
नतीजा यह हुआ कि एक बड़ी भयानक जंग हुई जिसमें महाभारत के अनुसार एक अरब छियासठ करोड़ इन्सान मारे गए। मरने वालों में कुछ लोग कृष्ण जी के सेना के भी होंगे। अपने ही लोगों को अधर्मों की सफ में खड़ा करके मरवा डाला? यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि उक्त आयतों से संबन्धित इस्लामी जंगों में मारे जाने वालों की कुल संख्या दो सौ से अधिक नहीं है। और महाभारत में कुल कितने मारे गए यह अभी पढ़ा ही है।
और महेंद्र पाल जी! इस्लाम में तो केवल चंद आयतें ही युद्ध की प्रेरणा देती हैं वह भी कड़ी शर्तों के साथ केवल आत्मरक्षा में, मगर आपके यहां तो महाभारत और रामायण दो बड़ी धार्मिक इतिहास पुस्तकें ऐसी हैं जिनका आधार ही युद्ध है। और वेदों के मंत्र अलग रहे। इसे ही कहते हैं छाज बोले तो बोले, छलनी भी बोले। जिसमें बहत्तर छेद।
महेंद्रपाल जी के पत्रक का शीर्षक है ‘‘कुरआन में गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं’’ ।
यह शीर्षक जिसने भी लिखा है वह कोई अनपढ़, नासमझ और इतिहास के ज्ञान से नाबलद व्यक्ति ही हो सकता है। इस प्रकार की बातें लिखने, सोचने और कहने वालों को क्या यह मालूम नहीं कि भारत में कुरआन के मानने वालों ने कई शताब्दियों तक अपने आहनी पंजों से हुकूमत की है फिर भी मुसलमान यहां पर एक छोटी सी अल्पसंख्यक कम्यूनिटी है और महेंद्रपाल जी आप की मम्यूनिटी एक बहूसंख्यक वर्ग है। यह बात विचारणीय है कि अगर सैकड़ों साल कुरआन के मानने वालों ने यहां पर हुकूमत की है और आपके अनुसार कुरआन गैर मुस्लिमों को जीने का हक नहीं देता तो आप यह इल्जाम देने के लिए कैसे बचे रह गए.....?
किसी ने सही कहा है:
मौक़ा मिला जो लम्हों का अहसान फरोश को।
सदियों में जो किया था वो अहसान ज़द पे है।।
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अब हम उस विषय पर आते हैं जिस पर हमें वास्तव में बात करनी थी ।
इस परिपेक्ष में हम देखेंगे कि क्या वाकई महेन्द्रपाल महबूब अली थे और साथ ही मौलवी या हाफिज़ भी थे या वह केवल दूसरों को भ्रमित करने के लिये महज अफवाह फैला रहे हैं।
महेन्द्रपाल का आपत्ति पत्र 8 पृष्ठों का हिन्दी में टाइप शुदा है जिसमें कुरआन के हवाले हाथ के लिखे हुये हैं। यकीनन यह महेंन्द्र जी ने स्वयं लिखे होंगे क्योंकि वे अपने दावे के अनुसार मौलवी हैं और अगर किसी और से लिखवाये हैं तो भी महेंद्र जी ने इसे जारी करने से पहले गहराई से पढ़ा तो अवश्य होगा। उनका यह पत्रक इन्टरनेट पर गत कई वर्षों से मौजूद है।
प्रथम दृष्ट्या उनके पत्रक में स्वयं उनके हाथ की लिखी अरबी इबारत को देख कर नहीं लगता कि यह लेख किसी मौलवी या हाफिज़ का है। अधिक से अधिक उस का स्तर कक्षा 2 या 3 के छात्र का प्रतीत होता है उस में इमले व व्याकरण की बलन्डर त्रूटियां इस कदर हैं कि उन्हें देखकर लगता है कि ऐसा कथित मौलवी अगर मुसलमानों के बीच रहता तो उन्हें गुमराह करने के सिवा कुछ न कर सकता। महेन्द्रपाल के आठ पृष्ठों के पत्र के पहले पृष्ठ पर कुरआन के हवाले से चार आयतें लिखी हैं।
न. 3 पर यह इबारत है - (पी.डी.एफ फाइल पृष्ठ 18 पर चित्र देखें)
बॉक्स की इबारत महेन्द्रपाल के पत्रक के पहले पृष्ठ से ली गई है चलिये इसी इबारत पर महेन्द्रपाल के सही या गलत होने का फैसला हो जाये । वह इस प्रकार कि अरबी में लिखी जिस इबारत को जिस का मूल उच्चारण उन्होंने स्वयं अरबी इबारत के ऊपर और अनुवाद नीचे दिया है। और उसे कुरआन की आयत कहा है। वह इस इबारत को कुरआन के तीस पारों मे कहीं दिखा दें तो उनकी सारी बातें सही। वरना उन्हें और उनके भक्तों को यह मान लेना चाहिए कि वह समाज को धोखा दे रहे हैं।
उन्होंने ने उक्त अरबी इबारत का अनुवाद यह किया है - एक इस्लाम ही हक है और सब कुफ्र हैं, सब को बातिल किया। यह अरबी भाषा के ज्ञानी बताएंगे कि क्या यह अनुवाद सही है? इस इबारत का सही अनुवाद यह है- इस्लाम हक़ है और कुफ्र बातिल है, यह तो अरबी जानने वाला व्यक्ति ही समझ सकता है कि जो अनुवाद महेन्द्रपाल ने उक्त इबारत का किया है ऐसे व्यक्ति को क्या मौलवी तसलीम किया जाए। या मौलवियत के नाम पर दाग? जिस व्यक्ति ने एक या दो दर्जा ही अरबी पढ़ी हो वह अवश्य इस प्रकार का अनुवाद कर सकता है। मेहन्द्रपाल जी जिस प्रकार की अरबी लिखते हैं या अरबी का अनुवाद करते हैं उसे देख कर लगता है कि किसी गैर मुस्लिम ने बोझल मन से इस्लाम पर एतराज करने के लिये अरबी सीखी है मैं कई ऐसे गैर-मुस्लिम भाईयों को जानता हूं जिन्हों ने शोकिया या उर्दू अध्यापक की नौकरी पाने के लिये उर्दू सीखी है। परन्तु इस प्रकार कोई भाषा सीखी जाए कि न तो उसे पूरा समय दिया जा सके और न ही पूरे मन से उसे सीखा जाए, ऐसे व्यक्तियों द्वारा सीखी गई कोई भी भाषा पुख्ता नहीं हो सकती। उस व्यक्ति के बारे में आपकी क्या राय है? जो अंग्रेजी शब्द Station को istashan लिखे या Light को Lait या High को Hai लिखे। बस यही हाल बल्कि इससे भी अधिक बुरा हाल महेन्द्रपाल का है उन्हों ने इसी प्रकार के कुछ प्रश्न इन्टरनेट पर डाले थे जिसका कई लोगों ने उत्तर दिया है। इस को विस्तार से www.islamhinduism.com पर देखा जा सकता है। यह उसी पत्रक की नकल है जिसका हमने चर्चा किया उसे देखिए और महेन्द्रपाल जी के हाल पर मातम कीजिए, उस में महेन्द्रपाल जी ने कुरआन की एक आयत लिखी है आयत है अत्तलाकु मर्रतान, इसमें शब्द -अत्तलाकु
मर्रतान को महेन्द्र पाल जी ऐसे लिखते हैं اطلاقُ - (पी.डी.एफ फाइल पृष्ठ 20 पर चित्र देखें)
जब कि इस का सही लिखित रुप है الطلاقُ इस में दो अक्षर अलिफ और लाम जो लिखे तो जाते हैं पढने में नहीं आते वह महेनद्रपाल जी भूल गये है ऐसी बलन्डर त्रूटी कक्षा 2 का छात्र ही कर सकता है। एक मौलवी से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती ।
महेन्द्रपाल के कलम का एक कारनामा और देखिये।
उन्हें कुरआन की एक अन्य आयत पर भी एतराज़ है। आयत है ‘‘इन्नससलाता तन्हा अनिल फहशाइ वल मुनकर’’ वह इसे
इस प्रकार लिखते है عنل فحشاء अनिलफहशाइ
का शब्द दो लफ्ज़ों से मिलकर बनता है, एक अन दुसरा अलफहशाइ इसको जब अरबी में लिखा जाता है तो दोनों शब्द अपनी असली सूरत में लिखे जाते हैं। यानि अन अलग और अलफाहशाइ अलग عن الفحشاء लेकिन दोनों को मिलाकर अनिलफाहशाइ पढ़ा जाता है। महेन्द्र पाल जी ने अन और अल को एक साथ लिखा है और फहशा को अलग लिखा है, ऐसी शाब्दिक गलती एक मौलवी से? ....... खुदा खैर करे।
इसी तरह उनका رَؤف بالعباد को رَء وفم بلعباد लिखना और فیھا को فی ھا लिखना من دون المؤمنین को من دونِل مومنین लिखना उनकी योग्यता को दर्शाता है। - (पी.डी.एफ फाइल पृष्ठ 18 पर चित्र देखें)
उनकी लिखी इबारत को पढ़कर एक पढ़े लिखे इन्सान को केवल हंसी आ सकती है और महेन्द्रपाल के रवैये पर अफसोस ही किया जा सकता है।
हम यहाँ पर महेंद्रपाल जी के हाथ की लिखी पाँच छोटी-छोटी आयतें दे रहें हैं यह पाँच छोटी आयतें दो लाइनों में लिखी जा सकती हैं। इन दो लाइनों में महेंद्रपाल जी ने इमले की दस बलंडर गल्तियां की हैं जिन्हें अरबी भाषा का प्राथमिक विद्यार्थी भी पहली नजर में पकड़ लेगा और महेंद्रपाल जी के कलम के कारनामे पर अपनी हंसी रोक नहीं पाएगा। और अगर उसे यह भी बता दिया जाए कि इन महाशय ने विश्व प्रसिद्ध इस्लामिक विद्वान जाकिर नायक को शास्त्रार्थ के लिए चैलेंज भी किया हुआ है तो वह कहकहा लगाने पर मजबूर हो जाएगा।
महेन्द्रपाल की एक बलन्डर त्रूटी और देखिये, वह अपने अपत्ति पत्र के पृष्ठ न. 6 पर लिखते है हदीस छ: 6 हैं, जबकि हदीस छः नही छः हजार से भी ज्यादा हैं। परन्तु चलिये उनकी इस गलती को हम तसामोह अर्थात अनजाने में हुयी गलती मान लेते हैं और देखते हैं कि इससे उनका तात्पर्य कुछ और तो नहीं। एक विकल्प तो यह है कि शायद वह कहना चाहते हैं। कि हदीस की किताबें छः हैं परन्तु ऐसा भी नहीं, हदीस की सैकडों किताबें मौजूद व मशहूर हैं एक आखरी विकल्प जो अधिक सत्य मालूम पड़ता है यह है कि वह ‘‘सिहा सित्ता’’ का वर्णन करना चाहते हैं।
सिहा सत्ता क्या है?
सिहा के मायने, सही और सित्ता के मायने छः के हैं और यह इल्म-ए-हदीस की एक इस्तलाह है। यह शब्द हदीस की उन छः किताबों के लिये बोला जाता है जिनको अधिक महत्व प्राप्त है और वह दर्स-ए-निजामी अर्थात मौलवी के कोर्स में शामिल हैं।
बस हमें यहीं पहुँचना था । प. महेन्द्रपाल ने जिन किताबों के नाम गिनवाए हैं उन में मिशकात शरीफ का नाम भी शामिल किया है। यही बात खास है।
जिसने हदीस की कोई एक किताब भी खोलकर भी देखी हो वह हदीस 6 होने का दावा नहीं कर सकता, न ही हदीस की 6 किताबें होने का दावा कर सकता। हाँ यह मुमकिन है कि अधकचरे ज्ञान वाला सिहा सित्ता का वर्णन करे और मिशकात को उस फहरिस्त में शमिल कर दे, परन्तु किसी मौलवी से ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। कि वह सिहा सित्ता में मिशकात का नाम लिखे। सिहा सित्ता मौलवी के कोर्स के अन्तिम वर्ष में एकसाथ पढ़ाई जाती हैं पूरे भारत में मिशकात को सिहा सित्ता के साथ कहीं भी नही पढ़ाया जाता अतः यह बात गारन्टी से कही जा सकती है कि जो व्यक्ति सिहा सित्ता मे मिशकात को शरीक बतलाए जिसका कलम
رَؤف بالعباد को رَء وفم بلعباد और فیھا को فی ھا लिखे من دون المومنین को من دونِل مومنین
लिखे और تنہیٰ को تَنْہَ -
والمنکر को ولمنکر ,
لایتخذُ المومنُ को لایتخزُ المومنو लिखे, वह कुछ भी हो सकता है मौलवी नहीं हो सकता। - (पी.डी.एफ फाइल पृष्ठ 22 पर चित्र देखें)
इन बातों के दृष्टिगत यह पूरे भरोसे और शतप्रतिशत यकीन से कहा जा सकता है कि महेन्द्रपाल का यह दावा कि वह मौलवी थे निराधार, बेतुका और निरा झूठ है। बल्कि हमें तो इसमें भी शक है। कि वह महबूब अली थे।
उनका मूल निवास स्थान कलकत्ता है। इस समय वह दिल्ली में रहते हैं और आर्य समाज के प्रचारक हैं। दिल्ली में रहने वाले किसी व्यक्ति का मूल पता कलकत्ते जैसे बडे़ और दुर्गम शहर में तलाश करना बड़ा कठिन कार्य है। परन्तु हम यह जानते है कि बंगला भाषी कलकत्ता शहर का मूल निवासी कितना ही बड़ा विद्वान क्यों न बन जाये बंगाली भाषा का असर उस की जुबान से कभी नहीं जाता इस की उचित मिसाल हमारे राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी है जिनकी अग्रेजी भी बंगाली नुमा होती है। दूसरी ओर महेन्द्रपाल जी है जो अपने भाषण में जिस प्रकार की शुद्ध हिन्दी का प्रयोग करते हैं उसे सुनकर लगता है कि वह दिल्ली के आस-पास किसी हिन्दी भाषी क्षेत्र के निवासी हैं कम से कम उनकी भाषा शैली से यह तो बिल्कुल नहीं लगता कि वह बंगाली हैं।
श्री महेन्द्रपाल का दावा है कि उन्होंने दिल्ली के मदरसा अमीनिया से आलिम (मौलवी कोर्स) से फरागत हासिल की है। उक्त से यह तो साबित हो गया है कि वह किसी मदरसे से सनद याफ्ता आलिम नहीं हो सकते हाँ यह मुमकिन है कि किसी महेन्द्रपाल ने फर्जी नाम महबूब अली रख कर किसी मदरसे में दाखिला ले लिया हो और एक या दो वर्ष अरबी भाषा व आलिम (मौलवी का कोर्स) की शिक्षा प्राप्त की हो। जबकि यह कोई नयी बात नहीं, ऐसी और भी मिसाले सुनने में आती रही हैं और जासूस बनकर मस्जिदों में इमामत कराने की तो बहुत सी मिसालें सामने आ चुकी हैं। महेन्द्रपाल तो किस खेत की मूली हैं। योरोपीय देशों में इस्लामी शिक्षा के बड़े-बड़े गेर मुस्लिम विद्वान हुये हैं। जिन्हें इस्लामी इस्तलाह में मुशतशरिक कहा जाता है। अरबी भाषा की एक महत्वपूर्ण डिक्शनरी अलमुनजिद एक ईसाई मुशतशरिक की लिखी हुयी है। सिहा सित्ता (हदीस की छः बड़ी किताबें)की कुल हदीसों को अरबी अलफाबेट्स की श्रंखला के अनुसार जमा करने का कार्य भी एक योरोपीय मुशतशरिक ने किया है। शायद महेन्द्रपाल भी उन्हीं की चाल चले हैं परन्तु कव्वा चला हंस की चाल तो अपनी चाल भी भूल गया के अनुसार बिना मेहनत मुशक्कत के साल दो साल किसी मदरसे मे धोखा देकर रहे और आंजनाब का इमला तक सही न हो सका। ऐसे व्यक्ति को क्या हक है कि वह कुरआन का अनुवाद करे और उलटा सीधा आक्षेप कुरआन पर लगाये।
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यह तो महेन्दर पाल जी की योग्यता का विश्लेषण था। आइये एक और दृष्टिकोण से इन महाशय का विश्लेषण करते हैं।
महेन्द्रपाल जी स्वयं को पंडित लिखते हैं और पंडिताई का कार्य करते हैं। उनके कहने के अनुसार वह पहले मुसलमान थे फिर वह हिन्दू धर्म के अनुयाई बन गये। हिन्दू धर्मानुसार पंडिताई का कार्य केवल ब्राह्मण कर सकता है। और ब्राह्मण जन्म जात होता है भारत में जो जाति प्रथा है। उस में यों ही कोई एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति का सदस्य नहीं बन सकता। हिन्दू धर्म की महत्वपूर्ण ग्रन्थ वेद एवं मनुस्मृति हैं उनके अनुसार हिन्दू समाज चार खानों में विभाजित है ब्राह्मण , क्षत्रिय, वेशः एवं शूद्र। इनके अतिरिक्त जो भी हैं वे मलेच्छ (नापाक और अपवित्र) हैं इस व्यवस्था में धर्म की शिक्षा प्राप्त करना और शिक्षा देना केवल बृहमण का कार्य है। और शूद्र अगर शिक्षा प्राप्त करे तो उस के लिये कड़ी सजा का प्रावधान है। यहाँ प्रश्न यह है कि महेन्द्रपाल जब महबूब अली से महेन्द्रपाल बने तो उन्होंने कौन सा वर्ण ग्रहण किया। वह पहले मलेच्छ थे अर्थात शुद्र से भी नीचे। उन्होंने अपना शुद्धिकरण कराया, तो भी वे अधिक से अधिक शुद्र की श्रेणी में आ सकते थे। क्यों कि ‘‘तोहफतुल हिंद’’ के लेखक जिनका पहला नाम ‘‘अनंत राम’’ था और उन्होंने इस्लाम कुबूल करने के बाद अपना नाम मुहम्मद उबैदुल्लाह रखा उन्होंने अपनी मशहूर किताब ‘‘तोहफतुल हिंद’’ में कर्मव्याक के हवाले से लिखा है कि अगर कोई शुद्र पुन्य के कार्य करे तो वह अगले जन्म मे वेशः की योनी में जाता हैं और अगर कोई वेशः पुनः के कार्य करे तो व क्षत्रीय की योनी में। ऐसे ही क्षत्रिय ब्राह्मण की योनी में और ब्राह्मण पुन्य करे तो उसकी मुक्ति हो जाती है।
परन्तु यह व्यवस्था तो मरनोपरान्त की है, प्रश्न यह है कि महेन्द्रपाल जी जीते जी ब्राह्मण कैसे बन गये हैं।
यहाँ पर एक विकल्प और भी है उसे समझने के लिये हमें जानना होगा कि भारत में दो प्रकार के मुसलमान पाये जाते हैं अधिक संख्या तो उनकी है जो यहीं के मूल निवासी थे और यहां किसी जाति से सम्बन्धित थे, दूसरे जो (कम संख्या में हैं) वह बाहर से आये हुये हैं जो हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार मलेच्छ थे जिनका वर्णन ऊपर किया गया। अगर महेन्द्र पाल जी इसी दूसरे वर्ग से थे तो उन्हें यह अधिकार किसने दिया कि वह हिन्दू बनते ही उस के उच्च और स्वर्ण वर्ग में जा बैठें। और अगर वह मुसलमान रहते, पहले वर्ग से अर्थात उस वर्ग के मुसलमानों में से थे जो यहीं के मूल निवासी हैं तो यकीनन वह यहाँ की किसी न किसी जाति से सम्बन्धित रहे होंगे और उस में ब्राह्मण जाति भी हो सकती है। परन्तु यहां हमें यह याद रखना होगा कि भारतीय मुसलमानों में वे सभी जातियाँ पाई जाती है जो हिन्दुओ में हैं उदाहरण के बतोर जाट हिन्दू भी हैं मुसलमान भी हैं गुर्जर हिन्दू भी मुसलमान भी हैं। परन्तु कहीं ऐसा अवश्य हुआ है कि किसी जाति ने मुसलमान होकर अपने जाति सूचक शब्द का उर्दू में अनुवाद करके उसे अपना लिया जैसे कुम्हार जिसका कार्य बर्तन बनाना है जब इस जाति के लोग मुसलमान हुये तो वह कूज़गर कहलाये इस का अर्थ भी वही होता है यानी बर्तन बनाने वाला-तात्पर्य यह कि हर वह जाति जो हिन्दू समाज में पायी जाती हैं। वही सभी जातियां मुसलमानों में भी पायी जाती है। अर्थात यहां की सभी जातियों के कुछ न कुछ व्यक्तियों ने इस्लाम धर्म अवश्य कबूल किया है। परन्तु हमें यह भी याद रखना चाहिए कि भारत वर्ष की दो जातियाँ ऐसी है जो मुसलमानों में नहीं पायी जाती। स्पष्ट है कि उन जातियों ने इस्लाम धर्म कबूल नहीं किया होगा। वे दो जातियां हैं एक चमार और दूसरा ब्राह्मण। इस तथ्य के दृष्टिगत हम यह कह सकते हैं कि महेन्द्रपाल जी जो पूर्व में उनके कथनानुसार महबूब अली थे वह ब्राहमण समाज से कनवर्ट होकर बिलकुल नहीं आए थे कि घर वापसी के बाद वह ब्राह्मण(पंडित) बन गये। परन्तु महेन्द्रपाल जी ने तो हिन्दू धर्म स्वीकार करके पंड़िताई शुरु कर दी और इस प्रकार वह अधर्म के पात्र हुए।
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यह महेन्द्र जी की काबलियत पर विचार था। आइये इस बात पर विचार करते हैं कि उन्हांेने अपने बकौल जिस धर्म को छोड़ा है क्या वह अपने जीवन में उसे पूर्णतः छोड़ चुके हैं या अभी भी अपनी जीवन व्यवस्था उसी छोड़े हुये के अनुसार व्यतीत करने पर विवश हैं।
जैसा कि हम ने लिखा कि वह पंडित नहीं थे परन्तु पंडिताई का कार्य कर रहे हैं इस प्रकार वे हिन्दू धर्म के मूल सिद्धान्त से हट गये हैं।
