Book श्री नरेन्द्र मोदी और मुसलमान
भारतीय मुसलमानों का बी. जे. पी. से 36 का आँकडा है। कुछ उपवादों को छोड़कर मुसलमान इस पार्टी से दूरी बनाये रखते हैं जो इक्का-दुक्का मुसलमान बी. जे. पी. के साथ जाते हैं वह मुस्लिम समाज में अपनी साख खो देते हैं। इसका कारण बहुत स्पष्ट है । 2014 के पार्लीमानी चुनाव के लिये इस पार्टी ने पी. एम. पद हेतु गुजरात के मुख्य मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को अपना प्रत्याशी घोषित करके इस कारण को काफी स्पष्ट कर दिया है।
श्री नरेन्द्र मोदी हिन्दू समाज के एक विशेष वर्ग के हीरो हैं। वह इस वर्ग के दिल की धड़कन और आँखों की चमक बन गये हैं। अपनी पार्टी में उन्हों ने बड़े-बड़े लीडरों को पीछे छोड़ दिया है। जिन्होंने पार्टी का इकबाल बुलन्द करने में बड़ा योगदान दिया था उन सभी को दरकिनार करते हुये पार्टी के निर्णायकों ने मोदी को पार्टी की ओर से भावी प्रधानमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट किया है। कारण यह है कि पार्टी वर्कर्स और बहुत से बुद्धिजीवी, धर्म गुरू और एक विशेष विचार धारा में आस्था रखने वाले एक-एक व्यक्ति की ज़ुबान पर नमो नमो के सिवा कुछ सुनाई नहीं पड़ता । उनकी पार्टी में बड़े-बड़े विद्वान, बुद्धिजीवी, लेखक, विधिविनायक यहाँ तक कि राजनीति में मोदी के गुरू भी विद्यमान हैं जिन्हों ने राजनीति की बिसात पर मोदी को उंगली पकड़कर चलना सिखाया है और राजनीतिक आपदाओं में उनके लिये संकट मोचक साबित हुए हैं।
यह विशेष वर्ग मोदी को जितना प्यार करता है, उनमें अपनी आस्था प्रकट करता है और उन्हें अपना हीरो मानता है, उसी पैमाने पर भारत का समूचा मुस्लिम समाज मोदी से नफ़रत करता है। उन्हें अपना राजनीतिक विरोधी ही नहीं मूल ‘शत्रु समझता है जिसका कारण 2002 के गुजरात दंगों में एक मुख्यमंत्री के बतौर नरेन्द्र मोदी का रवैया और उसके बाद बराबर मुस्लिम समाज की उपेक्षा और अल्पसंख्यक समाज के विरोध में उनके द्वारा प्रकट होने वाली उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षाएँ उसके कारण हैं। जहाँ तक दंगों की बात है, कांगे्रस के राज में गुजरात से भी भयानक स्तर के दंगे हुये हैं, लेकिन जिस प्रकार मोदी के राज में सरकारी छत्रछाया में गुजरात दंगा हुआ उसकी मिसाल नहीं मिलती।
स्पष्ट है कि मुस्लिम विरोध और खुली मुस्लिम दुश्मनी नरेन्द्र मोदी की एक महत्वपूर्ण विशेषता है जो उन्हें दूसरों से अलग करती है और यह हमारे देश के बहुसंख्यक समुदाय के एक विशेष वर्ग की पहली पसंद है। मोदी ने गुजरात में मुसलमानों का क़त्ल-ए-आम करने के साथ-साथ अन्य मुस्लिम विरोधी कार्य न किये होते तो वह भी मध्य प्रदेश के ‘‘शिवराज’’ और ‘‘छत्तीसगढ़’’ के ‘‘रमन सिंह’’ की तरह अपनी पार्टी की दूसरी पंक्ति के लीडर होते। उन्होनें अन्यों के मुक़ाबले कोई ख़ास विकल्प प्रस्तुत नहीं किया है। खोख़ली बयानबाजी़, बेतुकी इल्ज़ाम तराशी, शब्दों की छींटाकशी और विरोधियों को गाली देने के सिवा उनके पास कुछ और नहीं है।
मोदी की मुस्लिम उपेक्षा
मोदी के भक्तों ने मोदी-प्रेम प्रकट करने के लिये गुजरात विकास का फर्ज़ी नारा घड़ा है जबकि ब्ण्ण्ळ की रिपोर्ट के अनुसार गुजरात का हर तीसरा बालक कुपोषण का शिकार है और डेढ़ करोड़ लोगों के पास रहने के लिये पक्का घर नहीं है। भ्रष्टाचार और साम्प्रदायिक हिंसा के मामलों में मोदी के कई मंत्री जेल जा चुके हैं। ऐसी स्थिति में यह कैसे मान लिया जाये कि मोदी ने गुजरात को उन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया है। रही बात मुसलमानों की उपेक्षा करने की उसके लिये इतना ही काफी है कि मोदी गुजरात के दस प्रतिशत मुसलमानों में किसी को इस लायक नहीं समझते जिसे उनकी पार्टी असेम्बली चुनाव में टिकट दे सके और यह तो उनके लिये बहुत छोटी बात है कि केंद्रीय सरकार की छात्रवृत्ति वितरण स्कीम के अन्तर्गत जब उनके प्रांत में मुसलमान छात्रों के लिये केन्द्र से धन आया तो उन्होंने इसे मुस्लिम छात्रों तक नहीं जाने दिया। यहाँ तक कि मोदी सरकार के इस रवैये को उच्च न्यायालय में चैलेंज किया गया और न्यायालय ने मोदी सरकार को यह आदेश दिया कि वह मुस्लिम छात्र छात्राओं को छात्रवृत्ति का धन वितरित करे। मोदी सरकार ने इस आदेश का पालन करने के बजाय इसे उच्चतम न्यायालय में चैलेंज कर दिया जिसका अर्थ यह है कि नरेन्द्र मोदी