इस पर वह कह सकते है कि आज का समय समानता का समय है अब हर व्यक्ति को यह अधिकर है कि वह कुछ भी करे कुछ भी पढे़ और किसी को पढ़ाए। धार्मिक शिक्षा प्राप्त करे और धर्मिक शिक्षा का दूसरों को ज्ञान दे। परन्तु यह तो आप जानते ही होगें कि यह शिक्षा इस्लाम की है और उसी ने सब से पहले इसे दुनिया के सामने रखा और संसार की तार्किक शक्ति, उसके विवेक और बुद्धि ने उसे पुणत: अपनाने और अपने जीवन में उतारने पर आप को विवश कर दिया है। और आप हैं कि इसे अपनाने पर मजबूर है जबकि यह हिन्दुत्व के बुनियादी सिद्धान्तों के विपरीत है।
केवल यह एक उदाहरण नहीं अपितु अपकी जीवन व्यवस्था का 95 प्रतिशत भाग ऐसा है जिसे आप इस्लामी कानून के अनुसार जीने पर मजबूर हैं। उस धर्म की शिक्षा, जिसको आपने अपनाया है और आप के गुरु स्वामी दयानन्द जी जो हिन्दुओं के लेटेस्ट रिफॉर्मर हैं उन्होंने लिखा है कि
शुद्र वेद का ज्ञान तो प्राप्त कर सकता है परन्तु उपनयन न करे-
सत्यार्थ प्रकाश, सम्मुलास 3
मैं आपसे से पूछना चाहूंगा कि क्या आप इस नियम को अमली जामा पहना पायेगे? बिल्कुल नहीं। अगर आप ऐसा करना चाहेंगे तो देश का कानून आप को ऐसा करने नहीं देगा और इस में जो कुछ आप स्वीकार करने पर मजबूर हैं वही तो इस्लामी शिक्षा है।
एक दूसरा उदाहरण देखें -
स्वामी दयानंद जी ने सत्यार्थ प्रकाश के चौथे सम्मुलास में करीब 10 पृष्ठों में इस बात का बखान किया है कि अगर कोई महिला बिना औलाद के विधवा हो जाए या किसी और कारण से उसको बच्चा न हो सका हो तो वे नियोग द्वारा बच्चा पैदा कर सकती है। मैं पूछना चाहूंगा कि अगर आपकी पत्नी को बच्चा पैदा न हो सके तो क्या आप उसे अनुमति देंगे कि वह किसी दूसरे मर्द के साथ रात गुज़ार आये और उसके द्वारा गर्भवती होकर आए। अगर आप ऐसा करना चाहेंगे तो आपकी पत्नी ही इस के लिये सहमत नहीं होगी, फिर भी आप अगर उस से ऐसा ही करायेंगे तो समाज की निगाहों में गिर जायेंगे। अर्थात वह जिस पर आप अमल पैरा हैं या जिसे समाज स्वीकार करता है वह यह कि आप की पत्नी को आपके अतिरिक्त कोई और न छुए। यह हिन्दू धर्म के विरुद्ध और इस्लाम धर्म के पुर्णत: अनुकूल है।तीसरा उदाहरण
आप के घर बच्चा पैदा होता है। स्वामी जी कहते हैं कि उसकी माँ छः दिन के उपरान्त उसे अपना दूध न पिलाये(सत्यार्थ प्रकाश 5-68) जबकि मार्डन मैडिकल शोध कहता है कि दो वर्ष तक माँ का दूध ही उसके लिये उपयोगी भोजन है। ऐसी स्थिति में आप का पक्ष क्या होगा? यह भी याद रखये कि बच्चे को दो वर्ष तक माँ का दूध पिलाने की ताकीद कुरआन में है (कुरआन 31:14 )
अभी तक हम ने आपके धर्म के तीन सिद्धांतों पर बात की। चलिये कुछ इस्लामिक सिद्धांतों की बात करलें जिस को आपने छोड़ दिया है मगर वह आप से छूट नहीं पायंेगे और उन्हें आप चाह कर भी छोड़ नहीं सकते। आप अगर मुसलमान हैं और इस स्थिति में आप के पास एक विशेष मात्रा में धन आ जाए तो आप को एक विशेष प्रकार का टैक्स देना होता है जिसे ज़कात कहते हैं। अब आपने इस्लाम धर्म को छोड़ दिया है परन्तु यह नियम अब भी आप का पीछा कर रहा है और आज भी अगर आप के पास उसी विशेष मात्रा में धन आ जाता है तो आपके लिये सरकार को आयकर देना अनिवार्य है। अदभुत संयोग देखिये कि धन की वह विशेष मात्रा जो इस्लाम धर्म ने इस्लामी टैक्स (ज़कात) लेने के लिये निर्धारित की थी, जो आज के समय में आज के दौर की करीब नौ तोले सोना या उसकी क़ीमत बनती है। वही मात्रा आज तक आपके देश की सरकार भी फालो करती आ रही है। आप ज़रा यह एलान तो करें कि आपके पास साढ़े सात तोले सोना; जो आज के समय का करीब़ नौ तोले बनता है। उस की कीमत का धन है। फिर आप देखिये कि सरकार उसकी ज़कात अर्थात आयकर आप से वसूलती है या नहीं।एक उदाहरण और देखिये न्याय सम्बन्धि इस्लामी कानून सब के लिये समानता का आदेश देता है, उस में जन्म और जाति की बुनियाद पर भेद नहीं किया जा सकता। महेन्द्रपाल जी ने उसे छोड़ दिया है और मनुस्मृति का यह कानून अपना लिया है कि ब्राह्मण के लिए अलग नियम होंगे और शुद्र के लिए अलग। एक शुद्र की गवाही शुद्र ही दे सकता है, ब्राह्मण के लिए अलग प्रकार की शपथ है और शुद्र के लिये अलग प्रकार की।
परन्तु हमारे देश की अदालतें मनु की व्यवस्था को छोड़ इस्लामी व्यवस्था पर अमल करती हैं, महेन्द्रपाल को चाहिये कि वह कम से कम भारत सरकार के सामने यह परस्ताव रखें कि उन्हों ने (महेन्द्रपाल ने) इस्लामी नियमों को छोड़ कर घर वापसी कर ली है अब सरकार को भी चाहिये कि वह भी घर वापसी करते हुये कुरआन के नियम को छोड़कर मनुस्मृति के नियमों का पालन करे।
इस प्रकार के कोई एक दो उदाहरण नहीं हैं सारी व्यवस्था ही इस्लामी हो गई है। 2006 में सरकार ने यह परस्ताव पारित किया था कि बाप की जायदाद में बेटे की भांति बेटी भी हिस्सेदार होगी, महेन्द्र जी को यह ऐलान करना चाहिये था कि हम इस कानून को नहीं मानें गे, क्योंकि यह इस्लामी कानून है जिसे हम छोड़ आये हैं और हिन्दू व्यवस्था में पुत्री पराया धन होती है उसके पूर्वज भी वह होते हैं जो उसके पति के पूर्वज हैं । अतः उसके मूल पूर्वजों की सम्पत्ति में उसका कोई हक़ नहीं होता।
यहां एक मशहूर हदीस का वर्णन करना उचित होगा। हजरत मुहम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने फरमाया था कि क्यामत उस वक्त तक नहीं आएगी जब तक इस्लाम की आवाज पूरे विश्व के एक-एक मनुष्य के घर में न पहुँच जाए, इज़्ज़त वाला इज़्ज़त से मान लेगा और ज़िल्लत वाला ज़लील होकर मानेगा।
इस परिपेक्ष में हम कहना चाहेंगे कि हमने ऊपर जो इस्लामी सिद्धांत बयान किए हैं अर्थात समानता, सब के लिए शिक्षा, बाप की जायदाद में बेटी का हिस्सा, अपनी पसंद का धर्म स्वीकार करने की आज़ादी वगैरा-वगैरा। क्या ऐसा नहीं है कि अब वह समय आ गया है कि या तो महेंनद्रपाल जैसे लोग इन्हें इज़्ज़त से मान लें, जबकि वह उनके धर्म के खिलाफ है और अगर वह उन्हें इज़्ज़त से नहीं मानेंगे तो वक्त का आहनी पंजा उन्हें ज़लील करके अपनी बात मनवायेगा।
हमने जो हदीस बयान की है उसमें इस्लाम का कलिमा हर घर में दाखिल होने की बात है। अरबी का शब्द कलिमा एक उमूमी शब्द है उसका मूल अर्थ होता हैः ‘बात’। गालिबन इससे मुराद इस्लामी नियम व कानून हैं जो आज पूरी दुनिया में अपनी किसी न किसी सूरत में लागू हो चुके हैं, जबकि वे लगभग सभी हिंदू धर्म व्यवस्था के विपरीत हैं। जहां तक हिंदू धर्म व्यवस्था की बात है वह तो इस समय कतई असम्भव है (विस्तार से जानने के लिए देखें लेखक की पुस्तक ‘‘हिंदू राष्ट्र सम्भव या असम्भव? ब्लाग पर आनलाइन उपलब्ध)।
आज के मानव समाज ने इस्लाम की शिक्षा अर्थात इस्लामी कानून व व्यवस्था को (सिद्धांत) पूर्ण रूप से स्वीकार कर लिया है। हां उसे अल्लाह और उसके रसूल के नाम से अवश्य ही बैर बाकी है। शायद इसी चीज के लिए कुरआन में एक ओर तो यह कहा गया है कि धर्म के मामले में कोई जोर जबरदस्ती नहीं की जा सकती जो चाहे स्वीकार कर ले ओर जो चाहे इन्कार कर दे(सूरह बक़र 256)। और दूसरी और महेंद्रपाल जैसे हठधर्मियों के दृष्टिगत उन जैसों को सम्बोधित करते हुए कहा गया है।
‘‘यह अल्लाह के दीन को छोडकर कहां भटक रहे हैं जबकि आसमान व ज़मीन में जो कुछ भी है उसने तो स्वेच्छा से इस्लाम स्वीकार कर लिया है। (आल ए इमरान 83)औरों से तो शिकायत क्या कि वह इस्लाम के बारे में जानते नहीं परन्तु महेन्द्र जी! आप तो कथित फारिगुत्तहसील आलिम थे आपको तो यक़ीनन मालूम होगा, और यह भी मालूम होगा कि इस्लामी सिद्धान्त के अनुसार दो हिस्से पुरुष के और एक हिस्सा स्त्री का होता है। देखें सुरह नम्बर 4:11 कुरआन, अर्थात 33 “ लडकी का और 66 “ लड़के का।
और आपको यह भी मालूम ही होगा कि महिला आरक्षण बिल में यही व्यवस्था रखी गयी है। जिसमें राज्य सभा में बहस होकर यह प्रस्ताव पास हुआ है कि महिला आरक्षण बिल में 33 प्रतिशत भाग महिला का होगा और 66 प्रतिशत पुरूषों का।
महेन्द्र जी! आप तो प्रख्यात पंडित हैं और दिल्ली में रहते हैं सरकार को बताइये कि यह इस्लामी व्यवस्था है। जिसे आप छोड़ आये हैं ।
कहने का मतलब यह है कि इस्लामी नियम कानून स्वभाविक हैं और स्वभाव का विरोध संभव नहीं परन्तु किसी ने विरोध की ही ठानी है तो वह स्वयं का ही नुकसान करेगा क्योंकि आसमान का थूका मुंह पर आता है ।
सच्चाई का विरोध इसलिए कि वह दूसरे का बताया हुआ है अतः आप उसके विपरीत जायेंगे यह घटिया दर्जे की संकीर्णता है।
इस का एक छोटा सा उदाहरण और देखें -
इस्लामी कानून कहता है कि आप लघुशंका के बाद मूतेन्द्री को धोएं और पानी उपलब्ध न हो तो मिटटी के ढेले आदि से उसे शुष्क करलें ताकि वह वस्त्र एवं शरीर पर न लगे। परन्तु आप का नियम कहता है कि बचे-कुचे पेशाब को कपडे़ और शरीर पर ही लगने के लिये छोड़ दें। परन्तु आप हैं कि लघुशंका के बाद हाथ फिर भी अवश्य धोते हैं। क्यों? अब आप इस्तनजा करें तो मुस्लमान कहलायें और न करें तो शरीर गंदा हो, आप तो खतना से भी न बच सके होंगे कि महर्षि स्वामी जी की सोच के अनुसार मूतेन्द्री की ऊपरी खाल बचे-कुचे पैशाब को सोख लेने के लिये है ताकि पेशाब की बूदें कपड़े और शरीर पर न लगें। खतना पर एक बात और याद आयी। वह यह कि मुसलमानी (खतना) भी आप के साथ ऐसी ही लगी रह गयी जैसे स्वभाव के नियम जिसे आप चाह कर भी नहीं छोड़ सकते और बचपन में अपनी मूतेन्द्री की कटी खाल को जब आप मुसलमान रहते , श्री0 मुजफ्फर अली के घर में पैदा हुये थे (अगर अपने इस दावे में सच्चे हैं) आप वापस नहीं ला सकते ।
दरअसल आपकी मिसाल ‘‘आसमान से गिरा खजूर में अटका’’ जैसी है। यदि आपने घर वापसी करते हुये आर्य समाज को अपनाया है, आर्य समाज सनातन कहाँ है? उसको आरम्भ हुये तो अभी दो सौ वर्ष भी नहीं हुये। जब हिन्दू ही बनना था तो वह हिन्दू धर्म अपनाते जो अनादि से है और शास्वत और सनातन है।
खैर यह तो आपका पर्सनल मामला है जो चाहें स्वीकार करें और जो चाहे त्याग दें । परन्तु इस बात का भी ध्यान रखिये कि अपकी भाषा और लेखादि में भी गुरु का असर झलकता है मुसलमानों का खुदा ऐसा है मुसलमानों का खुदा वैसा है , यह अच्छी भाषा शैली नहीं है।
यह आप सभी का तर्ज-ए-तहरीर है - ईश्वर-ईश्वर है, उसे ईश्वर कहिये, प्रभु कहिये या गॉड कहिये या खुदा कहिये, आप ऐसा कह सकते है कि खुदा, ईश्वर, प्रभु ऐसा नहीं कर सकता, वैसा नहीं कर सकता परन्तु -
बात करने का सलीका नहीं नादानों को
बात असल में यह है कि ‘छोटा मुंह बड़ी बात’ महेनद्रपाल जी की आदत है। उन्होंने आज कल ज़ाकिर नायक को चेलेंज करते हुये एक ऐलान नामा इण्टरनेट पर डाला हुआ है कि ज़ाकिर नायक उनसे शास्त्रार्थ करें, अगर जाक़िर नायक उन्हें हरा देंगे तो वह मंच पर ही इस्लाम स्वीकार कर लेंगे। क्या जाक़िर नायक इस हद तक निचले स्तर पर उतर आए कि उस व्यक्ति से शास्त्रार्थ करने आ जायें जो पांच लाइनों में दस इमले की गलतियाँ करे, मुझे तो महेन्द्रपाल का यह ऐलान देखकर ‘धर्ती पकड़’ की याद आ जाती है, खुदा मालूम बेचारा इस दुनिया में है या आँ जहानी हो गया। हमेशा राजीव गाँधी या इन्दिरा गाँधी जैसों के मुकाबले स्वतन्त्र उम्मीदवार के तौर पर चुनाव लड़ा करता था। इस प्रजा तांत्रिक दौर में किसे रोका जा सकता है। सब स्वतंत्र हैं, चाहे धर्तीपकड़ राजीव गाँधी के मुकाबले चुनाव लडे़ या महेन्द्रपाल जाक़िर नायक को चुनौती दें क्या मजाल जो राजीव गाँधी या ज़ाकिर नायक चूँ भी कर सकें।
महेंद्रपाल जी की एक किताब ‘‘वेद और कुरआन की समीक्षा’’ के नाम से है पूरी किताब में जो फहवात बकी गयी हैं उससे उनकी ज़ेहनियत का पता चलता है। किताब इस लायक नहीं है कि पूरी किताब की समीक्षा कर मैं अपने लेख को बोझल करूं केवल एक आध उदाहरण से ही उनकी समीक्षा के स्तर का अन्दाज़ा हो जाएगा। उनकी किताब के पृष्ठ 7 व 8 का भाग देखें, महेंद्रपाल जी ने कुछ इबारतें लिखी हैं। वह यह ज़ाहिर करना चाहते हैं कि कुरआन में उस जैसी सूरा (अध्याय) बनाने का जो चैलेंज किया गया है महेंद्रपाल जी ने उसे स्वीकार कर लिया है। महेंद्रपाल जी के हाल पर हंसी आती है उन्होंने कुरआन ही के शब्दों की उलटफेर से कुछ पंक्तियां घड़ी हैं, इमले की बलंडर त्रुटियों पर यहां भी आपको हंसी आएगी, पहली पंक्ति देखें
(पी.डी.एफ फाइल पृष्ठ 37 पर चित्र देखें)
शब्द हिया, वह के अर्थ में है यह शब्द सर्वनाम है ,अरबी भाषा की प्रारंभिक कक्षाओं में अरबी के सर्वनाम रटा कर याद कराए जाते हैं। खास बात बताने की यह है कि ‘हिया’ सर्वनाम छोटी हा से लिखा जाता है जबकि महेंद्रजी ने उसे बडी हा से लिखा है। अगर कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति जो अपने को गुरूकुल से एम. ए. या शास्त्री की डिग्री पास बताए और स्त्री को इसतरी या पुरूष को पुरुश लिखे उसके बारे में आपका क्या खयाल है? हां कक्षा 2 के छात्र से ऐसी त्रुटि की उम्मीद की जा सकती है।
निम्न लिखित पंक्तियो में लगभग सभी शब्द कुरआन के हैं बस महेंद्रपाल जी ने बीच में ओउम शब्द अरबी भाषा में लिखकर अपनी योग्यता का प्रमाण देने का नाकाम प्रयास किया है।
(पी.डी.एफ फाइल पृष्ठ 38 पर चित्र देखें)
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प्रश्न यह है कि ऐसे व्यक्ति को क्या जवाब दिया जाए और क्या ऐसे व्यक्ति की बातों को संजीदगी से लिया जाए जो स्वयं कुरआन के शब्दों से लाइनें घड़कर उन्हें कुरआन जैसी आयतें बतलाए। फिर भी यह महाशय हैं कि ज़ाकिर नायक जैसी विश्व प्रसिद्ध हस्ती को चैलेंज करते हैं।
क्या ऐसे व्यक्ति को इस लायक समझा जाए कि उसके शास्त्रार्थ के चैलेंज को महत्व देते हुए उसे स्वीकार किया जाए। यह निर्णय पाठकों को करना है।
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श्रीमान महेंद्रपाल जी के द्वारा इन्टरनेट पर एक वीडियो डाली गयी है जिसका शीर्षक है महेंन्द्रपाल ने डाक्टर ज़ाकिर नायक के उस्ताद अब्दुल्लाह तारिक को हराया।
पहली बात तो यह है कि उक्त विडियो जिस प्रोग्राम की है वह कोई शास्त्रार्थ का प्रोगराम नहीं था अपितु आपसी भाईचारे पर आधारित प्रोग्राम था और अगर महेंद्रपाल जी उसे शास्त्रार्थ ही का प्रोग्राम मानते हैं तो फिर बताएं उसमें जज किसे नियुक्त किया गया था, उसमें अधिक संख्या महेन्द्रपाल जी के अनुयाईयों की थी उन्होंने ही प्रोग्राम का आयोजन किया था, और अब्दुल्लाह तारिक को बतौर अतिथि बुलाया गया था।
अब्दुल्लाह तारिक रियासत रामपुर के रहने वाले मशहूर इस्लामी स्कालर हैं उनके प्रोग्राम पीस टीवी से प्रसारित होते रहते हैं। परन्तु जाक़िर नायक से उनका कोई गुरू-शिषय का संबंध नहीं है बल्कि उनकी जाक़िर नायक से एक दो मुलाकातों के अलावा अन्य कोई राबता नहीं है। ऐसे में उनको ज़ाकिर नायक का उस्ताद लिखना केवल अज्ञानता है।
जहाँ तक उनको हराने की बात है। नेट पर मौजूद विडियो में ऐसी कोई बात नहीं दिखती। महेंद्रपाल और अब्दुल्लाह तारिक की बातचीत की इस विडियो को देखकर लगता है कि महेंद्रपाल सच्चाई को जानने समझने और सही बात को मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं है बल्कि आक्रमक अंदाज में बेवजह चीख रहे हैं। जबकि अब्दुल्लाह तारिक सभ्यता और शाइस्तगी से बात समझाने का प्रयास कर रहे हैं।
इस विडियो में महेंद्रपाल ने अपनी बात का आरंभ जिस नुक्ते से किया है उसका खुलासा यह है कि उनके पास जो कुछ है वह धर्म है और अन्य लोग (मुसलमान आदि) जिसे मानते हैं वह मज़हब है। यह वह नुक्ता है जिसे आजकल हिंदू मिथ्यालोजी के बड़े बड़े फलासफर पेश कर रहे हैं इनका मानना है कि धर्म बड़ी चीज़ है क्योंकि वह जीवन जीने की एक सम्पूर्ण पद्धति है और मजहब कोई छोटी चीज होती है क्योंकी वह पूजा पद्धति मात्र है। यानि
‘‘अंधे को अंधेरे में बहुत दूर की सूझी’’
यह बात केवल वह व्यक्ति कह सकता है जो मुसलमानों के बारे में सिर्फ इतना जानता हो कि मुसलमान या इस्लाम बस इस चीज का नाम है कि मस्जिद में जाकर नमाज़ पढ़ आयें और रमज़ान का महीना आया तो रोज़े रख लिए। और मौका हुआ तो हज कर आए। महेंद्रपाल जी का इस बात पर दूसरों के सुर में सुर मिलाना केवल उनके इस दावे को संदिग्ध करता है कि वह पहले महबूब अली थे क्योंकि जानकारों को यह मालूम है कि दुनिया के तमाम धर्मों में केवल इस्लाम ही एक एसा धर्म है जो नाखून काटने और जूता पहनने से लेकर हुकूमत करने तक के मामलों में एक-एक बात पर रहनुमायी पेश करता है और आज उसके पेशकरदा नियमों को सम्पूर्ण दुनिया मानने को मजबूर है। वर्तमान में कई देशों में इस्लामी सिद्धांत पर आधारित हुकूमतें चल रही हैं। ताजीरात -ए- इस्लामी पर बड़ी बड़ी युनिवर्सिटियों में शोद्ध किया जाता है, इस्लामिक ला के चार बुनियादी उसूल जिंदगी के हर पहलू का अहाता करते हैं।
यहां पर उस रिवायत का वर्णन उचित होगा, जिसका तअल्लुक हजरत मआज़ बिन जबल से है।
उनको अल्लाह के रसूल सल्लल्लाहुअलैहि वसल्लम ने यमन का गवर्नर बनाकर भेजा था, जब वह प्रस्थान के लिए घोड़े पर सवार हो गए तो अल्लाह के रसूल कुछ दूर उनके साथ-साथ पैदल चले, और चलते-चलते उन्होंने मआज से पूछा कि तुम्हारे पास मुकदमात आएंगे तो किस प्रकार फैसला करोगे। मआज़ ने उत्तर दिया कि अल्लाह की किताब से। आपने कहा कि अगर अल्लाह की किताब में वह हुक्म न मिला तो फिर?
मआज़ ने उत्तर दिया सुन्नत-ए-रसूल और हदीसों से, आपने कहा कि अगर वहां भी न मिले तो?
मआज ने जवाब दिया कि इन दोनों की रौश्नी में क्यास करूंगा। आपने यह सुनकर खुशी का इज़हार किया और उनके सीने को थपथपा कर उनको शाबाशी दी और यमन के लिए रवाना कर दिया।
इसके अतिरिक्त इतिहासकार जानते हैं कि हुकूमतों के लिए सबसे पहला लिखित संविधान जिस पर अमल संभव है वह कुरआन व हदीस की शकल में इस्लाम ने पेश किया था जिनकी बुनियाद पर इस्लामिक ला, फिक़ा की शकल में वजूद में आया और बाद के दौर में उसके 4 स्कूल्स आफ थॉटस वजूद में आए। अर्थात हनफी, शाफई, मालकी और हंबली और अगर इसमें फिक़ा जाफरिया को शामिल कर लिया जाए तो यह पांच हो जाते हैं। आजकल अधिक इस्लामी मुलकों में फिका हनफी के मुताबिक ही अदालतें कायम हैं जबकि सऊदी अरब में हंबली और ईरान में फिक़ा जाफरिया के मुताबिक हुकूमत चलायी जाती हैं। इस्लाम की खूबी यह कि उसमें इस्लाम के ना मानने वालों के लिए भी ला मौजूद है। हैरतअंगेज़ बात यह है कि 1400 साल पहले पेशकरदा इस्लामी कानून आज के पसंदीदा तर्जे हुकूमत सेकुलरिज्म के लगभग शत प्रतिशत अनुकूल है। मसलन इस्लामी हुकूमत में गैर मुस्लिम के भी वही अधिकार हैं जो एक मुसलमान के हैं। लिहाज़ा किसी गैर मुस्लिम को कोई मुसलमान नाहक कतल कर दे तो जान के बदले जान के नियम के अनुसार ही कातिल से किसास लिया जाएगा।
इन सब बातों को जानते हुए भी अगर कोई यह कहे कि इस्लाम पूजा पद्धति मात्र है तो उसके बारे में केवल यही कहा जा सकता है कि वह इस्लामी शिक्षा से अत्यंत अनभिज्ञ है और अगर ऐसा कहने वाला यह दावा भी करे वह हाफिज व आलिम भी था तो मेरा खयाल है कि उसे किसी साईकलोजिस्ट से अपना इलाज कराना चाहिए।
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हमने पंडित जी की एक अन्य पुस्तक का वर्णन किया था पंडित जी महाराज अपनी उसी पुस्तक ‘‘वेद और कुरआन की समीक्षा’’ के पृष्ठ 10 पर लिखते हैं
‘‘लोग मेरे लेख को पढने में रूची रखते हैं कुछ आर्यसमाजियों में रवीवारीय सत्संग में मेरे लेख का पाठ होता रहा है जिसमें अनेक उल्लेखनीय लेख मेरे विभिन्न पत्रिकाओं में छपे हैं, मैं सिद्धांत पर ही लिखता हूं।’’
और करमफरमा पंडित महाशय का सिद्धांत यह है कि स्वयं से पंक्तियाँ घड़ो और लिख डालो कि यह कुरआन में है। ऐसे सिद्धांतवादी पर अल्लाह रहम करे।
यह महाशय अपनी पुस्तक के पृष्ठ 10 पर ही आगे लिखते हैंः
‘‘आज भी तथाकथित आर्यसमाज के अधिकारी जो कहलाते हैं उन्हें भी वैदिक सिद्धांत का क ख भी नहीं मालूम’’
अर्थात वैदिक सिद्धांत तो वह है जो महेन्द्रपाल पेश कर रहे हैं कि झूठी पंक्तियां घडो और उसे कुरआन की आयत बताकर उन पर प्रश्न करके भोले-भाले और सीधे- साधे लोगों को बहकाओ, हमने किताब के आरंभ में महेंद्रपाल जी के पत्रक के पहले पृष्ठ पर उनके द्वारा लिखित पंक्ति
(पी.डी.एफ फाइल पृष्ठ 44 पर चित्र देखें)
अंकित की थी चलो इसी पर फैसला हो जाए। महेंद्रपाल जी ने इसे कुरआन की आयत लिखा है। अगर वह उसको कुरआन के 30 पारों में कहीं दिखादें तो वह सच्चे ठहरे। वरना आर्य समाज को बताना चाहिए कि क्या यही वैदिक सिद्धांत है? और अगर ऐसा नहीं है तो फिर बहतर होगा कि वह महेन्द्रपाल की ज़बान को स्वयं लगाम दें।
डा. मुहम्मद असलम कासमी
वेदों के ज्ञाता महर्षि दयानंद सरस्वती ने
‘सत्यार्थ प्रकाश’ में लिखा हैः-
1. प्रसूता छह दिन के पश्चात् बच्चे को दूध न पिलावे। (2-3) (4-68)
2. 24 वर्ष की स्त्री और 48 वर्ष के पुरुष का विवाह उत्तम है अर्थात् स्वामी जी के मतानुसार लड़के की उम्र लड़की से दूना या ढाई गुना होनी चाहिए। (4-20) (14-143) (3-31)
3. गर्भ स्थिति का निश्चय हो जाने पर एक वर्ष तक स्त्री-पुरुष का समागम नहीं होना चाहिए। (2-2) (4-65)
4. जब पति अथवा स्त्री संतान उत्पन्न करने में असमर्थ हों तो वह पुरुष अथवा स्त्री नियोग द्वारा संतान उत्पन्न कर सकते हैं। (4-122 से 149)
5. यज्ञ और हवन करने से वातावरण शुद्ध होता है। (4-93)
6. मांस खाना जघन्य अपराध है। मांसाहारियों के हाथ का खाने में आर्यों को भी यह पाप लगता है। पशुओं को मारने वालों को सब मनुष्यों की हत्या करने वाले जानिएगा। (10-11 से 25)
7. मुर्दों को गाड़ना बुरा है क्योंकि वह सड़कर वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देते हैं। (13-41, 42)
8. लघुशंका के पश्चात् कुछ मुत्रांश कपड़ों में न लगे, इसलिए ख़तना कराना बुरा है। (13-31)
9. दण्ड का विधान ज्ञान और प्रतिष्ठा के आधार पर होना चाहिए। (6-27)
10. ईश्वर के न्याय में क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं होता। (14-105)
11. ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा नहीं करता। (7-52)
12. सूर्य केवल अपनी परिधि (Axis) पर घूमता है किसी लोक के चारों ओर ; (Orbit) नहीं घूमता। (8-71)
13. सूर्य, चन्द्र, तारे आदि पर भी मनुष्य आदि सृष्टि हैं। (8-73)
14. सिर के बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। (10-2)
जरा सोचिए ! क्या उक्त तथ्य वास्तव में बौद्धिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक हैं ?
वेदों के ज्ञाता स्वामी दयानंद सरस्वती ने
वेदों के निर्देशन में लिखा है:-
1. ईश्वर जगत् का निमित्त (Efficient Cause) कारण है, उपादन कारण (Material Cause) नहीं है। (7-45) (8-3)
वैदिक धर्म एकेश्वरवाद का प्रतिपादन करता है और उसे सृष्टिकर्ता भी मानता है, मगर स्वामी दयानंद ने कहा कि उपादन कारण के बिना जगत् की उत्पत्ति संभव नहीं है। ईश्वर, जीव और प्रकृति तीनों अनादि हैं। ईश्वर मात्र शिल्पी है, उसने सृष्टि का विकास किया है, सृजन नहीं किया। अर्थात् जिस प्रकार कुम्भकार ने घड़ा बनाया, मिट्टी नहीं बनाई, ठीक इसी प्रकार परमेश्वर ने जगत् बनाया। प्रकृति और जीव दोनों संसाधन ;(Material) पहले से मौजूद थे।
2. सम्पूर्ण मानवता एक माँ-बाप की संतान नहीं है। (8-51)
3. वेद आवागमनीय पुनर्जन्म की अवधारणा का प्रतिपादन करते हैं। (9-75)
4. मनुष्य और पशु आदि में जीव (Soul) एक सा है। (9-74)
5. स्वर्ग, नरक का कोई अलग लोक नहीं है। (9-79)
विचार करें कि क्या वास्तव में वेद उक्त तथ्यों को प्रतिपादित करते हैं?
bhai tum jo bhi bkawas kar rahe ho use sun kar mujhe hasi aati hai. mai tumhare har ak sawal ka jwab dene ke liye tayar hu bas tum mujhe ak sawal ka jwab de, jab ki tumhare mohamad saheb ne tum logo ko shanti ka path pdhya hai to phir jis desh me muslman hai us desh me shanti kue nahi hai????? ha mai manta hu ki hindu dharm me andwiswas hai par yah tum jaise dharm ke dlale ne kiya hai. aur rhai bat vedo ki to tumhari bato se hi lag rha hai ki tumhe vedo ka gyan nahi hai, aur nahi tumne padha hai. to agar himmat hai mere sawal ka jwab do.
ReplyDeleteAap ka sawal he ki muslim seshon men shanti kiyon nahi ,is[e hi kahte hen sawal Aasman se aur jawab zameen se ,yahan jo veshe tha Aap ko uspar bat karni chahiye thi phir bhi Aap ne bat uthai he to mujhe kahna hoga ki yh sab Aap jeje logon ke karnamen hen ,Aap jese log Ashanti phelate hen aur mail bhejdete hen indin mujahidin ke nam se ,vistar se janne ke liye dekhe meri kitab hindu Aatankwad be naqab .
ReplyDeleteChalo.. Bharat me Hindu hai.Jo tumhe Jine nahi dete ( tumhare anusaar) . to
DeleteDusare desho me..
Bagdaad. Iran, irak libia ..Pakistan ...etc...me vaha par ye musalmaano ko kon nahi Jine de rha ???
Vaha q maar kaat ho rahi hai miya??.?? Bataoge..
Aslam Qasmi.....ji aap ko phd ki digree kisne de di ....aap ne vedo ka arth bina samjhe galat lagaya hain....ved ka matlab gyan hain hota hain....ved nindak usko kaha gya hain jo gyan k virudh karam kare ..jaise chori hatya rape...lut kashot usko ..marne katne aur dand dene ki anumati ved ne di hain.....baat ved kuran ki ho rahi hain ...aap mahabhrat ki history kahan se utha laye...hadise kori bakwas se bhari padi hain .mahabhrat ek dharam yudh tha aur mahabharat k kon se chapter me 66 karor logo k marne k bare me likha hain shlok no aur chapter no batao ...18 achhodi sena yudh ke maidan me thi...aur aslam qasmi ji kon se muslim desh ,me gair muslim surakshit hain .....jara us desh ka naam bataye ....nahi bata sakte kyo ki islam me gair muslimo ko jine ka adhikar nahi hain.....chalo bhudhi ki bat karte hain ..arab history per aajao...1400 sal pahle allah miya huye use pahle kahan the .......allah ne 3 kitab uttari torat jabur injil...allah ki 3 kitabo me insan ne parivartan kar diya allah ko pata nahi chala...quran me parivartan nahi hua iski kya grantee hain kho ki allah ne quran me kaha hain ya allah miya ne jimedari li hain ......to hazarat baki 3 kitabo ki garntee allah ne kyo nahi li....aap ka allah bhi daga karta hain .....allah ka gyan bar bar badlta hain ...allah quran me kahta hain hum chahe to aayto ko nast kar de aur late hain use behtar ...to allah ka gyan bar bar badlta hain to allah ishwar nahi ho sakta koi koi manusay hoga .......ishwar ka gyan ek bar aata hain aur humesha k liye rahta hain ..sab k liye saman hain ....aslam qasmi ji hindu agar aatankwadi hota to ek bhi allah ka ghar nahi rahta hain .....apne majhab ka ijjam dusro per laga rahe ho ...aap ki galti nahi hadisho aur madarso ki shikha yahi hain ... aatankwadi dekh lo kon hain duniya me ..
Deletehttp://www.scribd.com/doc/160664738/%E0%A4%85%E0%A4%95%E0%A4%B2-%E0%A4%AE%E0%A5%87%E0%A4%82-%E0%A4%A6%E0%A4%96%E0%A4%B2-%E0%A4%A8-%E0%A4%A6%E0%A5%87%E0%A4%A8%E0%A5%87%E0%A4%B5%E0%A4%BE%E0%A4%B2%E0%A5%87
ReplyDeleteAapki pustak "mahendra pal arya" ke prati uttar ko janane ke liye iss link ko follow karre.
Asslam o alikum Aslam Qasmi bhai bahut accha likha hai aap ne Allah aap ko or ilm ata farmaye and vivek aap ke jitne prashn hai aap be hichak puche but yad rahe hame bhi sawal puchne ka haq hai waise aap ki bhasah se hi pata chal raha hai ki aap ka chritr kaisa hoga
ReplyDeleteMahendra Pal Arya JIमेरा खुला चेलेंज है महेंद्र पाल आर्य को या इसी भी वेद ज्ञाता को की साबित कर दे वेद ईश्वरीय ग्रन्थ है जहाँ चाहो मै आ जाऊंगा लेकिन वेदों के किसी श्लोक मंत्र को मै ईश्वरीय नहीं मानता मेरे लिए सब मानव लिखित हैं इसलिए कोई तर्क वेदों में लिखित किसी वर्णन का उदाहरण या तर्क नहीं मानूगा यदि वेद ईश्वरीय ग्रन्थ हैं तो या तो ईश्वर आकाशवाणी से स्वयं बताये या महेंद्र पाल जी वेद के श्लोक पढ़े और कोई देवदूत उतर आये या चमत्कार दिख जाए सारे धार्मिक ग्रन्थ आस्था पर हैं कोई ज्ञानी ईश्वरीय नहीं सिद्ध कर सकता वेदों के चमत्कार से कोई ईश्वर दिखा दे मै उसका धर्म स्वीकार कर लूँगा
ReplyDeleteved me kahan likha hain ved manater padhne se dev dut uttar aate hain haan ..quran me jarur jannat se dumbba utar aata hain kurabani k liye ...allah churi se knife se bat lete hain ibrahin ki story waise kafi rochak hain ....aap kuran ki koi aayat padhe koi farista aajaye to me maan jau ga kuran ishwar ki kitab hain ...nahi to kahani ki kitab manta hun me bus .....
DeleteAllah aapko jaza e khair de aap bahut acha kaam kar rahe hain
ReplyDeleteme kuch chizo ko janne ke sambandh me aapse rabta karna chahta hoon aapka contact no. mil sakta hain?
ReplyDeleteMera facebook account hain
http://www.facebook.com/zeeshan3745
वाह जी वाह...क्या खुब मक्कारी किया है शब्दों के साथ
ReplyDeleteये सिर्फ formality निभाने के लिये लिखा था क्या??
आपके एक एक वाक्य का उत्तर पंडित जी ने दे रखा है....जवाब क्युं नहीं देते उनका??.....जवाब नहीं है तो अपनी गलती मानिये
ये लीजीये जवाब--
भाग १-- https://m.facebook.com/MahenderPalArya.Official/photos/a.537614462927704.1073741825.519110141444803/623768850978931/?type=1&relevant_count=1&refid=52
भाग २-- https://m.facebook.com/photo.php?fbid=624234647599018&id=519110141444803&set=a.537614462927704.1073741825.519110141444803
भाग ३--https://m.facebook.com/photo.php?fbid=624829010872915&id=519110141444803&set=a.537614462927704.1073741825.519110141444803&refid=13
भाग ४-- https://m.facebook.com/photo.php?fbid=625211374168012&id=519110141444803&set=a.537614462927704.1073741825.519110141444803&refid=13
भाग ५-- https://m.facebook.com/photo.php?fbid=625534647469018&id=519110141444803&set=a.537614462927704.1073741825.519110141444803&refid=13
भाग ६-- https://m.facebook.com/photo.php?fbid=628024040553412&id=519110141444803&set=a.537614462927704.1073741825.519110141444803&refid=13
|| असलम कासमी के विद्त्वा को जरा परखें ||
ReplyDeleteउन्होंने मेरे लेखों का जवाब दिया है, मेरे जो सवाल है इस्लाम पर उसे उन्हों ने मात्र कुरान में मारो काटो की बातें जहाँ है सिर्फ उस की सफाई देने का प्रयास किया, वह भी बिना सिर पैर की बातों को सामने रखा जिसका जवाब मै पहले ही दे चूका हूँ | जब कि मेरे सवाल नामा में उपर लिखा है की मै कौन बोल रहा हूँ यह न देखें मै क्या बोल रहा हूँ उस पर विचार करें| उन्जुर इला मा काला वला तनजुर इला मान कला | बात को परख,या पहचान ,कहने वाले को न देख | | أ نظر ألي ما قال ولا تنظر إلي من قال -بات کو پرکھ کہنے والے کو نہ دیکھ पर इन्हों ने मै कौन हूँ कहाँ का हूँ कहाँ पढ़ा हूँ ,पढ़ा या नहीं, पंडित किसलिए और कैसे हूँ अपनी किताब में यही सब चर्चा किया है | मेरे सवालों का जवाब देने की इल्म इनमे नहीं है | मै तो लिखा भी, ज़वाब देने के लिए इस्लाम जगत के पास वह कला नहीं कारण, इस्लाम ज़वाब देने का नाम नहीं है, सिर्फ मानने का ही नाम इस्लाम, मज़हब, दीन है | कारण जानकारी जितनी लेते जायेंगे इस्लाम का उतना ही पोल खुलता जायेगा | अब तक जो मै दर्शा चूका हूँ उतने मे ही पाठक बृंद ज़रूर देख लिया होगा |
अब मै इनको ज़वाब देदूं ,मै महबूब अली था या नहीं इन्हें संदेह है ? जब की मै कोई हूँ कुछ भी हूँ मेरे सवालों का ज़वाब देने के लिए बैठे थे, अब ज़वाब देने की इल्म तो है नहीं, तो मुझे देखने लगे | कैसे अकल मंद लोग हैं देखें मुद्दे पर बात न कर, इधर उधर की बात किस प्रकार किया है देखें ? यह जनाब लिखते हैं, की महेन्द्रपाल जी अगर बंगाली है तो हिंदी सही कैसे है? तो प्रमाण दिया की भारत के राष्ट्रपति बंगाली हैं वह हिंदी सही नहीं जानते,तो महेन्द्र पाल कैसे जानते हैं ? यानि यह बंगाल के नहीं हो सकते | सही पूछें तो मै आज भी हिंदी काम चलाऊ ही जनता हूँ | भाईयों यह अपने को PhD कहते और लिखते हैं, पर इनकी दिमागी विकास को देखें क्या लिखने बैठे थे और लिख क्या रहे ?
जब की इनके आदमी जो हापुड़ के अनवर अहमद हैं वह काफी दिनोसे जासूसी कर रहे हैं मै कौन हूँ कहाँ पढ़ा हूँ कहाँ इमामत की है आदि | बड़ौत तक इन्होंने पता किया की मै बरवाला में बड़ी मस्जिद का इमाम था या नहीं ? मेरी तो खुली किताब है मै किसलिए छुपाता भला, पर असलम कासमी ने लिखा की इस प्रकार कुछ गेर मुस्लिम, मुस्लिम नाम दे कर साजिश रचे हैं | तो असलम कासमी का मैं संदेह दूर करूँगा पहले, मेरी पुस्तक में साफ लिखा है मै कहाँ का हूँ, मैंने तायलीम हासिल कहाँ की, कहाँ मैंने इमामत की, और कहाँ रहता हूँ |
दूसरी बात तो यह है की यह किसलिए देख रहे,जो लिखा गया उसका जवाब तो यह नहीं है,क्या ज़वाब देनेकी इल्म है कासमी में या किसी और में यहाँ लिखा जा रहा है की अरबी की दूसरी जमात तक पढ़े, फिर लिखा कुछही दिन पढ़े होंगे, हो सकता है किसी मदरसे में रहे होंगे ? मेरे भाई आप तो मेरे द्वारा लिखे गए सवालों का ज़वाब दे रहे थे फिर यह सब किसलिए देखने लगे? मै हिन्दी भाषी इलाके का हूँ या नहीं ? आपने जो पंडित होने का संदेह किया है ,वह इसलिए हुवा, की इल्म आपके पास नहीं है, अगर आलिम होते तो रुड़ी वाद से ऊपर उठते, अंध बिश्वास,और पाखंड से दूर होते,अन्ध बिश्वास और पाखंड क्या है मै पहले लिख चूका हूँ | देखें पंडित कोई जन्म से नहीं होता, और न ही पंडित कोई जाती है | जाती मानव मात्र का एकही जाती है, समानःप्रस्वत्मिका स:जातिः| यानि प्रसव करने का तरीका जिनका एक है वह एकही जाती के हैं | तो मनुष्य मात्र के एक ही जाती होते हैं, अपने गुण,कर्म स्वभाव,अनुसार वर्ण होता है | शास्त्र का कहना है जन्मना जायते शूद्रः,संस्कारात,दुय्ज उच्चते | यानि जन्म से हर कोई मानव शुद्र होता है,संस्कार से दुव्ज बनते हैं | यानि शुद्र का अर्थ है अंजान,कोरा जो कुछ नहीं जानता,जन्म से मनुष्य अनजान ही पैदा होता है उसे जानकारी कराई जाती है,उसे नैमित्तिक ज्ञान नही होता, सिर्फ साधारण ज्ञान होता है, उसे नैमित्तिक ज्ञान कराना पड़ता है | यह इल्म इस्लाम के पास नहीं है और न जानता है इस्लाम. की नैमित्तिक ज्ञान किसको कहा जाता है | अब उसे ज्ञान के अनुसार, उसके विकास पर ध्यान दिया जायेगा की उसे पंडित बनाया जाता है, जिसमे गुण के ऊपर निर्भर होता है, जो वेद पढ़े, पढ़ाये, यज्ञ. करे,कराये,दानदे, और दान ले यह 6 गुण हैं पंडित के | जन्म से कोई पंडित नहीं होता सब अपने कर्मों के अनुसार ही वर्ण चुना जाता है ? जो रक्षा करे वह क्षत्रीय,,जो ब्यापार करे वह वैश्य,जो सेवा करे वह शुद्र | इस्लाम इन ऊँची दर्शन को, कैसे समझ पाते भला ?
Wah re ...kya baat hai kyo tumhara pol na khole tumhe isse kya lena tum agar sachche ho to dar kyo rahe ho....unhone hum musalmano ko sachchai btai hai tumhe nahi tum to Alim the na fir bhi tujhe kuchh nahi maloom had karte ho ....sahi kha unohone kiमहेन्द्रपाल जी स्वयं को पंडित लिखते हैं और पंडिताई का कार्य करते हैं। उनके कहने के अनुसार वह पहले मुसलमान थे फिर वह हिन्दू धर्म के अनुयाई बन गये। हिन्दू धर्मानुसार पंडिताई का कार्य केवल ब्राह्मण कर सकता है। और ब्राह्मण जन्म जात होता है भारत में जो जाति प्रथा है। उस में यों ही कोई एक जाति का व्यक्ति दूसरी जाति का सदस्य नहीं बन सकता। हिन्दू धर्म की महत्वपूर्ण ग्रन्थ वेद एवं मनुस्मृति हैं उनके अनुसार हिन्दू समाज चार खानों में विभाजित है ब्राह्मण , क्षत्रिय, वेशः एवं शूद्र। इनके अतिरिक्त जो भी हैं वे मलेच्छ (नापाक और अपवित्र) हैं इस व्यवस्था में धर्म की शिक्षा प्राप्त करना और शिक्षा देना केवल बृहमण का कार्य है। और शूद्र अगर शिक्षा प्राप्त करे तो उस के लिये कड़ी सजा का प्रावधान है। यहाँ प्रश्न यह है कि महेन्द्रपाल जब महबूब अली से महेन्द्रपाल बने तो उन्होंने कौन सा वर्ण ग्रहण किया। वह पहले मलेच्छ थे अर्थात शुद्र से भी नीचे। उन्होंने अपना शुद्धिकरण कराया, तो भी वे अधिक से अधिक शुद्र की श्रेणी में आ सकते थे। क्यों कि ‘‘तोहफतुल हिंद’’ के लेखक जिनका पहला नाम ‘‘अनंत राम’’ था और उन्होंने इस्लाम कुबूल करने के बाद अपना नाम मुहम्मद उबैदुल्लाह रखा उन्होंने अपनी मशहूर किताब ‘‘तोहफतुल हिंद’’ में कर्मव्याक के हवाले से लिखा है कि अगर कोई शुद्र पुन्य के कार्य करे तो वह अगले जन्म मे वेशः की योनी में जाता हैं और अगर कोई वेशः पुनः के कार्य करे तो व क्षत्रीय की योनी में। ऐसे ही क्षत्रिय ब्राह्मण की योनी में और ब्राह्मण पुन्य करे तो उसकी मुक्ति हो जाती है।
Deleteपरन्तु यह व्यवस्था तो मरनोपरान्त की है, प्रश्न यह है कि महेन्द्रपाल जी जीते जी ब्राह्मण कैसे बन गये हैं।
यहाँ पर एक विकल्प और भी है उसे समझने के लिये हमें जानना होगा कि भारत में दो प्रकार के मुसलमान पाये जाते हैं अधिक संख्या तो उनकी है जो यहीं के मूल निवासी थे और यहां किसी जाति से सम्बन्धित थे, दूसरे जो (कम संख्या में हैं) वह बाहर से आये हुये हैं जो हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार मलेच्छ थे जिनका वर्णन ऊपर किया गया। अगर महेन्द्र पाल जी इसी दूसरे वर्ग से थे तो उन्हें यह अधिकार किसने दिया कि वह हिन्दू बनते ही उस के उच्च और स्वर्ण वर्ग में जा बैठें। और अगर वह मुसलमान रहते, पहले वर्ग से अर्थात उस वर्ग के मुसलमानों में से थे जो यहीं के मूल निवासी हैं तो यकीनन वह यहाँ की किसी न किसी जाति से सम्बन्धित रहे होंगे और उस में ब्राह्मण जाति भी हो सकती है। परन्तु यहां हमें यह याद रखना होगा कि भारतीय मुसलमानों में वे सभी जातियाँ पाई जाती है जो हिन्दुओ में हैं उदाहरण के बतोर जाट हिन्दू भी हैं मुसलमान भी हैं गुर्जर हिन्दू भी मुसलमान भी हैं। परन्तु कहीं ऐसा अवश्य हुआ है कि किसी जाति ने मुसलमान होकर अपने जाति सूचक शब्द का उर्दू में अनुवाद करके उसे अपना लिया जैसे कुम्हार जिसका कार्य बर्तन बनाना है जब इस जाति के लोग मुसलमान हुये तो वह कूज़गर कहलाये इस का अर्थ भी वही होता है यानी बर्तन बनाने वाला-तात्पर्य यह कि हर वह जाति जो हिन्दू समाज में पायी जाती हैं। वही सभी जातियां मुसलमानों में भी पायी जाती है। अर्थात यहां की सभी जातियों के कुछ न कुछ व्यक्तियों ने इस्लाम धर्म अवश्य कबूल किया है। परन्तु हमें यह भी याद रखना चाहिए कि भारत वर्ष की दो जातियाँ ऐसी है जो मुसलमानों में नहीं पायी जाती। स्पष्ट है कि उन जातियों ने इस्लाम धर्म कबूल नहीं किया होगा। वे दो जातियां हैं एक चमार और दूसरा ब्राह्मण। इस तथ्य के दृष्टिगत हम यह कह सकते हैं कि महेन्द्रपाल जी जो पूर्व में उनके कथनानुसार महबूब अली थे वह ब्राहमण समाज से कनवर्ट होकर बिलकुल नहीं आए थे कि घर वापसी के बाद वह ब्राह्मण(पंडित) बन गये। परन्तु महेन्द्रपाल जी ने तो हिन्दू धर्म स्वीकार करके पंड़िताई शुरु कर दी और इस प्रकार वह अधर्म के पात्र हुए।..isme koi shak hai kya....jra iska jwab do..tum to musalman kabhi nahi the sirf eak Bahrupiya ke roop me sub kuchh kiya.tune
देखना जो आप जानते हैं ,कितनी अज्ञानता है देखें आप जानते है की पण्डित जन्मसे होता है किसी पण्डित का बेटा अपढ़ हो, और वह जूता सिलता हो,लोग उसे चमार कहेंगे,या पंडित ? यह इल्म आप को कहाँ से मिलती. आप जानते है. की समाज में पण्डित ही बड़ा है पूजनीय है | अगर यही बात होती, तो जो राम क्षत्रीय कुलमे पैदा हुए, और पण्डित उन्हें पूजरहे है या नहीं ? कृष्ण कौन सा कूल में जन्म लिया, उन्हें कौन पूजते हैं ? हमारे यहाँ पूजा कर्म की होती है, विद्वानों की पूजा होती है, स्वदेशे पूज्यते राजा.विद्वान सर्वत्रे पूज्यते, राजा अपने ही देश में पूजे जाते हैं. विद्वान की पूजा हर जगह होती है | पर आप क्या जानोगे की विद्वान कौन और कैसे होते हैं, या विद्वान कहते किसे हैं ? कारण आप तो अपना अधिनायक,रास्ता देखानेवाला उन्हें मानते हैं. जो लिखने पढ़ने से कोई सम्पर्क, और सम्बन्ध, या ताल्लुक नहीं रखते थे |कुरान देखेंوَمِنْھُمْ اُمِّيُّوْنَ لَا يَعْلَمُوْنَ الْكِتٰبَ اِلَّآ اَمَانِىَّ وَاِنْ ھُمْ اِلَّا يَظُنُّوْنَ 78اور ان میں سے کچھ ایسے امی (اور ان پڑھ) ہیں جو کتاب کو
ReplyDeleteنہیں جانتے سوائے کچھ (بے بنیاد) امیدوں (اور آرزؤوں) کے، اور یہ لوگ محض ظن (و تخمین) پر چلے جا رہے ہیں،
अगर लोकाचार को देखेंगे,तो हम अपने शारीर से इसको देख और समझ भी सकते हैं, पर समझदारी अपने पास होनी चाहिए ना | वह समझदारी कही खरीदी नहीं जाती,वह तो आती हैं इल्म से और लोग इल्म को सीखते है,अपने इसी समझदारी को बढ़ा ने के लिए,की हमें जाहिल न कहें. अनपढ़. न कहदें.यही सब कारण है विद्यालय तक जानेका | पर करें तो क्या जो लोग यह समझते है. की भले ही विद्यालय में कुछभी पढ़े पर हम मानेगे अपनी बात जो इस किताब में हम पढ़ते हैं,इसके बाहर हम नहीं जाते| अब वह किताब अकल पर भले ही ताला डालने की बात करे, या कहे हम मानेगे उसी को | इसमें फिर पढ़ाने वाले की क्या गलती है. वह यही कहेंगे की मुर्ख कितनी बार समझाता हूँ, की यह बात दिमाग से कुबूल करने की नहीं है.किसलिए तू पढ़ा है इसके पीछे ? निरुत्तर हो कर भी अकल में ताला डाल कर उसी बात को मानने लगजाते हैं | जो ज्ञान विरुद्ध, विज्ञानं विरुद्ध, सृष्टि नियम विरुद्ध, यहाँ तक के मानवता विरुद्ध बात को अपने जीवन में उतारते है |वह किस प्रकार. तो फिर देखें وَاِذْ فَرَقْنَا بِكُمُ الْبَحْرَ فَاَنْجَيْنٰكُمْ وَاَغْرَقْنَآ اٰلَ فِرْعَوْنَ وَاَنْتُمْ تَنْظُرْنَ 50 اور (وہ بھی یاد کرو کہ) جب ہم نے پھاڑا سمندر کو تمہارے لئے راستہ بنانے کو، اور (پھر اسی میں) غرق کر دیا ہم نے (فرعون کو اور) فرعون والوں کو، جب کہ تم لوگ خود (اپنی آنکھوں سے یہ سب کچھ دیکھ رہے تھے ف ٧
अब ध्यान से देखें अल्लाहने क्या कहा =और वह भी याद करो की जब हमने फाड़ा समुन्दर को तुम्हारे लिए रास्ता बनाने को और फिर उसी में,गर्क कर दिया हमने फिराऊन. को जब की तुम लोग खुद अपनी आँखों से यह सब कुछ देख रहे थे |
अब देखें समुन्दर को अल्लाह ने फाड़ा किसी के लिए रास्ता बनाया, समुन्दर को बाँध कर रास्ता तो बनाते सुना और देखा भी, होलैंड में यह अपनी आँखों से देखकर आया, पर यह कुरान का कौन सा बिज्ञान है की समुन्दर को फाड़ा.गया ? और वह भी किसलिए फिराऊनिओं, को हलाक [मारने] के लिए. डुबोने के लिए | विचार करें की यह काम अगर अल्लाह का है तो डाकू, दश्यु. कातिल, हत्यारा दुनिया किसको कहेगी भला ? यह किस दिमाग से इसे तस्लीम किया जाये ? وَاِذِ اسْتَسْقٰى مُوْسٰى لِقَوْمِهٖ فَقُلْنَا اضْرِبْ بِّعَصَاكَ الْحَجَرَ ۭ فَانْفَجَرَتْ مِنْهُ اثْنَتَا عَشْرَةَ عَيْنًا ۭ قَدْ عَلِمَ كُلُّ اَُاسٍ مَّشْرَبَھُمْ ۭ كُلُوْا وَاشْرَبُوْا مِنْ رِّزْقِ اللّٰهِ وَلَا تَعْثَوْا فِى الْاَرْضِ مُفْسِدِيْنَ 60 اور (وہ بھی یاد کرنے کے لائق ہے کہ) جب موسیٰ نے اپنی قوم کیلئے (ہم سے) پانی کی درخواست کی، تو ہم نے ان سے کہا کہ مارو تم اپنی لاٹھی کو فلاں پتھر پر، پس (لاٹھی کا مارنا تھا کہ) اس سے پھٹ پڑے بارہ چشمے (اور بنی اسرائیل کے بارہ قبائل میں سے) ہر گروہ نے اچھی طرح (دیکھ اور) پہچان لیا اپنے گھاٹ کو، (اور ہم نے ان سے کہا کہ) کھاؤ پیو تم لوگ اللہ کے دئیے ہوئے میں سے، اور مت پھرو تم اس زمین میں فساد مچاتے
और वह भी याद करने के लायेक हैं.जब मूसा ने अपनी कौम के लिए हमसे पानी की दरख्वास्त की, तो हमने उनसे कहा के मारो तुम अपनी लाठी को फलाना पत्थर पर,पस लाठीका मारना था के उससे फूट पड़े बारा [12 ]चश्मे ,और बनी इस्राईल के बारा क़बाइल में से हर ग्रह ने अच्छी तरह देख और पहचान लिया अपने घाट को और हम ने उनसे कहा के खाव पियो तुमलोग अल्लाह के दिए हुए मेसे, और मत फिरो तुम इस जमीं में फ़साद मचाते |
Sala ye allah bhi ajib chutiya vyakti bhi he
Deleteअब पढ़े लिखे लोग ही बताएं की पत्थर से चश्मा [फौवारा ] फूट पड़ना या पानी निकलना इसमें कौन सी विज्ञानं की बात है ? और पढ़े लिखे लोग इसको किस प्रकार स्वीकार कर सकते हैं ? किन्तु मज़हब मंय इन्ही सब बातों का मानना ही है,यही तो अंतर है मज़हब में और धर्म में | तथा वर्तमान समय की भोगवादी [मादा परस्ती ]की लहर से बनी हुई लोगों की समझ है | इसके अतिरिक्त मजहब अथवा मतमतानन्तर, धर्म से भिन्न होने के कारण. मानव आपस में रक्तपात करने कराने में न देर लगाते और न हीं संकोच करते | भारत में राजनैतिक से जुड़े लोग अनुचित हस्ताक्षेप कर भारत में धर्म के नाम पर अधर्म करने वाले. मतमतान्तरों के अविद्या जनक आचार व्यवहार तथा साम्प्रोदायिक बैर विरोध और आपस में झगड़े हैं, और यह राष्ट्रीय एकता में वाधक है | यह एक अकाट्य सत्य है की जिससे मत मतान्तरों के अनुयायी भी इसे इंकार नहीं कर सकते, अथवा अपने माथे से इस कलंक को नहीं मिटा सकते |
ReplyDeleteये भाग १ का नजारा पेश किया.... बाकी भाग आपकी खिदमत में कल हाज़ीर होगा
ReplyDeleteमियां ये मैदान-ए-इल्म है
संभल कर पांव रखिये
दिल खुश कर दिया रोशन जी
ReplyDeleteब्लॉक कर दिया रोहन जी को
ReplyDeleteकब तक भागोगे सच्चाई से
ब्लॉक कर दिया रोहन जी को
ReplyDeleteकब तक भागोगे सच्चाई से
दिल खुश कर दिया रोशन जी
ReplyDeleteAslam Qasmi ji ....bhai mahender pal aarya ki nayi kitab ..jo aslam qasmi k naam se prakashit hain uska javab kon dega ..aap ke lekh ka har point ka javab hain wo bhi kuran se kyo ki hadishe to muslim log jhuthi thara dete hain ki yeh humari nahi hain yeh shiya logo ki hain ..yeh alvi ki hain yeh qadayni ki hain ........bhai qasmi ji ... history ki bat aap agar kare ge to aap ko bhyagne ki jagah nahi mile gi ......islam ki itni history gandi hain sayad kisi ki ho ..aap k sab sawalo ka ek javab kon se muslim desh me gair muslimo ko barabari ka haq hain wo desh batao ...nahi hain aap logo madarsho me sirf taqiya karna shikh kar aate hain bhudhi to bhai bhen k aulado me nahi hoti aap dr.. hain aap science accha janta hain ..jo jante honge ...aap ne jaisa quran ka arth likha hain ghuma phira ka wisa anuwad kis ne kiya hain quran ka naam bata dena rajm0378@gmail.com ..........................
ReplyDeleteआप खुद गुमराह हो चुके है और अब आप अपने चेलो को भी गुमराह होने से बच्चा नहीं पा रहे है क्योंकि महेंदर पाल आर्य ने खुद ही इस्लाम छोडने के बाद 15000 से अधिक गुमराह लोगो को सही राह वैदिक मार्ग पे लेकर आये !
ReplyDeleteआप का पूरा कुरान दोहरी बातो से भरा है एक बात को सही मानों तो दूसरा अपने आप सन्देह पैदा कर देता है ! महेंद्र पाल आर्य ने तो खुद ही चुनौती दे रखा है की कोई मुल्ला या इसाई बना दे किसी मे अगर दम है तो !!
Tera uttar to kab ka mil chuka hai tujhe kabhi pdha ya nahi le mai pest kar de rha hu padh leउत्तर
ReplyDeleteजिस आयत पर आपने आक्षेप किया है उसका सही अनुवाद यह है।
"ईमानवालों को चाहिए कि वे ईमानवालों के विरुद्ध काफिरों को अपना संरक्षक मित्र न बनाएँ, और जो ऐसा करेगा, उसका अल्लाह से कोई सम्बन्ध नहीं..." [सूरह आले इमरान, आयत 28]
इस आयत में जो अरबी शब्द "अवलिया" आया है। उसका मूल "वली" है, जिसका अर्थ संरक्षक है, ना कि साधारण मित्र। अंग्रेजी में इसको "ally" कहा जाता है। जिन काफिरों के बारे में यह कहा जा रहा है उनका हाल तो इसी सूरह में अल्लाह ने स्वयं बताया है। सुनिए।
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا بِطَانَةً مِنْ دُونِكُمْ لَا يَأْلُونَكُمْ خَبَالًا وَدُّوا مَا عَنِتُّمْ قَدْ بَدَتِ الْبَغْضَاءُ مِنْ أَفْوَاهِهِمْ وَمَا تُخْفِي صُدُورُهُمْ أَكْبَرُ ۚ قَدْ بَيَّنَّا لَكُمُ الْآيَاتِ ۖ إِنْ كُنْتُمْ تَعْقِلُونَ
"ऐ ईमान लानेवालो! अपनों को छोड़कर दूसरों को अपना अंतरंग मित्र न बनाओ, वे तुम्हें नुक़सान पहुँचाने में कोई कमी नहीं करते। जितनी भी तुम कठिनाई में पड़ो, वही उनको प्रिय है। उनका द्वेष तो उनके मुँह से व्यक्त हो चुका है और जो कुछ उनके सीने छिपाए हुए है, वह तो इससे भी बढ़कर है। यदि तुम बुद्धि से काम लो, तो हमने तुम्हारे लिए निशानियाँ खोलकर बयान कर दी हैं।" [सूरह आले इमरान, आयत 118]
पंडित जी, आप ही कहिए, ऐसे काफिरों से किस प्रकार मित्रता हो सकती है? यह तो एक स्वाभाविक बात है कि जो लोग हमसे हमारे धर्म के कारण द्वेष करें और हमें हर प्रकार से नुकसान पहुंचाना चाहें उन से कोई भी मित्रता नहीं हो सकती | कुरआन में गैर धर्म के भले लोगों से दोस्ती हरगिज़ मना नहीं है। सुनिए, कुरआन तो खुले शब्दों में कहता है।
لَا يَنْهَاكُمُ اللَّهُ عَنِ الَّذِينَ لَمْ يُقَاتِلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَلَمْ يُخْرِجُوكُمْ مِنْ دِيَارِكُمْ أَنْ تَبَرُّوهُمْ وَتُقْسِطُوا إِلَيْهِمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ ﴿٨﴾ إِنَّمَا يَنْهَاكُمُ اللَّهُ عَنِ الَّذِينَ قَاتَلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَأَخْرَجُوكُمْ مِنْ دِيَارِكُمْ وَظَاهَرُوا عَلَىٰ إِخْرَاجِكُمْ أَنْ تَوَلَّوْهُمْ ۚ وَمَنْ يَتَوَلَّهُمْ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ ﴿٩
"अल्लाह तुम्हें इससे नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ अच्छा व्यवहार करो और उनके साथ न्याय करो, जिन्होंने तुमसे धर्म के मामले में युद्ध नहीं किया और न तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला। निस्संदेह अल्लाह न्याय करनेवालों को पसन्द करता है अल्लाह तो तुम्हें केवल उन लोगों से मित्रता करने से रोकता है जिन्होंने धर्म के मामले में तुमसे युद्ध किया और तुम्हें तुम्हारे अपने घरों से निकाला और तुम्हारे निकाले जाने के सम्बन्ध में सहायता की। जो लोग उनसे मित्रता करें वही ज़ालिम है।" [सूरह मुम्ताहना; 60, आयत 8-9]
और सुनिए
يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا كُونُوا قَوَّامِينَ لِلَّهِ شُهَدَاءَ بِالْقِسْطِ ۖ وَلَا يَجْرِمَنَّكُمْ شَنَآنُ قَوْمٍ عَلَىٰ أَلَّا تَعْدِلُوا ۚ اعْدِلُوا هُوَ أَقْرَبُ لِلتَّقْوَىٰ ۖ وَاتَّقُوا اللَّهَ ۚ إِنَّ اللَّهَ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ
"ऐ ईमानवालो! अल्लाह के लिए खूब उठनेवाले, इनसाफ़ की निगरानी करनेवाले बनो और ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात पर उभार दे कि तुम इनसाफ़ करना छोड़ दो। इनसाफ़ करो, यही धर्मपरायणता से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो, निश्चय ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर हैं।" [सूरह माइदह 5, आयत 8]
अल्लाह कभी लोगों को नहीं बाँटते। सब अल्लाह के बन्दे हैं। लोग अपनी मूर्खता और हठ से बट जाते हैं। जो लोग सत्य को स्वीकार नहीं करते वह स्वयं अलग हो जाते हैं। इसमें अल्लाह का क्या दोष?
इन आयात से स्पष्ट होता है कि कुरआन सभी गैर मुस्लिमों से मित्रता करने से नहीं रोकता। तो यह है इस्लाम की शिक्षा जो सुलह, अमन और इन्साफ की शिक्षा है।
वेदों की शिक्षा
ते यं द्विष्मो यश्च नो द्वेष्टि तमेषां जम्भे दध्मः
"हम लोग जिस से अप्रीति करें और जो हम को दुःख दे उसको इन वायुओं की बीडाल के मुख में मूषे के सामान पीड़ा में डालें |" [यजुर्वेद 16:65 दयानन्द भाष्य]
वृश्च प्र वृश्च सं वृश्च दह प्र दह सं दह |
"तू वेद निन्दक को, काट डाल, चीर डाल, फाड़ डाल, जला दे, फूँक दे, भस्म कर दे।" भावार्थ: धर्मात्मा लोग अधर्मियों के नाश में सदा उद्यत रहें [अथर्ववेद काण्ड12: सूक्त 5: मंत्र 62 पण्डित क्षेमकरणदास त्रिवेदी भाष्य]
वेद निन्दक कोन है? कहीं आपको कोई आर्यसमाजी किसी शब्द जाल में न उलझाए, इस लिए में शास्त्रों के आधार पर ही व्याख्या कर देता हूँ| सुनिए आप के गुरु स्वामी दयानन्द क्या कहते हैं,
ReplyDelete“परमेश्वर की बात अवश्य माननीय है| इतने पर भी जो कोई इस को न मानेगा, वह नास्तिक कहावेगा, क्योंकि "नास्तिको वेदनिन्दकः"| वेद का निन्दक और न मानने वाला नास्तिक कहाता है|” [सत्यार्थ प्रकाश, समुल्लास 3, पृष्ट 74, प्रकाशक: श्रीमद दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश न्यास, उदयपुर, जुलाई 2010]
इस परिभाषा में वे सारे लोग आते हैं जिन की वेदों में आस्था नहीं है जैसे मुस्लिम, ईसाई, जैनी, बोद्ध आदि। इस से यह स्पष्ट होता है कि वेद अन्य धर्मों के लोगों को नष्ट करने की शिक्षा देता है.
और सुनिए
स्वामी दयानंद सरस्वती सत्यार्थ प्रकाश में ब्रह्मोसमाज और प्रर्थ्नासमाज की आलोचना करते हुए लिखते हैं,
"जिन्होंने अँगरेज़, यवन, अन्त्याजादी से भी खाने पीने का अंतर नहीं रखा। उन्होंने यही समझा कि खाने और जात पात का भेद भाव तोड़ने से हम और हमारा देश सुधर जाएगा लेकिन ऐसी बातों से सुधार कहाँ उल्टा बिगाड़ होता हे।" [सत्यार्थ प्रकाश, समुलास 11, पृष्ट 375 प्रकाशक: श्रीमद दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश न्यास, उदयपुर, जुलाई 2010]
यवन का अर्थ मुसलमान और अन्त्यज का अर्थ चंडाल होता है।
पंडित जी, मुसलमान और ईसाई कितने ही सदाचारी हों, स्वामी जी के अनुसार उनके साथ खाना उचित नहीं। यह पक्षपात नहीं तो और क्या है? क्या आप अब भी ऐसे 'आर्य समाज' में रहना पसंद करेंगे?
पंडित जी ने लिखा है कि गैर मुस्लिमों को हैवान कहना चाहिए| हम भला उनको हैवान क्यों कहें? यह तो आपके धर्म और गुरु की शिक्षा है कि आर्यावर्त की सीमाओं के बाहर रहने वाले सारे मनुष्य म्लेच्छ, असुर और राक्षस हैं| सुनिए ज़रा, दयानन्द जी मनुस्मृति के आधार पर क्या कह रहे हैं,
आर्य्यवाचो मलेच्छवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः| [मनुस्मृति 10/45]
मलेच्छ देशस्त्वतः परः| [मनुस्मृति 2/23]
“जो अर्य्यावर्त्त देश से भिन्न देश हैं, वे दस्यु और म्लेच्छ देश कहाते हैं| इस से भी यह सिद्ध होता है कि अर्य्यावार्त्त से भिन्न पूर्व देश से लेकर ईशान, उत्तर, वायव और पश्चिम देशों में रहने वालों का नाम दस्यु और म्लेच्छ तथा असुर है| और नैऋत्य, दक्षिण तथा आग्नेय दिशाओं में आर्य्यावर्त्त से भिन्न रहने वाले मनुष्यों का नाम राक्षस है| अब भी देख लो हब्शी लोगों का स्वरुप भयंकर जैसे राक्षसों का वर्णन किया है, वैसा ही दिख पड़ता है|” [सत्यार्थ प्रकाश, समुलास 8, पृष्ट 225-226 प्रकाशक: श्रीमद दयानन्द सत्यार्थ प्रकाश न्यास, उदयपुर, जुलाई 2010]
जिस ईश्वर ने वेदों में गैर लोगों से ऐसे भयंकर व्यव्हार की शिक्षा दी है और उनको दस्यु, राक्षस, और असुर के ख़िताब दिए हैं, वह ईश्वर पक्षपाती अवश्य है।
प्रश्न 2
ReplyDeleteउत्तर
पंडित जी के दुसरे प्रश्न में भी काफी गलतियाँ हैं|
गलती 1। फरिश्तों ने मिटटी लाने से मना किया। इस का कोई प्रमाण कुरआन से दीजिए। यदि पंडित के पास इसका प्रमाण नहीं दिखाएँ गे तो पंडित जी झूटे साबित हो जाएँ गे।
गलती 2। यह 'अजाजील' नाम आप कहाँ से ले आए? कुरआन में इब्लीस का वर्णन है। और यह भी आपने गलत कहा है कि वह फ़रिश्ता था। कुरआन तो स्पष्ट कहता हे कि इब्लीस जिन था [देखो सूरह 18: आयत 50]
गलती 3। 'अजाजील ने कहा की अल्लाह आपने तो आपको छोड़ दुसरे को सिजदा करने को मना किया था' यह भी गलत है'। इब्लीस ने ऐसा कभी नहीं कहा। पंडित जी कृपया कुरआन से अपने दावों का प्रमाण भी दिया करें। सजदा यहाँ सम्मान का प्रतीक है न कि इबादत का सजदा। वेदों में भी शब्द नमन (झुकना/सजदा) को ईश्वर के अलावा अन्य के लिए प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए देखियह ऋग्वेद 10/30/6
एवेद यूने युवतयो नमन्त
"जिस प्रकार युवतियें युवा पुरुष के प्रति नमती हैं.."
लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि यजुर्वेद में चोरों, तस्करों और डाकुओं को भी नमन किया गया है । उदाहरण के लिए देखिए यजुर्वेद अध्याय 16, मंत्र 21
नमो॒ वञ्च॑ते परि॒वञ्च॑ते अर्थात, छल से दूसरों के पदार्थों का हरण करने वाले और सब प्रकार से कपट के साथ व्यवहार करने वाले को प्रणाम
स्तायू॒नां पत॑ये॒ नमो॒ चोरों के अधिपति को प्रणाम
तस्क॑राणां॒ पत॑ये॒ नमो॒ तस्करी/डकैती करने वाले के अधिपति को प्रणाम
आशा है कि पंडित जी वेद की इन शिक्षाओं पर भी टिपण्णी करेंगे ।
गलती 4। यह आप ने ठीक कहा कि अल्लाह ने आदम को सारी वस्तुओं के नाम बताए। लेकिन आपत्ति करने से पहले इसका अर्थ तो समझ लेते। 'वस्तुओं के नाम सिखाना' प्रतीक है ज्ञान का। अर्थात आदम (मानवता) की विशेषता ज्ञान होगा। फरिश्तों ने एक शंका व्यक्त की थी कि क्या मनुष्य पृथ्वी पर बिगाड़ पैदा करे गा? उस शंका को दूर करने के लिए अल्लाह ने आदम को ज्ञान प्रदान किया। यही ज्ञान है जिसके कारण मनुष्य ने क्या क्या कारनामे नहीं किए हैं यहाँ तक कि इंसान चाँद पर भी पहुँच गया है। इस ज्ञान से इंसान ने हर वस्तु को अपने काबू में कर लिया।
हर वस्तु की अपनी विशेषता होती है और अल्लाह ने इंसान को ज्ञान प्राप्त कर तरक्की करने की विशेषता दी है। इसी ज्ञान से वह अल्लाह को भी पहचानता है। इस घटना से अल्लाह ने हमें यह समझाया है कि फ़रिश्ते, जिन और इंसान उतना ही जान सकते हैं जितना अल्लाह ने उन्हें ज्ञान दिया है।
गलती 5। आप कहते हैं कि 'अज़ाजील (इब्लीस) को गुस्सा आना स्वाभाविक था'। यह तो सरासर गलत है। इब्लीस ने आदम के सामने केवल घमंड के कारण सजदा (सम्मान) नहीं किया। कृपया कुरआन को ध्यान से पढ़िए । कुरआन कहता हे
قَالَ يَا إِبْلِيسُ مَا مَنَعَكَ أَنْ تَسْجُدَ لِمَا خَلَقْتُ بِيَدَيَّ ۖ أَسْتَكْبَرْتَ أَمْ كُنْتَ مِنَ الْعَالِينَ
(अल्लाह ने) कहा, "ऐ इबलीस! तूझे किस चीज़ ने उसको सजदा करने से रोका जिसे मैंने अपने दोनों हाथों से बनाया? क्या तूने घमंड किया, या तू कोई ऊँची हस्ती है?"
قَالَ أَنَا خَيْرٌ مِنْهُ ۖ خَلَقْتَنِي مِنْ نَارٍ وَخَلَقْتَهُ مِنْ طِينٍ
उसने कहा, "मैं उससे उत्तम हूँ। तूने मुझे आग से पैदा किया और उसे मिट्टी से पैदा किया।"[सुरह साद 38: आयत 75-76]
तो इससे सिद्ध होता है कि इब्लीस ने केवल घमंड के कारण अल्लाह की आज्ञा को नहीं माना। उसने अपने आप को दुसरे (आदम) से उच्च समझ लिया। इस लिए अल्लाह ने कोई पक्षपात नहीं किया| आपकी समझ का फेर है।
गलती 6। आप कहते हैं कि "अज़ाजील को नाम बताए बिना पुछा जाना कि अगर तुम सत्यवादी हो तो सभी चीज़ों के नाम बताओ"
आपक कृपया यह कुरआन से प्रमाण दीजिए कि इब्लीस (आपका अज़ाजील) को कहाँ पुछा नाम बताओ? नाम तो फरिश्तों से पूछे गए इब्लीस से नहीं। लगता हे आपने कुरआन ठीक से पढ़ा ही नहीं। आपने तो सारी घटना ही उलट पुलट बयान की है।
अब में आपकी कोन कोन सी गलती निकालूँ? इस प्रश्न से यह सारी गलतियाँ निकलने पर तो आपके प्रश्न में कुछ नहीं बचता।
प्रश्न 3
ReplyDeleteउत्तर
अल्लाह के मार्ग पर रहने का अर्थ समझ लीजियह। जब इंसान अल्लाह के उपदेश का पालन करे गा वह गुमराह नहीं होगा। और जब अल्लाह के उपदेशों से मुंह मोड़ लेगा तो गुमराह होगा। यदि वह पश्चाताप करके अपनी भूल को सुधारना चाहे तो वह फिर से सीधे मार्ग पर लोट आएगा। यदि सीधे मार्ग पर जल्दी से न लोटे तो गुमराही बढ जायह गी।
आदम अल्लाह के रास्ते पर थे लेकिन क्षण भर के लिए इब्लीस के बहकावे में आगए। उन्हों ने उस क्षण में अल्लाह की चेतावनी को भुला दिया। लेकिन फिर अपनी गलती का एहसास हुआ और अल्लाह से क्षमा चाही।
قَالَا رَبَّنَا ظَلَمْنَا أَنْفُسَنَا وَإِنْ لَمْ تَغْفِرْ لَنَا وَتَرْحَمْنَا لَنَكُونَنَّ مِنَ الْخَاسِرِينَ
अर्थात दोनों (आदम और उनकी पत्नी) बोले, "हमारे रब! हमने अपने आप पर अत्याचार किया। अब यदि तूने हमें क्षमा न किया और हम पर दया न दर्शाई, फिर तो हम घाटा उठानेवालों में से होंगे।" [सूरह आराफ 7:आयत 23]
आप पूछते हैं कि "अल्लाह ने चोर को चोरी करने व गृहस्ती को सतर्क रहने को कहा, क्या यह काम अल्लाह की धोकेबाज़ी का नहीं रहा?"
पंडित जी आप अल्लाह की सृष्टि निर्माण योजना को समझे ही नहीं हैं। इबलीस की चोर से तुलना करना मूर्खता है। चोर तो आज कल भी दुनिया में मिलते हैं, तो आप का ईश्वर उनका कुछ क्यों नहीं बिगाड़ लेता? क्या वह इस पाप को मिटाना नहीं चाहता? या मिटाने की क्षमता नहीं रखता? या पाप को फिलहाल न मिटाने में कोई विशेष नीति है? जो आप इस प्रश्न का उत्तर देंगे वही हमारी तरफ से उत्तर समझ लीजिए गा। फिलहाल संक्षेप में बता दूँ कि शैतान को मोहलत, नेकी और पुण्य की कीमत बढ़ाने के लिए दी गई।
कुरआन हमें यह बताता हे की हम इस दुनिया में परीक्षा से गुज़र रहे हैं।
الَّذِي خَلَقَ الْمَوْتَ وَالْحَيَاةَ لِيَبْلُوَكُمْ أَيُّكُمْ أَحْسَنُ عَمَلًا
"जिसने पैदा किया मृत्यु और जीवन को, ताकि तुम्हारी परीक्षा करे कि तुममें कर्म की दृष्टि से कौन सबसे अच्छा है।" [सूरह मुल्क 67; आयत 2]
इस प्रसंग में इब्लीस के प्रभाव का क्षेत्र केवल इतना है कि वह मनुष्य को पाप की और निमंत्रण देता है। उस निमंत्रण को स्वीकार या अस्वीकार करना हम पर निर्भर है। कुरआन हमें क़यामत के दिन इब्लीस के शब्दों की सुचना देता है। सुनिए
وَقَالَ الشَّيْطَانُ لَمَّا قُضِيَ الْأَمْرُ إِنَّ اللَّهَ وَعَدَكُمْ وَعْدَ الْحَقِّ وَوَعَدْتُكُمْ فَأَخْلَفْتُكُمْ ۖ وَمَا كَانَ لِيَ عَلَيْكُمْ مِنْ سُلْطَانٍ إِلَّا أَنْ دَعَوْتُكُمْ فَاسْتَجَبْتُمْ لِي ۖ فَلَا تَلُومُونِي وَلُومُوا أَنْفُسَكُمْ ۖ مَا أَنَا بِمُصْرِخِكُمْ وَمَا أَنْتُمْ بِمُصْرِخِيَّ ۖ إِنِّي كَفَرْتُ بِمَا أَشْرَكْتُمُونِ مِنْ قَبْلُ ۗ إِنَّ الظَّالِمِينَ لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ
"जब मामले का फ़ैसला हो चुकेगा तब शैतान कहेगा, "अल्लाह ने तो तुमसे सच्चा वादा किया था और मैंने भी तुमसे वादा किया था, फिर मैंने तो तुमसे सत्य के प्रतिकूल कहा था। और मेरा तो तुमपर कोई अधिकार नहीं था, सिवाय इसके कि मैंने तुम को (बुरे कामों की तरफ) बुलाया और तुमने मेरा कहा मान लिया; बल्कि अपने आप ही को मलामत करो, न मैं तुम्हारी फ़रियाद सुन सकता हूँ और न तुम मेरी फ़रियाद सुन सकते हो। पहले जो तुमने सहभागी ठहराया था, मैं उससे विरक्त हूँ। निश्चय ही अत्याचारियों के लिए दुखदायिनी यातना है" [सुरह इब्राहीम 14; आयत 22]
कैसा होगा वह समय जब कयामत के दिन शैतान आपसे भी यही कहेगा कि पंडित जी मैं ने आपकी कुछ झूठी बातों को सुनकर सोचा कि आपको पक्का झूटा बन जाने का निमंत्रण ही दे दूँ और आपने मेरा निमंत्रण स्वीकार कर लिया। तभी तो प्रश्न 2 में आपने दुनिया वालों को अपने पक्के झूटे होने का सबूत दे दिया।
यदि आपको यह समझ में नहीं आए तो आपको इसी दुनिया से कुछ उदाहरण आपके सामने रखता हूँ।
multiple choice question paper के बारे में शायद आपने सुना हो। यह अधिकतर परीक्षाओं में अपनाया जाता है, जिन से एक विद्यार्थी की वास्तविक योग्यता की जांच की जाती है। इस तरह की परीक्षा की विशेषता यह होती है कि विद्यार्थी को 4 विकाल्प दिए जाते हैं, जिन में से तीन गलत और एक सही होता है। जो विद्यार्थी इन में से अपने अध्ययन के आधार पर गलत जवाब से बच कर सही उत्तर दे, वह ही चयन के योग्य है। प्रश्न पत्र में नकारात्मक अंक (negative marking) भी होता है। हर गलत उत्तर के लिए 0.25 अंक काटे जाते हैं। यदि आपने multiple choice questions नहीं देखे हैं, तो में एक उदाहरण आपके समक्ष रखता हूँ।
ReplyDeleteप्रश्न: किसने यह आह्वान किया की “पुनः वेदों को अपनाएं”?
(A) रामकृष्ण परमहंस
(B) विवेकानंद
(C) ज्योतिबा फूले
(D) दयानन्द सरस्वती
अब इसका उत्तर तो आपको मालूम ही होगा। लेकिन सही उत्तर के साथ इसमें 3 गलत उत्तर भी रख दिए गए हैं। अब इस में सोचने की बात यह है की चयन करता ने जानते बूझते 3 गलत विकल्प उत्तर में क्यों डाले? और गलत विकल्प चुनने पर 0.25 अंक क्यों काटे? आप भी थोड़ा सा सोचिए। आपको स्वयं उत्तर मिल जाए गा।
अच्छा यह भी बताइए कि आप के ईश्वर ने ज़हर को क्यों पैदा किया? आपका उत्तर क्या होगा? क्या आपका ईश्वर धोकेबाज़ है?
वैदिक ईश्वर के कारनामे
यजुर्वेद अध्याय 30, मंत्र 5 में लिखा है कि लोगों को विभिन्न धर्मों और व्यवसायों में ईश्वर ने पैदा किया। जहां ईश्वर ने अच्छे व्यवसाय पैदा किए वहीं बुरे व्यवसाय भी पैदा किए। उसने जहां ब्रह्म॑णे ब्राह्म॒णं (वेद के लिए ब्रह्मण को पैदा किया), वहीं कामा॑य पुँश्च॒लूम(समागम के लिए वेश्या को पैदा किया)। जिस प्रकार ब्रह्मण का धर्म वेद है, क्षत्र्य का धर्म नीति की रक्षा, वैश्य का धर्म व्यापार, शूद्र का धर्म सेवा है, उसी प्रकार एक वेश्या का धर्म व्यभिचार है। दुनिया में जिस प्रकार हर कोई व्यक्ति अपना अपना धर्म फेला रहा है, इसी प्रकार, वह भी अपना धर्म फेला रही है, और अन्य लोगों के गुमराह होने का कारण बन रही है।
पंडित जी अब आप वैदिक ईश्वर को धोकेबाज़ कहें गे?
आप कहते हैं
"अवश्य कुरआन का तथा मुसलमानों का अल्लाह तो धोकेबाज़ हे ही। इसका प्रमाण कुरआन में ही मोजूद हे, देखें -
ReplyDeleteوَمَكَرُوا وَمَكَرَ اللَّهُ ۖ وَاللَّهُ خَيْرُ الْمَاكِرِينَ
अर्थ- मकर करते हैं वह, मकर करता हूँ में और में अच्छा मकर करने वाला हूँ.
मकर माने धोका। जो अल्लाह इंसान के साथ धोका करता हे, वह अल्लाह कोई अच्छा अल्लाह नहीं होसकता."
पंडित जी आपने तो कुरआन की इस आयत का अनुवाद ही बड़ा धोकेवाला किया है।
किसी वाक्य का अर्थ उसके प्रसंग के अनुसार करना चाहिए। क्या इतना भी आप को नहीं मालूम? कुरआन 3:54 के प्रसंग में शब्द 'मकर' का अर्थ है 'योजना' या 'तदबीर'। इसी कारण कुरआन के सारे अनुवादकों ने (गैर मुस्लिम अनुवादकों ने भी) इसके यही अर्थ किए हैं। अंग्रेजी अनुवादकों ने भी इसके अर्थ 'plan' या 'plot' के किए हैं। आयत का अर्थ यह हुआ की यहूदियों ने हज़रत ईसा को कष्ट पहुँचाने की खुफिया योजना बनाई और अल्लाह ने उनको बचाने की योजना बनाई और निसंदेह अल्लाह की योजना सब पर भारी है।
असल में आपके इस अरबी शब्द ‘मकर’ को हिन्दी का शब्द ‘मकर’ समझ लिया। यदि दो भाषाओं में समान उच्चारण (pronunciation) के दो शब्द हों, तो यह ज़रूरी नहीं कि उनका अर्थ भी समान हो। उदाहरण के लिए शब्द ‘गलीज़’ को लीजिए। उर्दू भाषा में इसका अर्थ है ‘नापाक’ या ‘गंदा’। लेकिन अरबी भाषा में ‘गलीज’ غلیظ का अर्थ होता है ‘दृढ़’। इसी प्रकार संस्कृत में ‘गो’ का अर्थ है ‘गाय’ लेकिन अङ्ग्रेज़ी में ‘गो’ (go) का अर्थ होता है ‘जाना’।
इसके अतिरिक्त पवित्र कुरआन के एक महत्वपूर्ण शब्दकोश, ‘मुफ़रदात अलकुरआन’ में ‘मकर’ (योजना) को दो प्रकार का बताया गया है।
1. मकरे महमूद (अच्छी योजना)
2. मकरे मज़मूम (बुरी योजना)
मुफ़रदात के रचेता (इमाम रागिब) ने मकरे महमूद (अच्छी योजना) की मिसाल यही सूरह आले इमरान की आयत 54 दी है। इसके अतिरिक्त सूरह 35 आयत 43 में ‘मकर’ शब्द के साथ ‘सय्यि` مَكْرَ السَّيِّئِ शब्द आया है, जिसके अर्थ होते हैं, बुरी तदबीर/योजना। यदि ‘मकर’ अपने आप में बुरा शब्द होता तो इसके साथ ‘सय्यि’ लगाना व्यर्थ होता। इस से साफ साबित होता है कि ‘मकर’ का अर्थ केवल योजना है और धोका, फरीब नहीं।
अरबी में यह शब्द कोई बुरा अर्थ नहीं रखता लेकिन हिंदी में बड़े घृणित अर्थों में बोला जाता हे जिसके कारण आपने आपत्ति की है.
वेद का धोकेबाज़ ईश्वर अपने शायद वेदों का अध्यन नहीं किया है। ऋग्वेद में अनेक जगह इन्द्र को मायी (धोकेबाज़) कहा गया हे। उदाहरण के तोर पर देखियह ऋग्वेद मण्डल 1, सूक्त 11, मंत्र 7
ReplyDeleteमायाभिरिन्द्र मायिनं तवं शुष्णमवातिरः |
विदुष टे तस्य मेधिरास्तेषां शरवांस्युत तिर ||
"हे इन्द्रदेव! अपनी माया द्वारा आपने 'शुषण' को पराजित किया। जो बुद्धिमान आपकी इस माया को जानते हैं, उन्हें यश और बल देकर वृद्धि प्रदान करें."
इस मंत्र का भावार्थ स्वामी दयानंद जी इस प्रकार करते हैं।
"बुद्धिमान मनुष्यों को ईश्वर आगया देता है कि- साम, दाम, दंड और भेद की युक्ति से दुष्ट और शत्रु जनों क़ी निवृत्ति करके चक्रवर्ति राज्य क़ी यथावत उन्नति करनी चाहिए"
पंडित जी, साम, दाम, दंड और भेद को तो आप जानते ही होंगे.
साम : बहलाना फुसलाना
दाम : धन देकर चुप कराना
दंड : यदि बहलाने फुसलाने से न माने तो ताड़ना करना
भेद : फूट डालना
इसके अतिरिक्त ऋग्वेद 4/16/9 में दयानन्द जी नें भी अपने भाष्य में 'मायावान' का अनुवाद 'निकृष्ट बुद्धियुक्त' किया है। पंडित जयदेव शर्मा (आर्य समाजी) ने अपने ऋग्वेद भाष्य में 'मायावान' का अनुवाद 'कुटिल मायावी' किया है। तो सिद्ध हो गया कि वैदिक ईश्वर मायी अर्थात धोकेबाज़ है।
पंडित जी आपके शब्दों में कहना चाहिए, "जो ईश्वर इंसान के साथ धोका करता है या इंसानों को धोके का उपदेश करता है, वह ईश्वर कोई अच्छा ईश्वर नहीं होसकता।"
Is vyakti ne na to kuran ka aryan ki ya na vaidik grantho akhir murkh bhudhi ka thara Or hamare pyare mahedra pal ko nasamaj baara rahe are tumse sau guna jamkar he or apni jhuti baate ddoor rakho kyoki allah nam ke vyakti ke pass akal nahi he na budhi nyaye to krna janta nahi pade dhong ki kami nahi tumhari baat isme sau fisadi jhuti he sab galat lekh likhe ho pahale hindi likh na sokh le murkh phir mahendar ji se baat krna
Deleteप्रश्न 4
ReplyDeleteउत्तर
हज़रत नूह ने अल्लाह से दुआ मांगी की दुनिया वालों को मेरे दीन में करदे, अल्लाह ने कुबूल नहीं की। जब नाश होने की दुआ मांगी तो अल्लाह ने कुबूल की। इसका प्रमाण कृपया कुरआन से दीजियह कि ऐसी दुआ कहाँ मांगी?
أَفَلَمْ يَاْيْئَسِ الَّذِينَ آَمَنُوا أَنْ لَوْ يَشَاءُ اللَّهُ لَهَدَى النَّاسَ جَمِيعًا
यदि अल्लाह चाहता तो सारे ही मनुष्यों को सीधे मार्ग पर लगा देता? [सूरह राद 13; आयत 31]
यह सही अनुवाद है। इसका अर्थ आपने गलत किया है। अल्लाह ने सारे लोगों को मोहलत दी है एक निर्धारित समय तक। यह हम सब की परीक्षा है जिसमें हमें सत्य स्वीकार या अस्वीकार करने की स्वतंत्रता है। जो व्यक्ती चाहे तो माने और जो चाहे न माने। अब अल्लाह के चाहने को आप मनुष्य के चाहने के सामान मत समझिए। यहाँ तो अल्लाह एक सिद्धांत बता रहे हैं कि यदि अल्लाह चाहते तो सारे इंसान आस्तिक बनजाते। उदाहरण के लिए यह धरती देखिए जो अल्लाह के निर्धारित नियमों के अनुसार अपना चक्कर लगा रही है। क्या धरती को यह स्वतंत्रता है कि वह अपने ग्रहपथ से बाहर निकले? नहीं। क्योंकि धरती में हमारी तरह स्वतंत्र इच्छा (free will) नहीं है। तो यही बात हमें अल्लाह समझा रहे हैं। अल्लाह को हिन्दू मुस्लिम् लड़ाई देखना पसंद नहीं, लेकिन यह तो हमारी मूर्खता है कि हम लड़ते हैं, या आप जैसे लोग लड़वाते हैं। क्या आपके वैदिक ईश्वर को लड़ाई पसंद है जो वेदों के हर प्रष्ट पर लड़ाई का कोई न कोई मंत्र है?
अब सूरह नूह 71; आयत 26-28 पर आते हैं जिसका मैं सही अनुवाद आपके सामने कर दूं क्योंकि आपको गलत तर्जुमा करने की आदत है
وَقَالَ نُوحٌ رَبِّ لَا تَذَرْ عَلَى الْأَرْضِ مِنَ الْكَافِرِينَ دَيَّارًا
और नूह ने कहा, "ऐ मेरे रब! धरती पर इनकार करनेवालों में से किसी बसने वाले को न छोड़
إِنَّكَ إِنْ تَذَرْهُمْ يُضِلُّوا عِبَادَكَ وَلَا يَلِدُوا إِلَّا فَاجِرًا كَفَّارًا
यदि तू उन्हें छोड़ देगा तो वे तेरे बन्दों को पथभ्रष्ट कर देंगे और वे दुराचारियों और बड़े अधर्मियों को ही जन्म देंगे
رَبِّ اغْفِرْ لِي وَلِوَالِدَيَّ وَلِمَنْ دَخَلَ بَيْتِيَ مُؤْمِنًا وَلِلْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ وَلَا تَزِدِ الظَّالِمِينَ إِلَّا تَبَارًا
ऐ मेरे रब! मुझे क्षमा कर दे और मेरे माँ-बाप को भी और हर उस व्यक्ति को भी जो मेरे घर में ईमानवाला बन कर दाख़िल हुआ और (सामान्य) ईमानवाले पुरुषों और ईमानवाली स्त्रियों को भी (क्षमा कर दे), और ज़ालिमों के विनाश को ही बढ़ा।"
पंडित जी, यह प्रार्थना तो उन पापियों को नष्ट करने के लिए थी जिन का पाप हद से बढ़ गया था और ईमानवालों (अर्थात जो भले लोग हों) को बचाने की प्रार्थना है। इसमें आपको स्वार्थ कैसे नज़र आया? यदि अल्लाह उन पापी काफिरों (अल्लाह के भले मार्ग पर न चलने वाले) को नष्ट नहीं करता तो वे दुनिया में पाप को फैलाते जैसा कि आयत 27 से ज़ाहिर है। दुराचारियों को नष्ट करने और सदाचारियों की रक्षा करने की प्राथना करना कोनसी स्वार्थपरता है?
ReplyDeleteवेदों की स्वार्थी प्रार्थनाएं
किं ते कर्ण्वन्ति कीकटेषु गावह नाशिरं दुह्रे न तपन्तिघर्मम |
आ नो भर परमगन्दस्य वेदो नैचाशाखं मघवन्रन्धया नः ||
हे इन्द्र, अनार्य देशों के कीकट वासियों की गौओं का तुम्हे क्या लाभ है? उनका दूध सोम में मिला कर तुम पी नहीं सकते। उन गौओं को यहाँ लाओ। परमगन्द (उनके राजा), की संपत्ति हमारे पास आजाए। नीच वंश वालों का धन हमें दो। [ऋग्वेद 3/53/14]
पंडित जी, यह अनार्यों के धन और संपत्ति को लूटने की कैसी प्राथना वेदों में की गई है?
'कीकट' शब्द की व्याख्या करते हुए यास्क आचार्य ने 'निरुक्त' में लिखा है,
कीकटा नाम देशो अनार्यनिवासः [निरुक्त 6/32]
अर्थात कीकट वह देश है जहां अनार्यों का निवास है। इस पर टिप्पणी करते हुए प्रसिद्ध आर्यसमाजी विद्वान पं. राजाराम शास्त्री ने लिखा है- "कीकट अनार्य जाती थी, जो बिहार में कभी रहती थी, जिस के नाम पर बिहार का नाम कीकट है." (निरुक्त, पृ। 321, 1914 ई.)।
स्वामी दयानंद ने 'कीकटाः' का अर्थ करते हुए लिखा है-
"अनार्य के देश में रहने वाले मलेच्छ "
तो पंडित जी अब आप ही फेसला कीजिए कि यह दूसरों का धन लूटने की स्वार्थी प्रार्थना है या नहीं। मैंने केवल एक उदाहरण दिया अन्यथा ऐसी स्वार्थी प्रार्थनाओं के अतिरिक्त वेदों में कुछ और है भी नहीं।
प्रश्न 5
ReplyDeleteउत्तर
पंडित जी, आपके इस प्रश्न का न तो सर है न पैर। जिस आयत पर आप प्रश्न कर रहे हैं ऐसी पवित्र शिक्षा आपको सारे वैदिक शास्त्रों में नहीं मिले गी। आयत तो आपने कुछ ठीक लिखी है लेकिन इस से गलत बात साबित करने की कोशिश की है। सुनिए आयत का सही अनुवाद-
وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُمْ مِنْ أَنْفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُمْ مَوَدَّةً وَرَحْمَةً
"और यह भी अल्लाह की निशानियों में से है कि उसने तुम्हारी ही सहजाति से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए, ताकि तुम उसके पास शान्ति प्राप्त करो। और उसने तुम्हारे बीच प्रेंम और दयालुता पैदा की" [सूरह रूम 30; आयत 21]
निश्चय, पति पत्नी के बीच में प्रेम और दयालुता अल्लाह ने ही डाली हैं। लेकिन उस प्रेम और हमदर्दी की क़दर करना हम पर निर्भर है। अल्लाह ने मां और बच्चे के बीच में भी अपार प्रेम डाला है, लेकिन किसी समय मां को अपने बच्चे के साथ दृढ़ता से पेश आना पड़ता है जब बच्चा गलती करता है। मां और बच्चे का रिश्ता एक प्राकृतिक रिश्ता है, लेकिन पति-पत्नी का रिश्ता बनाया जाता है। आप अपनी ही मिसाल लीजिए। आज आप आर्य समाज के सदस्य हैं। हो सकता है कल आप इस्लाम के अनुयायी बन जाएं।
तो निश्चय ही पति-पत्नी के रिश्ते में अल्लाह ने प्रेम और हमदर्दी डाली होती है, परन्तु केवल वही इस प्रेम और हमदर्दी का अनुभव कर सकते हैं जो एक दुसरे से संतुष्ट हों और एक दुसरे के स्वभाव को समझते हों। इस आयत का तलाक़ के विधान के साथ कोई सम्बन्ध नहीं.
तलाक़ का विधान अवश्य कुरआन में है और कुरआन से ही प्रभावित हो कर हिन्दू समाज ने भी अपना लिया है। कुरआन में तो एक पूरा अध्याय तलाक़ के विधान पर है जिसको सूरह तलाक़ (सूरह 65) कहा जाता है। तलाक़ का विधान बिलकुल प्राकृतिक है। यदि पति-पत्नी के बीच में अन्य कारण प्रेम और हमदर्दी पर हावी होजाएं तो तलाक़ बिलकुल प्राकृतिक है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि किसी भी कारण के बगैर पति अपनी पत्नी को तलाक़ दे। कुरआन के अनुसार तलाक़ एक गंभीर मामला है जो गंभीर स्थितिओं में पेश आता है। मगर इस अत्यंत भावुक मामले में भी शालीनता और सद्व्यवहार पर कायम रहने का हुक्म दिया गया है।
जिस आयत को आपने अधूरा पेश किया है और उसका अनुवाद भी सरासर गलत किया है, पहले में वह पाठकों के सामने रख दूं-
الطَّلَاقُ مَرَّتَانِ ۖ فَإِمْسَاكٌ بِمَعْرُوفٍ أَوْ تَسْرِيحٌ بِإِحْسَانٍ ۗ وَلَا يَحِلُّ لَكُمْ أَنْ تَأْخُذُوا مِمَّا آتَيْتُمُوهُنَّ شَيْئًا إِلَّا أَنْ يَخَافَا أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ اللَّهِ ۖ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلَّا يُقِيمَا حُدُودَ اللَّهِ فَلَا جُنَاحَ عَلَيْهِمَا فِيمَا افْتَدَتْ بِهِ ۗ تِلْكَ حُدُودُ اللَّهِ فَلَا تَعْتَدُوهَا ۚ وَمَنْ يَتَعَدَّ حُدُودَ اللَّهِ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ [٢:٢٢٩
"तलाक़ दो बार है। फिर सामान्य नियम के अनुसार (स्त्री को) रोक लिया जाए या भले तरीक़े से विदा कर दिया जाए। और तुम्हारे लिए वैध नहीं है कि जो कुछ तुम उन्हें दे चुके हो, उसमें से कुछ ले लो, सिवाय इस स्थिति के कि दोनों को डर हो कि अल्लाह की (निर्धारित) सीमाओं पर क़ायम न रह सकेंगे तो यदि तुमको यह डर हो कि वे अल्लाह की सीमाओ पर क़ायम न रहेंगे तो स्त्री जो कुछ देकर छुटकारा प्राप्त करना चाहे उसमें उन दोनो के लिए कोई गुनाह नहीं। यह अल्लाह की सीमाएँ है। अतः इनका उल्लंघन न करो। और जो कोई अल्लाह की सीमाओं का उल्लंघन करे तो ऐसे लोग अत्याचारी है" [सूरह बक़रह; आयत 229]
पंडित जी, आपने जो प्रश्न इस आयत पर किया है वैसा कुछ भी इस आयत में है ही नहीं। उल्टा इस आयत में तलाक़ देने का सही ढंग सिखाया गया है और वह यह है कि पत्नी की पवित्रता की अवस्था में पति एक तलाक़ दे। इसके बाद तीन मासिक धर्म (three menstrual cycles ), जो इद्दत का समय है, बीतने पर पति-पत्नी का सम्बन्ध टूट जाएगा और वही स्त्री किसी दुसरे से विवाह कर सकेगी। तीन महीने के अंतराल में यदि ये फिर से वापस आना चाहें तो आ सकते हैं।
ReplyDeleteयह एक वापस ली जाने वाई तलाक़ है। ऐसी तलाक़ केवल दो बार हो सकती है, जिस का ढंग यह है-
१। यदि पति तलाक़ दे तो इद्दत (तीन मासिक धर्म अर्थात तीन महीने) के अन्दर रुजूअ हो सकता है। यदि इद्दत बीत जाए और रुजू न करे तो नए महर के साथ ही नया निकाह संभव है। यदि इस निकाह के बाद फिर किसी कारण से तलाक़ होजाए तो निश्चित इद्दत के अन्दर वे रुजूअ कर सकते हैं। यदि यह इद्दत भी बीत जाए तथा रुजू न करें तो नए महर के साथ ही नया विवाह हो सकता है।
२। परन्तु यदि फिर तीसरी बार तलाक़ दे तो यह तलाक़ अंतिम होगी। अब वे इद्दत के अन्दर रुजूअ नहीं कर सकते और ना ही इद्दत के बाद नए महर के साथ नया विवाह हो सकता है। हाँ, यदि वह स्त्री किसी अन्य पुरुष से विवाह करले और वह पति स्वयं मर जाए या उसे तलाक़ दे, तो ही पहले पति से फिर विवाह संभव है और वह भी ज़बरदस्ती नहीं। लेकिन यहाँ एक बात का ध्यान दें कि दूसरा पति किसी निर्धारित योजना के अधीन स्त्री को तलाक़ दे ताकी वह स्त्री पहले पति से विवाह कर सके, यह इस्लाम में हराम है और हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) ने फरमाया है कि ऐसे पुरुष पर अल्लाह का अभिशाप (लानत) है। जिस हलाला की आप बात कर रहे हैं वह इस्लाम में जायज़ है ही नहीं।
यहाँ प्रश्न यह है कि जो पति अपनी पत्नी को परेशान करने के लिए तीन बार तलाक दे चूका ऐसे पुरुष से वह स्त्री फिर से विवाह क्यों करे गी? कुरआन तो पहले ही बता चूका है कि पति-पत्नी का रिश्ता पवित्र रिश्ता होता है जिस में प्रेम और हमदर्दी हो। अगर पति-पत्नी की आपस में नहीं बनती तो पहले मामला बात चीत से हल करना चाहिए। यदि समस्या हल हो जाए तो ठीक और यदि लगे कि तलाक़ के सिवा कोई और रास्ता नहीं तब ही उसका उपयोग करना चाहिए। लिहाज़ा हलाला जैसी बुरी चीज़ की कोई अवधारणा इस्लाम में नहीं। यह केवल इंडिया, पाकिस्तान और बंगलादेश में मुसलमानों की अज्ञानता की समस्या है। इस्लाम में ऐसा कुछ भी नहीं।
ReplyDelete३। इस आयत ने स्पष्ट कर दिया कि तलाक़ हमेशा अहसन (भले तरीक़े से) हो। स्त्री को जो महर दिया हो उसको वापस नहीं लेना चाहिए क्योंकि उस पर स्त्री का अधिकार है। यदि पति अपनी पत्नी को परेशान करने के लिए तलाक़ के हरबे इस्तेमाल कर रहा हो तो पत्नी को चाहिए कि वह न्यायाले के पास जाए और सामान्य नियम के अनुसार उस पति से अलग हो जाए.
हिन्दू धर्म और तलाक़
हिन्दू विवाह अधिनियम,1955 के अनुसार विशेष स्थितियों में, यथा दुष्ट स्वभाव, मूर्ख, व्यभिचारी, नामर्द होने पर स्त्री अपने पति को तलाक़ दे सकती है। लेकिन हिन्दू धर्म में तलाक़ का कोई प्रावधान नहीं है। इस्लाम से ही प्रभावित होकर हिन्दू समाज ने भी तलाक केपरवधान को अपना लिया। पति चाहे दुष्ट स्वभाव वाला, मूर्ख, और रोगी हो तब भी हिन्दू धर्म के अनुसार स्त्री उसे नहीं छोड़ सकती। उसे अपने ही पति के साथ जीना और मरना है।
नियोग प्रथा
पंडित जी आप ने हलाला की गैर इस्लामी अवधारणा पर तो प्रश्न किया लेकिन अपने वैदिक धर्म की मूल शिक्षा 'नियोग' को भूल गए। नियोग के नाम पर अपनी पत्नी को अन्य पुरुषों से बे आबरू कराना, यह आपकी वैदिक सभ्यता है जिसे आप इस्लाम पर लादने का प्रयास कर रहे हैं। नियोग प्रथा के अनुसार नारी को न केवल निम्न और भोग की वस्तु और नाश्ते की प्लेट समझा गया है बल्कि बच्चे पैदा करने की मशीन बनाया गया है। और 'नियोग' का कारण भी क्या निराला है! केवल एक पुरुष के संतान उत्पन्न करने के लिए 'नियोग' का घटिया प्रावधान वैदिक धर्म में है। नियोग पर मेरी टिपण्णी के लिए देखियह प्रश्न 15 का उत्तर.
प्रश्न 6
ReplyDeleteउत्तर
यहाँ आप काफिरों को क़त्ल करने पर आपत्ति कर रहे हैं, लेकिन आपने तो उन आयातों का ऐतिहासिक संदर्भ समझा ही नहीं। जो आयत आप पेश कर रहे हैं उसका आपने अनुवाद गलत किया है और हवाला भी गलत है। सही हवाला सूरह बक़रह की आयत 193 है जिसका सही अनुवाद यह है,
وَقَاتِلُوهُمْ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتْنَةٌ وَيَكُونَ الدِّينُ لِلَّهِ ۖ فَإِنِ انْتَهَوْا فَلَا عُدْوَانَ إِلَّا عَلَى الظَّالِمِينَ
अर्थात तुम उनसे लड़ो यहाँ तक कि फ़ितना शेष न रह जाए और दीन (धर्म) अल्लाह के लिए हो जाए। अतः यदि वे बाज़ आ जाएँ तो अत्याचारियों के अतिरिक्त किसी के विरुद्ध कोई क़दम उठाना ठीक नहीं [सूरह बक़रह; आयत 193 और सूरह अन्फाल; आयत 31]
पंडित जी, उस व्यक्ति को क्या कहें जो एक वाक्य को उसके प्रसंग में न देखे? इस आयत का सही अर्थ जानने के लिए आयत 191 से पढ़िए
وَقَاتِلُوا فِي سَبِيلِ اللَّهِ الَّذِينَ يُقَاتِلُونَكُمْ وَلَا تَعْتَدُوا ۚ إِنَّ اللَّهَ لَا يُحِبُّ الْمُعْتَدِينَ
और अल्लाह के मार्ग में उन लोगों से लड़ो जो तुमसे लड़े, किन्तु ज़्यादती न करो। निस्संदेह अल्लाह ज़्यादती करनेवालों को पसन्द नहीं करता
وَاقْتُلُوهُمْ حَيْثُ ثَقِفْتُمُوهُمْ وَأَخْرِجُوهُمْ مِنْ حَيْثُ أَخْرَجُوكُمْ ۚ وَالْفِتْنَةُ أَشَدُّ مِنَ الْقَتْلِ ۚ وَلَا تُقَاتِلُوهُمْ عِنْدَ الْمَسْجِدِ الْحَرَامِ حَتَّىٰ يُقَاتِلُوكُمْ فِيهِ ۖ فَإِنْ قَاتَلُوكُمْ فَاقْتُلُوهُمْ ۗ كَذَٰلِكَ جَزَاءُ الْكَافِرِينَ
और जहाँ कहीं उनपर क़ाबू पाओ, क़त्ल करो और उन्हें निकालो जहाँ से उन्होंने तुम्हें निकाला है, इसलिए कि फ़ितना (उत्पीड़न) क़त्ल से भी बढ़कर गम्भीर है। लेकिन मस्जिदे हराम (काबा) के निकट तुम उनसे न लड़ो जब तक कि वे स्वयं तुमसे वहाँ युद्ध न करें। अतः यदि वे तुमसे युद्ध करें तो उन्हें क़त्ल करो - ऐसे इनकारियों का ऐसा ही बदला है
فَإِنِ انْتَهَوْا فَإِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَحِيمٌ
फिर यदि वे बाज़ आ जाएँ तो अल्लाह भी क्षमा करनेवाला, अत्यन्त दयावान है
وَقَاتِلُوهُمْ حَتَّىٰ لَا تَكُونَ فِتْنَةٌ وَيَكُونَ الدِّينُ لِلَّهِ ۖ فَإِنِ انْتَهَوْا فَلَا عُدْوَانَ إِلَّا عَلَى الظَّالِمِينَ
तुम उनसे लड़ो यहाँ तक कि फ़ितना शेष न रह जाए और दीन (धर्म) अल्लाह के लिए हो जाए। अतः यदि वे बाज़ आ जाएँ तो अत्याचारियों के अतिरिक्त किसी के विरुद्ध कोई क़दम उठाना ठीक नहीं
इन आयतों से पता चलता हे कि यह युद्ध धार्मिक अत्याचार का अंत करने के लिए लड़ा जारहा था। क्योंकि आयत 191 और 192 में स्पष्ट लिखा है कि यह लड़ाई केवल उनसे थी जो मुसलमानों पर उनके धर्म के कारण अत्याचार कर रहे थे। मक्का में 13 वर्ष तक मुसलमान मूर्ति पूजकों का अत्याचार सहते रहे और उसके बाद उन्हें वहाँ से निकल कर मदीना जाना पड़ा। मदीना में आने के बाद भी मूर्ति पूजकों ने उन्हें शान्ति से बेठने नहीं दिया, और युद्ध के लिए मजबूर किया। इसी प्रसंग में आयत 193 को देखना चाहिए। इस आयत में अरबी शब्द 'फ़ितना' का अर्थ 'धार्मिक अत्याचार' है जिसका अंत इस्लाम ने किया। 'अल्लाह के लिए दीन होजाने' का अर्थ यह है कि मज़हबी आज़ादी (धार्मिक स्वतंत्रता) होजाए। तो इस आयत पर आपके आक्षेप का कोई आधार नहीं है.
इसके अतिरिक्त कुरआन में जो भी आयतें काफिरों को मारने के लिए आई हैं वे सब युद्ध की स्थितियों से सम्बंधित आयतें हैं। इसकी व्याख्या मैंने प्रश्न 1 के उत्तर में करदी है.
वेदों की निर्दयी शिक्षा
ReplyDeleteवेदों के वचन भी सुनिए
"धर्म के द्वेषी शत्रुओं को निरन्तर जलाइए।... नीची दशा में करके सूखे काठ के समान जलाइए." [यजुर्वेद 13/12 दयानन्द भाष्य]
“हे, तेजस्वी विद्वान पुरुष।... धर्म के अनुकूल होके दुष्ट शत्रुओं को ताड़ना दीजिए...शत्रुओं के भोजन के और अन्य व्यवहार के स्थान को अच्छे प्रकार प्रकार विस्तारपूर्वक नष्ट कीजिये और शत्रुओं को बल के साथ मारिए...” [यजुर्वेद मंत्र 13] इसके विपरीत इस्लाम हमें यह शिक्षा देता है कि युद्ध में भी खाद्य पदार्थों को नष्ट नहीं करना चाहिए और वृक्षों को नहीं जलाना चाहिए।
“हे वीर पुरुष। जैसे हम लोग जो शस्त्र-अस्त्र वैरी की कामनाओं को नष्ट करता है, उस धनुष आदि शस्त्र-अस्त्र विशेष से प्रथिवियों को और उक्त शस्त्र विशेष से संग्राम को जीते...” [यजुर्वेद अध्याय 29, मंत्र 39] यहाँ तो वैदिक धर्मी सारी प्रथिवि को शास्त्रों से जीतने का सपना देख रहे हैं।
इस्लाम ने हमें युद्ध का यह सिद्धांत सिखाया है कि युद्ध में कभी भी स्त्रियॉं, बच्चों और बूढ़ों की हत्या नहीं करनी चाहिए। लेकिन इसके विपरीत वेद यह शिक्षा देते हैं कि अपने शत्रुओं के गोत्रों और परिवार की बेदर्दी से हत्या करो। सुनिए,
“तुम लोग अपने शरीर और बुद्धि वा बल वा सेनजनों से जो कि शत्रुओं के गोत्रों अर्थात समुदायों को चिन्न-भिन्न करता, उनकी जड़ काटता, शत्रुओं की भूमि को ले लेता, अपनी भुजाओं में शास्त्रों को रखता, अच्छे प्रकार शत्रुओं को मारता, जिससे वा जिसमें शत्रुओं को पटकते हैं, उस संग्राम में वैरियों को जीत लेता और उनको विदीर्ण करता, इस सेनापति को प्रोत्साहित करो और अच्छे प्रकार युद्ध का आरम्भ करो।” [यजुवेद 17/38, दयानन्द भाष्य]
स्वामी दयानन्द सरस्वती ऋग्वेद 1/7/4 के भावार्थ में लिखते हैं
"परमेश्वर का यह स्वभाव है कि युद्ध करने वाले धर्मात्मा पुरुषों पर अपनी कृपा करता है और आलसियों पर नहीं। जो मनुष्य जितेन्द्रिय विद्वान आलस्य को छोड़े हुए बड़े बड़े युद्धों को जीत के प्रजा को निरंतर पालन करते हैं, वह ही महाभाग्य को प्राप्त होके सुखी रहते हैं."
क्या आपके ईश्वर के जिम्मे यही काम रह गया है कि लोगों को एक दुसरे से लड़ने का आदेश देता रहे? तो उस ईश्वर का भक्त कैसा होगा? प्रमाण है बोद्धों, जैनियों और अन्य नास्तिक समुदायों पर हिन्दुओं के अत्याचार जो इतिहास से साबित होते हैं। इन अत्याचारों के बारे में स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश' में आदि शंकराचार्य के सन्दर्भ में संक्षेप में लिखा है.
"दस वर्ष के भीतर सर्वत्र आर्यावर्त में शंकराचार्य ने घूम कर जैनियों का खंडन और वेदों का मण्डन किया। परन्तु शंकराचार्य के समय में जैन विध्वंस अर्थात जितनी मूर्तियाँ जैनियों की निकलती हैं। वे शंकराचार्य के समय में टूटी थीं और जो बिना टूटी निकलती हैं वे जैनियों ने भूमि में गाड दी थीं की तोड़ी न जाएँ। वे अब तक कहीं भूमि में से निकलती है।" [सत्यार्थ प्रकाश, समुल्लास 11]
पंडित जी देखिए जैनियों पर कितना अत्याचार किया था हिन्दुओं ने। उनकी मूर्तियाँ भी तोड़ डाली थीं।
Islam ki nirdayi shiksha nahi bataoge. Dharm matlab dharan arthat purn vaidik ma jhute mat samjh
DeleteKuran jis vyakti ne likhi us sab ne sabko befkuf bana ya par hamare yaha esa nahi
प्रश्न 7
ReplyDeleteउत्तर
إِنَّ الصَّلَاةَ تَنْهَىٰ عَنِ الْفَحْشَاءِ وَالْمُنْكَرِ
निस्संदेह नमाज़ अश्लीलता और बुराई से रोकती है। [सूरह अन्कबूत 29; आयत 45]
आप यह प्रश्न कर रहे हैं कि यदि नमाज़ बुराई से रोकती है तो नमाज़ पढने वाले ही बुराई क्यों कर रहे हैं? नमाज़ से यहाँ केवल उसका प्रकट रूप तात्पर्य नहीं है। बल्कि नमाज़ की आंतरिक भावना तात्पर्य है। जो व्यक्ति हकीकी नमाज़ पढ़ रहा हो, जिस में वह पूरे ध्यान के साथ अपने आप को अल्लाह के सामने महसूस कर रहा हो, वही वास्तविक नमाज़ होगी। जो व्यक्ति नमाज़ ध्यान से नहीं पढ़ते उनके बारे में तो कुरआन स्पष्ट कहता है कि वह नमाज़ अल्लाह स्वीकार नहीं करते। सुनिए-
فَوَيْلٌ لِلْمُصَلِّينَ
अतः तबाही है उन नमाज़ियों के लिए,
الَّذِينَ هُمْ عَنْ صَلَاتِهِمْ سَاهُونَ
जो अपनी नमाज़ से ग़ाफिल (असावधान) हैं, [सूरह माऊन 107; आयत 4-5]
इस से सिद्ध होता है कि जो व्यक्ति नमाज़ पढ़ के भी बुराई करे वह वास्तव में केवल प्रकट रूप से नमाज़ पढता है, आतंरिक भावना से नहीं.
प्रश्न 8
उत्तर
यह एक आपका निराला प्रश्न है। मुझे तो इसका उत्तर देते हुए भी शर्मिंदगी हो रही है। कुरआन में नरक से मुक्ति और स्वर्ग की प्राप्ति के 4 सिद्धांत बतायह गए हैं। जो व्यक्ति इस मापदंड पर पूरा उतरे गा, वही नरक से बच जाए गा। कुरआन में आता है-
وَالْعَصْرِ
गवाह है गुज़रता समय
إِنَّ الْإِنْسَانَ لَفِي خُسْرٍ
कि वास्तव में मनुष्य घाटे में है,
إِلَّا الَّذِينَ آمَنُوا وَعَمِلُوا الصَّالِحَاتِ وَتَوَاصَوْا بِالْحَقِّ وَتَوَاصَوْا بِالصَّبْرِ
सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए और अच्छे कर्म किए और एक-दूसरे को सत्य की ताकीद की, और एक-दूसरे को धैर्य की ताकीद की। [सूरह अल-असर 103; आयत 1-4]
जो व्यक्ति भी इस कसौटी पर पूरा उतरे गा वह नरक से बच्च कर स्वर्ग प्राप्त करेगा। आपको अरब वालों की खुशहाली से क्यों जलन हो रही है? इस खुशहाली को ऐश कहना आपकी मूर्खता है। यदि कोई अरबी हकीकत में ऐश और विलासिता में अल्लाह से गाफिल होगया हो तो वह निश्चित रूप से उसका दण्ड भोगे गा। मगर सारी अरबी जनता को एक ही लाठी से हांकना आपकी नस्लवादी मानसिकता को व्यक्त करता है। वास्तव में एष करने की आदत आपके वैदिक ऋषियों को थी। तभी तो हमेशा ईश्वर से दुनियावी सुख और एष की प्रार्थनाएँ करते थे। खुद शब्द ‘वेद’ के अर्थ धन और संपत्ति के भी हैं जैसा कि ऊपर उत्तर 4 में ऋग्वेद 3/53/4 में आए शब्द परमगन्दस्य वेदो (परमगन्द की धन संपत्ति) से साबित है। वेद के लेखकों का उद्देश ही मंत्र जप के धनद दौलत पाना और एष करना था। जहां पवित्र कुरआन अल्लाह की स्तुति और हिदायत की प्रार्थना से शुरू होता है, वहीं ऋग्वेद अग्नि की स्तुति कर धन और रत्न प्राप्त करने से शुरू होता है। इसी लिए वहाँ लिखा हैरत्नधातमम अर्थात 'रत्नों से विभूषित करने वाला'।
इसके अतिरिक्त आपका यह कहना कि कुरआन में अल्लाह ने कहा कि मुसलमानों पर जहन्नुम की आग हराम है, इसका प्रमाण दिखाइए? कुरआन में केवल नाम के मुसलमान को जहन्नुम से मुक्ति नहीं दी गयी है, बल्कि एक सच्चे मुसलमान को, जो अच्छे कर्म करता हो और दूसरों को सत्य की ताकीद करता हो, और दूसरों को धैर्य की ताकीद करता हो। इन बातों में कोई विरोध नहीं।
प्रश्न 9
ReplyDeleteउत्तर
पंडित जी, यदि आप ऋग्वेद के प्रथम मन्त्र को देख लेते तो यह बेजा आपत्ति नहीं करते। ध्यान से सुनिए-
अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवं रत्वीजम |
होतारं रत्नधातमम ||
"हम लोग उस अग्नि की प्रशंसा करते हैं जो पुरोहित है, यज्ञ का देवता, समस्त तत्वों का पैदा करने वाला, और याजकों को रत्नों से विभूषित करने वाला है"
बताइए, यदि अग्नि से, आपके के अनुसार, ईश्वर ही तात्पर्य है और वेद भी ईश्वर की वाणी है, तो इस वाक्य का बोलने वाला कोन है?
आप असल में ईश्वरीय पुस्तकों कि जुबान/भाषा से अपरिचित हैं। ईश्वरीय किताबों का मुहावरा और कलाम (भाषा) कि शैली कई प्रकार की होती है। कभी तो ईश्वर स्वयं बात कहने के रूप में अपना आदेश स्पष्ट करता है (संस्कृत का उत्तम पुरुष/first person) और कभी गायब से (संस्कृत का प्रथम पुरुष/third person)। कभी कोई ऐसे वाक्य जो दुआ, स्तुति या प्राथना के रूप में बन्दों को सिखाना अपेक्षित हो उसे बन्दे की जुबान से व्यक्त कराया जाता है।
सूरह फातिहा या बिस्मिल्लाह भी इसी प्रकार है। अर्थात यह ऐसे शब्द हैं जो ईश्वर बन्दों को सिखातें हैं। तो कुरआन कलामुल्लाह ही है। आप कलाम कि शैली को न समझने के कारण ऐसी आपत्ति कर रहे हैं। इस प्रश्न का निर्णायक उत्तर मैं पंडित जी के गुरु के घर से ही दिखा देता हूँ ताकि सारी दुनिया इनके दोहरे मापदंड देख लें। स्वामी दयानन्द के शास्त्रार्थ और विभिन व्याख्यानों पर आधारित एक पुस्तक है जिसका नाम है ‘दयानन्द शास्त्रार्थ संग्रह तथा विशेष शंका समाधान’। यह पुस्तक आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट देहली ने प्रकाशित की है। इस पुस्तक केअध्याय 38 में पंडित ब्रिजलाल साहब के स्वामी दयानन्द जी से किए गए प्रश्न मिलते हैं। पंडित ब्रिजलाल के स्वामी जी से किए गए कई प्रश्नों में से एक प्रश्न यह है।
प्रश्न 21: वेद में परमेश्वर की स्तुति है तो क्या उसने अपनी प्रशंसा लिखी?
उत्तर- जैसे माता पिता अपने पुत्र को सिखाते हैं कि माता, पिता और गुरु की सेवा करो, उनका कहना मानो। उसी प्रकार भगवान ने सिखाने के लिए वेद में लिखा। [दयानन्द शास्त्रार्थ संग्रह तथा विशेष शंका समाधान’, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट देहली, पृष्ट 79, जून 2010 प्रकाशन]
यह देखिए कैसे स्वामी दयानन्द जी स्वयं पंडित महेंद्रपाल आर्य के प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं। जब यह लोग वेद पढ़ते हैं तो समाधान की ऐनक लगाते हैं, लेकिन कुरआन पढ़ते समय शंका की ऐनक लगाते हैं। ऐसे हठधर्मी लोगों को इनही उदाहरणों से समझाना पढ़ता है।
क्या वेद ईश्वर् की वाणी है?
ReplyDeleteआर्य समाज का यह दावा कि वेद ईश्वर् की वाणी है, या एक इल्हामी ग्रन्थ है, पूरी तरह से गलत है। वेदों का अध्यन करने से पता चलता है कि वे ऋषियों द्वारा बनायह गए हैं। इस विषय का पूरा विवरण करना यहाँ संभव नहीं है, लेकिन में कुछ प्रमाण आपके सामने प्रस्तुत करता हूँ-
तैतीरीय ब्रह्मण 2/8/8/5 में लिखा है
ऋषयो मंत्रकृतो मनीषिण:
अर्थात "बुद्धिमान ऋषि मन्त्रों के बनाने वाले हैं."
इसके अतिरिक्त इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिलते हैं समय समय पर वेदों के नए नए मंत्र बनते रहे हैं और वे पहले बने संग्रहों (संहिताओं अथवा वेदों) में मिलाये जाते रहे हैं। खुद वेदों में ही इस बात के प्रमाण मिलते हैं-
ऋग्वेद 1/109/2
अथा सोमस्य परयती युवभ्यामिन्द्राग्नी सतोमं जनयामि नव्यम ||
अर्थात "हे इन्द्र और अग्नि, तुम्हारे सोम्प्रदानकाल में पठनीय एक नया स्तोत्र रचता हूँ."
ऋग्वेद 4/16/21
अकारि ते हरिवह बरह्म नव्यं धिया
अर्थात "हे हरि विशिष्ठ इन्द्र, हम तुम्हारे लिए नए स्तोत्र बनाते हैं.
ऋग्वेद 9/9/8
नू नव्यसे नवीयसे सूक्ताय साधया पथः |
परत्नवद रोचया रुचः ||
सोम तुम नए और स्तुत्य सूक्त के लिए शीघ्र ही यज्ञ-पथ से आओ और पहले की तरह दीप्ति का प्रकाश करो।
ऋग्वेद 7/22/9
ये च पूर्व ऋषयो ये च नूत्ना इन्द्र बरह्माणि जनयन्त विप्राः |
अर्थात "हे इन्द्रदेव, प्राचीन एवं नवीन ऋषियों द्वारा रचे गए स्तोत्रों से स्तुत्य होकर आपने जिस प्रकार उनका कल्याण किया, वैसे ही हम स्तोताओं का मित्रवत कल्याण करें."
स्पष्ट है कि इन नए स्तोत्रों व मन्त्रों व सूक्त के रचेता साधारण मानव थे, जिन्होंने पूर्वजों द्वारा रचे मन्त्रों के खो जाने पर या उनके अप्रभावकारी सिद्ध होने पर या उन्हें परिष्कृत करने या अपनी नयी रचना रचने के उद्देश से समय समय पर नए मंत्र रचे।
इसलिए वेद सर्वज्ञ परमात्मा की रचना सिद्ध नहीं होते।
प्रश्न 10
ReplyDeleteउत्तर
आपने जो हदीस पेश की है उसमें तो लड़ाई की कोई बात ही नहीं कही गयी है। आपने इस बड़ी स्पष्ट हदीस पर अनावश्यक आपत्ति की है। शायद इसमें 'जिहाद' का शब्द देखकर आपने यह समझ् लिया कि यहाँ दुसरे लोगों से लड़ाई को सब से बड़ा काम कहा गया है। यह केवल आपकी अज्ञानता है कि आप जिहाद के सही अर्थ को नहीं समझे।
जिहाद का शाब्दिक अर्थ 'संघर्ष' है। इस अर्थ को यदि आपकी दी हुई हदीस में अपनाएं तो हदीस का अर्थ यह हुआ कि अल्लाह की राह में 'संघर्ष' करना सबसे बड़ा काम है। इस पर आपको क्या आपत्ति है? क्या आप अपने धर्म के प्रचार में संघर्ष नहीं करते? क्या आप अपनी सोच के अनुसार ईश्वर के मार्ग में संघर्ष नहीं करते? अल्लाह का मार्ग तो एक पवित्र मार्ग है। इस मार्ग के प्रचार में और बुरे मार्ग की निंदा में तो हर ज़माने में संघर्ष करना पड़ता है। क्या आपको यह भी मालूम नहीं, जो आपने इसकी तुलना लड़ाई से की? इसकी तुलना आप श्री कृष्ण के उस उपदेश से कीजियह जब उन्होंने अर्जुन से कहा-
"हे पार्थ, भाग्यवान क्षत्रियगण ही स्वर्ग के खुले द्वार के सामने ऐसे युद्ध के अवसरको अनायास प्राप्त करते हैं। दूसरी और, यदि तुम धर्मयुद्ध नहीं करोगे, तो स्वधर्म एवं कीर्ति को खोकर पाप का अर्जन करोगे." [श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय २; श्लोक ३२-३३]
कहिए पंडित जी, क्या कृष्ण लड़ाकू है, जो दुनिया वालों को लड़ाना चाहते हैं? आदरणीय पाठको, नीचे मेने महेंद्रपाल जी का एक विडियो लिंक रखा है, जिस में वे हिन्दुओं को श्री कृष्ण के यही वाक्य सुना कर लड़ने पर उकसा रहे हैं। आप ही फेसला कीजिए कि कोन लड़ाकू है।
प्रश्न 11
ReplyDeleteउत्तर
ऐसी कोई हदीस नही जिसमें यह कहा गया हो कि गैर मुस्लिम की अर्थी देखने के समय उसे हमेशा के लिए जहन्नुम की आग में दाल देने की प्रार्थना की जाए। यह कोरा झूठ है। आपने हदीस का सही हवाला भी नहीं दिया है। इस कारण आपका प्रश्न ही निराधार है। यदि आपने हदीसों का अध्यन किया होता तो आपको ज्ञान होता कि एक गैर मुस्लिम की अर्थी (जनाज़ा) देखते समय पैगम्बर मुहम्मद (सल्ल.) ने क्या किया था। सुनिए-
النبي صلى الله عليه وسلم مرت به جنازة فقام فقيل له إنها جنازة يهودي. فقال " أليست نفسا؟" ...إذا رأيتم الجنازة فقوموا
"एक बार पैगम्बर (सल्ल.) के सामने से एक अर्थी पारित हुई तो आप (सल्ल.) खड़े होगए। आपसे कहा गया कि यह तो एक यहूदी की अर्थी है। पैगम्बर (सल्ल.) ने फरमाया, "क्या यह इंसान नहीं? ...जब भी तुम लोग जनाज़े को देखा करो तो खड़े हो जाया करो." [सही बुखारी; किताबुल जनाइज़; हदीस 389 और 390]
अब बताइए, कि नबी (सल्ल.) के इस पवित्र आचरण के बाद भी आपको कोई शंका है? अल्लाह ने कोई भेद-भाव पैदा नहीं किया। कुरआन तो स्पष्ट कहता है।
يَا أَيُّهَا النَّاسُ إِنَّا خَلَقْنَاكُمْ مِنْ ذَكَرٍ وَأُنْثَىٰ وَجَعَلْنَاكُمْ شُعُوبًا وَقَبَائِلَ لِتَعَارَفُوا ۚ إِنَّ أَكْرَمَكُمْ عِنْدَ اللَّهِ أَتْقَاكُمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ عَلِيمٌ خَبِيرٌ
"ऐ लोगो! हमने तुम्हें पुरुष और स्त्री से पैदा किया और तुम्हें कई दलों तथा वंशों में विभाजित कर दिया है, ताकि तुम एक-दूसरे को पहचान सको। वास्तव में तुममें से अल्लाह के निकट सत्कार के अधिक योग्य वही है, जो सबसे बढकर संयमी है। निश्चय ही अल्लाह सबकुछ जाननेवाला, ख़बर रखनेवाला ह." [सूरह हुजुरात 49; आयत 13]
इस आयत से यह सिद्ध होता है कि जातियां एवं संतति केवल परिचय के लिए हैं। जो व्यक्ति उन्हें गर्व तथा स्वाभिमान का साधन बनाता है, वह इस्लाम के विरुद्ध आचरण करता है.
वैदिक ईश्वर का भेद-भाव
ReplyDeleteविश्व के धर्मों में हिन्दू धर्म ही एक ऐसा धर्म है जिस में सामाजिक भेद-भाव के बीज शुरू से ही विद्यमान रहे हैं। हिन्दू धर्म सामाजिक भेद भाव को न केवल धर्म द्वारा अनुमोदित करता है, बल्कि इस धर्म का प्रारंभ ही भेद भाव के पाठ से होता है। हिन्दू धर्म ने शुरू से ही मानव मानव के बीच भेद किया। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त ने स्पष्ट कहा कि "ब्राह्मण परमात्मा के मुख से, क्षत्रिय उस कि भुजाओं से, वैश्य उस के उरू से तथा शूद्र उस के पैरों से पैदा हुए."
बराह्मणो.अस्य मुखमासीद बाहू राजन्यः कर्तः |
ऊरूतदस्य यद वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ||
[ऋग्वेद 10/90/12]
हिन्दू बच्चे के जन्म के साथ ही भेद-भाव का दूषित जीवाणु उस से जुड़ जाता है जो उस के मरने के बाद भी उस का पिंड नहीं छोड़ता। जन्म के दुसरे सप्ताह बच्चे के नामकरण का आदेश है। नाम रखते ही उसे भेद-भाव कि घुट्टी पिला दी जाती है। सुनिए-
"ब्रह्मण का नाम मंगलसूचक शब्द से युक्त हो, क्षत्रिय का बल्सूचक शब्द से युक्त हो, वैश्य का धव्वाचक शब्द से युक्त हो और शूद्र का निंदित शब्द से युक्त हो."
"ब्राह्मण के नाम के साथ 'शर्मा', क्षत्रिय के साथ रक्शायुक्त शब्द 'वर्मा' आदि,वैश्य के नाम के साथ पुष्टि शब्द से युक्त 'गुप्त' आदि तथा शूद्र के नाम के साथ 'दास' शब्द लगाना चाहिए." [मनुस्मृति 2/31-32]
यदि में भेद-भाव के विषय पर सारे हिन्दू धर्मशास्त्रों की शिक्षा यहाँ लिख दूं तो एक बड़ी पुस्तक बन जाए गी। इसी कारण इस निम्नलिखित वचन पर ही उत्तर समाप्त करता हूँ। सुनिए-
"सजातियों के रहित शूद्र से, ब्राह्मण शव का वाहन कभी न करना। क्योंकि शुदा स्पर्श से दूषित शव की आहूति, उसको स्वर्ग्दायक नहीं होती." [मनुस्मृति 5/104]
पंडित जी, यदि आपके शव को कभी शूद्र का स्पर्श लग गया तो आपको अपने धर्म से हाथ धोना पड़े गा।
प्रश्न 12
ReplyDeleteउत्तर
पंडित जी, जिस घटना पर आप इतना आश्चर्य कर रहे हैं, वह केवल हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) के माध्यम से अल्लाह का एक चमत्कार था। हमने यह दावा कभी नहीं किया कि किसी मनुष्य के लिए चाँद के दो टुकड़े करना संभव था। यदि आप ईश्वर को सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ मानते हैं तो ईश्वर अपनी रचित सृष्टि का हमसे कहीं अधिक ज्ञान रखते हैं। अल्लाह के लिए यह कोई बड़ी बात नहीं कि चाँद के दो टुकड़े करदे और दुनिया में उथल पुथल भी न हो। यह चमत्कार मक्का के मूर्ति पूजकों के आग्रह पर दिखाया गया। उन्हों ने हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) से अनुरोध किया कि यदि वह अल्लाह के सच्चे ईशदूत हैं तो चाँद के दो टुकड़े करें, और यदि वह ऐसा करदें तो सारे मूर्तिपूजक उनके सच्चे ईशदूत होने पर विशवास करें गे। लेकिन यह चमत्कार देखने के बाद भी उन्हों ने विशवास नहीं किया.
आप पूछते हैं कि चाँद को फिर जोड़ा किसने? जिसने तोडा उसी सर्वशक्तिमान अल्लाह ने जोड़ भी दिया।
हनुमान जी के बारे में उत्तर पढ़ने से पहले यह समझ लीजियह कि वर्त्तमान रामयाण की ऐतिहासिकता की पुष्टि कुरआन नहीं करता। हमारी यह मान्यता है कि एक अल्लाह के ईशदूत (पैगम्बर) के बगैर कोई ऐसे विशाल चमत्कार नहीं दिखा सकता। हनुमान जी के जिस चमत्कार के बारे में आप पूछ रहे हैं वह जिस सन्दर्भ में हमें मिलता है, उसमें उस का विशवास नहीं किया जा सकता। हनुमान जी ने सूर्य को फल समझ के निगल दिया था। अब हम ऐसे चमत्कारों में विश्वास नहीं रखते जो व्यर्थ हों या जिन से कोई लाभ नहीं। चाँद के दो टुकड़े करने में और हनुमान जी का सूर्य को फल समझ के निगलने में कोई तुलना ही नहीं।
पंडित जी, कृपया आप लोगों को समझाने का कष्ट करें गे कि सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य जवान जवान कैसे पैदा हुए थे जैसा कि आपके गुरु स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश, समुल्लास 8 में लिखा है? इस बात को आप किस विज्ञान के आधार पर सिद्ध करें गे?
वेदों में चमत्कारिक घटनाएं
ReplyDeleteसृष्टि के आरम्भ में मनुष्यों के जवान जवान टपक जाने के अतिरिक्त कई और चमतारिक घटनाओं का विवरण वेदों में मिलता है। उदाहरण के लिए देखियह-
1. ऋग्वेद 3/33/5 में विश्वामित्र जी ने मंत्र पढ़ कर सतलुज और ब्यास नदियों को खड़ा कर दिया था। सुनिए-
रमध्वं मे वचसे सोम्याय रतावरीरुप मुहूर्तमेवैः |
पर सिन्धुमछा बर्हती मनीषावस्युरह्वे कुशिकस्य सूनुः ||
अर्थात "हे जलवती नदियों, आप हमारे नम्र और मधुर वचनों को सुन कर अपनी गति को एक क्षण के लिए विराम दे दें। हम कुशक पुत्र अपनी रक्षा के लिए महती स्तुतियों द्वारा आप नदियों का भली प्रकार सम्मान करते हैं."
निरुक्त अध्याय 2, खण्ड 24 से 26 में इस मंत्र का स्पष्ट अर्थ बताया गया है। अब ऋग्वेद के इस मंत्र में आपके लिए दो प्रश्न हैं। यहाँ, ऋषि विश्वामित्र सीधे सीधे नदियों से बातें कर रहे हैं। इस को आप क्या कहें गे? और केवल ऋषि विश्वामित्र के मंत्र जपने से ही वे नदियाँ कैसे ठहर गयीं?
2. ऋग्वेद 4/19/9 के अनुसार दीमक द्वारा खाए गए कुँवारी के बेटे को इन्द्र ने फिर से जीवित किया और सारे अंगों को इकट्ठे करदिया.
वम्रीभिः पुत्रम अग्रुवह अदानं निवेशनाद धरिव आ जभर्थ |
वय अन्धो अख्यद अहिम आददानो निर भूद उखछित सम अरन्त पर्व ||
अर्थात "हे इन्द्रदेव, आपने दीमकों द्वारा भक्ष्यमान 'अग्रु' के पुत्र को उनके स्थान (बिल) से बाहर निकाला। बाहर निकाले जाते समय अंधे 'अग्रु'-पुत्र ने आहि (सर्प) को भली प्रकार देखा। उसके बाद चींटियों द्वारा काटे गए अंगों को आपने (इन्द्रदेव ने) संयुक्त किया (जोड़ा)."
3. ऋग्वेद 4/18/2 में वामदेव ऋषि ने मां के पेट में से इन्द्रदेव से बात की-
नाहम अतो निर अया दुर्गहैतत तिरश्चता पार्श्वान निर गमाणि |
बहूनि मे अक्र्ता कर्त्वानि युध्यै तवेन सं तवेन पर्छै ||
अर्थात वामदेव कहते हैं, "हम इस योनिमार्ग द्वारा नहीं निर्गत होंगे। यह मार्ग अत्यंत दुर्गम है। हम बगल के मार्ग से निकलेंगे। अन्यों के द्वारा करने योग्य अनेकों कार्य हमें करने हैं। हमें एक साथ युद्ध करना है, तथा एक के साथ वाद-विवाद करना है."
4. अथर्ववेद 4/5/6-7 चोर के लिए ऐसे मंत्र हैं जिनको जपने से घर के सारे सदस्य सो जाते हैं और चोर बड़े आराम से चोरी कर सकता है।
स्वप्तु माता स्वप्तु पिता स्वप्तु क्ष्वा स्वप्तु विश्पतिः |
स्वपन्त्वस्यै ज्ञातयः स्वपत्वयमभितो जनः ||
स्वप्न स्वप्नाभिकरणेन सर्वं नि ष्वापया जनम |
ओत्सूर्यमन्यान्त्स्वापयाव्युषं जागृतादहमिन्द्र इवारिष्टो अक्षितः ||
अर्थात "माँ सो जाए, पिता सो जाए, कुत्ता सो जाए, घर का स्वामी सो जाए, सभी बांधव एवं परिकर के सब लोग सो जाएं। हे स्वप्न के अधिष्ठाता देव, स्वप्न के साधनों द्वारा आप समस्त लोगों को सुला दें तथा अन्य लोगों को सूर्योदय तक निद्रित रखें। इस प्रकार सबके सो जाने पर हम इन्द्र के सामान, अहिंसित तथा क्षयरहित होकर प्रातःकाल तक जागते रहे."
कहिए पंडित जी, यह कैसी विद्या है?
प्रश्न 13
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कुरआन मानता है कि पहले ईश्वरीय पुस्तकें आई हैं मगर इसी के साथ यह भी कहता है कि बेईमान लोगों ने उन में कई परिवर्तन कर दिए हैं। इसलिए अब उनमें जिन बातों की पुष्टि कुरआन करता है, वे सत्य हैं और जो बातें कुरआन के विरुद्ध हैं वे किसी ने मिला दी हैं। अल्लाह फरमाते हैं-
وَأَنْزَلْنَا إِلَيْكَ الْكِتَابَ بِالْحَقِّ مُصَدِّقًا لِمَا بَيْنَ يَدَيْهِ مِنَ الْكِتَابِ وَمُهَيْمِنًا عَلَيْهِ
"हम (अल्लाह) ने आपकी ओर (ऐ नबी) कुरआन उतारा है जो अपने से पहली पुस्तकों की पुष्टि करता है और उनका संरक्षक है (अर्थात गलत को सही से अलग करता है)." [सूरह माइदा 5; आयात 48]
तो पिछली किताबों में जो गलत शिक्षाएं मिला दी गयी थीं, उनका खंडन कुरआन ने किया। उदाहरण के लिए देवता पूजा, अवतार पूजा, हजरत ईसा की पूजा, पुनर्जनम, स्त्री का अपमान, सती प्रथा, मनुष्य बलि, सन्यास, वर्णाश्रम, आदि.
इस प्रमाण से आपके प्रश्न का कोई आधार नहीं है, अल्लाह का ज्ञान अधूरा नहीं और ना ही पिछली किताबों में कोई कमी थी।
इसके अतिरिक्त यह भी सुन लीजिए कि यदि अग्नि ऋषि को, आप के अनुसार, ईश्वर ने ऋग्वेद दिया तो आदित्य ऋषि को सामवेद क्यों दिया? क्या ऋग्वेद में कोई कमी रह गयी थी जो सामवेद देना पड़ा? सामवेद तो ऋग्वेद मण्डल 9 की पूरी नक़ल है। सिवाय 75 मन्त्रों के जो नए हैं, सामवेद के 1800 मंत्र ऋग्वेद में पहले से हैं। यह 75 मंत्र भी अग्नि को क्यों नहीं दिए? यदि यह कहा जाए कि सामवेद के मंत्र गाने के लिए अलग किए गए हैं तो ऋग्वेद में लिखा जा सकता था कि मंडल 9 को गा लिया करो। इसके अतिरिक्त यजुर्वेद और अथर्ववेद भी व्यर्थ हैं जिन में एक बड़ा हिस्सा ऋग्वेद से लिया गया है। क्या अग्नि ऋषि को ऋग्वेद देते समय आपके ईश्वर भूल गए थे कि उसे सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद भी देना है?
प्रश्न 14
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'विज्ञान विरुद्ध' आपत्ति का उत्तर प्रश्न 12 में दे दिया। हज़रत मरयम से बिन पति के संतान का पैदा होना सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ ईश्वर के लिए कोई बड़ी बात नहीं। आप विज्ञान को वहाँ लागू कर रहे हैं जहां उसका ज्ञानक्षेत्र नहीं है। आप पहले इस प्रश्न का उत्तर दीजियह कि सृष्टि के आरम्भ में कई मनुष्यों का जवान जवान प्रकट होना किस विज्ञानं के आधार पर सिद्ध करोगे (सत्यार्थ प्रकाश, समुल्लास 8)? अल्लाह ने हज़रत मरयम की शर्म गाह (योनी) में फूँक नहीं मारा, यह आपका खुला झूठ है। इस आयत का सही अनुवाद करने से पहले में आपको आयत का सन्दर्भ बता लेता हूँ.
हज़रत मरयम पर जिस समय लोग व्यभिचार का आरोप लगा रहे थे उस का उत्तर देते हुए अल्लाह ने फरमाया-
وَالَّتِي أَحْصَنَتْ فَرْجَهَا فَنَفَخْنَا فِيهَا مِنْ رُوحِنَا وَجَعَلْنَاهَا وَابْنَهَا آيَةً لِلْعَالَمِينَ
और वह नारी जिसने अपनी पवित्रता की रक्षा की थी, हमने "उसके भीतर अपनी रूह फूँकी और उसे और उसके बेटे को सारे संसार के लिए एक निशानी बना दिया" [सूरह अंबिया 21; आयत 91]
यहाँ पर अरबी शब्द 'अह्सनत फर्जहा' का अर्थ होता है अपनी पवित्रता (अर्थात इज्ज़त) की सुरक्षा। हज़रत मरयम की एक खूबी यहाँ यह बतायी गयी कि उन्हों ने अपनी शेह्वत (वासना) को काबू में रखा।
'आत्मा (रूह) फूंकने' का अर्थ है आत्मा का शरीर में प्रवेश कराना। इस प्रकार का जनम हज़रत मरयम और हजरत ईसा के साथ एक विशेष मामला था जिसके विशेष कारण थे। इस बात को सारे मनुष्यों पर लागू नहीं कर सकते।
हज़रत मरयम का बिना पति के संतान पैदा करना आधुनिक विज्ञान के अनुसार संभव था
आधुनिक विज्ञान ने एक नयी खोज कर ली है जिसमें बिना बाप के पुरुष संतान पैदा हो सकती है। इसको वैज्ञानिक भाषा में पार्थीनोजेनेसिस (parthenogenesis) कहा जाता है। पहले पहले यह केवल निचले कीड़े मकोड़ों में देखा जाता था, लेकिन 2 अगस्त 2007 को यह पता चल गया कि दक्षिण कोरया के वैज्ञानिक Hwang Woo-Suk ने parthenogenesis के माध्यम से पहला मनुष्य भ्रूण (embryo) पैदा किया। अधिक जानकारी के लिए देखिए यह वेबसाइट
http://www.scientificamerican.com/article.cfm…
तो पंडित जी, अफ़सोस कि विज्ञान ने आपका साथ नहीं दिया बल्कि कुरआन की पुष्टि करदी। निश्चित रूप से कुरआन अल्लाह की कित्ताब है जिस पर अब आपको विशवास करना चाहिए।
गड़े से अगस्त्य और वसिष्ठ
ऋग्वेद में आता है कि मित्र और वरुण देवता उर्वशी नामक अप्सरा को देख कर कामपीडित हुए। उन का वीर्य स्खलित हो गया, जिसे उन्होंने यज्ञ कलश में दाल दिया। उसी कलश से अगस्त्य और वसिष्ठ उत्पन्न हुए:
उतासि मैत्रावरुणो वसिष्ठोर्वश्या बरह्मन मनसो.अधि जातः |
दरप्सं सकन्नं बरह्मणा दैव्येन विश्वे देवाः पुष्करे तवाददन्त ||
स परकेत उभयस्य परविद्वान सहस्रदान उत वा सदानः |
यमेन ततं परिधिं वयिष्यन्नप्सरसः परि जज्ञे वसिष्ठः ||
सत्रे ह जाताविषिता नमोभिः कुम्भे रेतः सिषिचतुः समानम |
ततो ह मान उदियाय मध्यात ततो जातं रषिमाहुर्वसिष्ठम ||
- ऋग्वेद 7/33/11-13
अर्थात "हे वसिष्ठ, तुम मित्र और वरुण के पुत्र हो। हे ब्रह्मण, तुम उर्वशी के मन से उत्पन्न हो। उस समय मित्र और वरुण का वीर्य स्खलन हुआ था। विश्वादेवगन ने दैव्य स्तोत्र द्वारा पुष्कर के बीच तुम्हें धारण किया था। यज्ञ में दीक्षित मित्र और वरुण ने स्तुति द्वारा प्रार्थित हो कर कुंभ के बीच एकसाथ ही रेत (वीर्य) स्खलन किया था। अनंतर मान (अगस्त्य)उत्पन्न हुए। लोग कहते हंस कि ऋषि वसिष्ठ उसी कुंभ से जन्मे थे."
आप बोलिए यह कैसे संभव है? आपके तो देवता भी अप्सराओं को देख कर आपे से बाहर हो जाते हैं।
प्रश्न 15
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पंडित जी, आपका अंतिम प्रश्न तो झूठ का भंडारघर है। पैगम्बरे इस्लाम हजरत मुहम्मद (सल्ल.) ने हज़रत जैनब से इस्लामी नियम के अनुसार निकाह किया। पंडित जी ने अपने दावे का कोई प्रामाणिक हवाला नहीं दिया जो की उनकी बुरी आदत है। लेकिन फिर भी मैं उत्तर दे रहा हूँ। आसमान में निकाह हुआ, यह एक गलत फहमी है। कुछ अहादीस में आता है कि हज़रत जैनब गर्व किया करती थीं कि मेरा निकाह आसमान पर हुआ। बात करने की यह विशेष शैली उन्होने इस कारण अपनाई, क्योंकि कुरआन में अल्लाह ने विशेषतः इस निकाह का वर्णन इन शब्दों में किया है।
فَلَمَّا قَضَىٰ زَيْدٌ مِّنْهَا وَطَرًا زَوَّجْنَاكَهَا
अतः जब ज़ैद उससे अपनी ज़रूरत पूरी कर चुका (अर्थात तलाक दे दिया) तो हमने उसका तुमसे विवाह कर दिया [सूरह अहज़ाब 33; आयत 37]
इस में जो शब्द زَوَّجْنَاكَهَا आया है जिस से कई लोगों ने गलत समझ लिया है कि यह निकाह वास्तव में आसमान में हुआ। हालांकि यह शब्द केवल इतना व्यक्त करता है कि जैनब से निकाह अल्लाह के आदेश से हुआ। कई विश्वसनीय पुस्तकों में निकाह का स्पष्ट वर्णन है। जैनब के भाई अबू अहमद उनकी तरफ से वली थे। सीरत इबने हिशाम में इस निकाह के बारे इस प्रकार है,
تزوج رسول الله صلى الله عليه و سلم زينب بنت جحش و زوجه إياها أخوها أبو أحمد بن جحش ، و أصدقها رسول الله صلى الله عليه و سلم أربع مائة درهم
अर्थात, रसूलल्लाह (सल्ल.) ने जैनब बिंते जहश के साथ निकाह किया और उस के भाई अबू अहमद ने वकालत की। रसूलल्लाह (सल्ल.) ने जैनब को 400 दिरहम महर दिया। [सीरत इबने हिशाम, जिल्द 4, बाब अज़्वाज नबी]
यह रिवायत आपको तबकाते इबने साद, मुस्तद्रक हाकिम, और उसदुल गाब्बह में भी मिले गी। इसके अतिरिक्त सही बुखारी में भी इस निकाह पर दिए गए वलीमे का वर्णन कुछ इस प्रकार है।
عن أنس قال :أولم النبي بزينب فأوسع المسلمين خيرا فخرج كما يصنع إذا تزوج
अर्थात, अनस ने फरमाया: नबी (सल्ल.) ने जैनब से निकाह के अवसर पर वलीमा दिया और मुसलमानों के लिए अच्छा भोजन प्रदान किया। [सही बुखारी; कितबे निकाह, बाब 56]
वैदिक शिक्षा के नमूने
1. नियोग के नाम पर व्यभिचार
व्यभिचार का अर्थ है पति या पत्नी के जीवित व मित्र होने की स्तिथि में किसी अन्य स्त्री या पुरुष से अवैध रूप में यौनसंबंध स्थापित करना। हिन्दू धर्मशास्त्रों में इस व्यभिचार को 'नियोग' के नाम पर वैध करार दिया गया है। स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी पुस्तक सत्यार्थ प्रकाश (चतुर्थ समुल्लास) में इस प्रथा का विस्तार पूर्वक पूर्ण समर्थन किया है। उन्होंने वेदों और मनुस्मृति के प्रमाण उपस्थित कर के इसकी वैधता प्रतिपादित की है.
ऋग्वेद 10/40/2 में 'विधवेव देवरम' आता है। इसका अर्थ करते हुए स्वामी दयानन्द ने लिखा है- "जैसे विधवा स्त्री देवर के साथ संतानोत्पत्ति करती है, वैसे ही तुम भी करो." फिर उन्होंने निरुक्तकार यास्क के अनुसार 'देवर' शब्द का अर्थ बताते हुए लिखा है-
"विधवा का जो दूसरा पति होता है, उसको देवर कहते हैं." (देखें, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, नियोग प्रकरण)
इसी प्रकार कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में कानून बनाए। उस का कहना है कि बूढ़े एवं असाध्य रोग से पीड़ित राजा को चाहिए कि वह अपनी रानी का किसी मातृबंधु (मां की तरफ से जो रिश्तेदार हो यथा मामा आदि) या अपने किसी सामंत से नियोग करवा कर पुत्र उत्पन्न करा ले।(अर्थशास्त्र 1/17)
ReplyDeleteनियोग कि यह धार्मिक रस्म इंसानी गरिमा के सिद्धांत का हनन करती है।
2. देवदासी प्रथा
दासता का एक रूप सदियों से चला आया है। वह है -देवदासियां। मंदिरों विशेषतः दक्षिण भारत के मंदिरों में देवदासियां रहती हैं। यह वे लडकियां हैं जिन्हें उनके माता पिता बचपन में ही मंदिरों में चढ़ा देते हैं। वहीँ यह जवान होती हैं। इन का देवता के साथ विवाह कर दिया जाता है। इन में से कुछ सुन्दर स्त्रियाँ पन्देपुजारोयों के भोगविलास की सामग्री बनती हैं। शेष देवदर्शन को आए हुए यात्रियों आदि व अन्य लोगों की कामवासना को शांत कर के जीवननिर्वाह करती हैं.
14 अगस्त, 1953 से देवदासी प्रथा कानूनन अवैध घोषित कर दी गयी है। फिर भी यह प्रथा किसी न किसी रूप में हिन्दू मंदिरों में मौजूद है।
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इसी के साथ पंडित महेंद्रपाल आर्य के 15 प्रश्नों के इस्लाम और हिन्दू धर्मशास्त्रों की रौशनी में विस्तृत व सही उत्तर समाप्त हुए। हम आशा करते हैं कि पंडित महेंद्रपाल सत्य को स्वीकार करें गे और इस्लाम की पवित्र छाया में लोट आएं गे। मैंने इस उत्तर में वेदों के भी स्पष्ट उदाहरण देकर यह बता दिया है की वैदिक धर्मी बनने का निमंत्रण मुझे क्यों स्वीकार नहीं है।
संदर्भः http://islamhinduism.com/…/112-reply-to-pandit-mahendra-pal…
ReplyDeleteलेखक safat alam taimi
http://www.scientificamerican.com/article.cfm?id=korean-cloned-human-cells
ReplyDeletepadh lena ise aur islam per ungli uthane se pahle 3 ungli apni taraaf dekhna..wo tere uper uthti hai. aur chillana band karo jo kamai aur public city tujhe chahiye thi usme to tu kamyab ho gya.....Aaryo ko murkh bna kar....chal eak bar mar to sahi tu
ReplyDeletepadh lena ise aur islam per ungli uthane se pahle 3 ungli apni taraaf dekhna..wo tere uper uthti hai. aur chillana band karo jo kamai aur public city tujhe chahiye thi usme to tu kamyab ho gya.....Aaryo ko murkh bna kar....chal eak bar mar to sahi tu
ReplyDeletehttp://www.scientificamerican.com/article.cfm?id=korean-cloned-human-cells
ReplyDeleteNiyaz ahmad uou are great bhai
ReplyDeleteNiyaz bhai jazak Allah aur Dr Aslam Qasmi bhai Allah aap dono ko jazaye khair de
ReplyDeleteWhen we talk about various famous astrologers in Sydney, Pandit Vivek Ji's name inevitably tops the list. His Proficiency is not just limited to astrology. Pandit vivek ji has mastered over subjects in Astrology like Career, Marriage problems, Business, Education, Legal problem, Love affairs, Vaastu problem, Conjugate problem, etc. so tried to consult our esteemed astrologer in Sydney to provide an instant remedy that will uplift your spirits and bring happiness to your life. There are millions of people who are struggling to achieve their ambitions and dreams in their lives. But you could get an edge over them, if you seek the services of our Best astrologer in Sydney, Australia.
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ReplyDeleteBlack magic removal in New York
महेंद्र पाल आर्य फेसबुक पर हमसे पहले गुफ्तगू करते थे. हमारे प्रतिप्रश्नों से झेंप जाते थे. अब हमें ब्लॉक कर रखा है.महेंद्र पाल आर्य नहीं दयापंथी हैं. ये कुतर्क करते हैं.
ReplyDeleteऔर गालियां भी बकते हैं. इनकी पाण्डित्य की पोल खुलने के डर से ये सामने वाले को जाहिल अनपढ़ बताकर स्वघोष विद्वान बनते हैं और ब्लाक करके निकल लेते हैं.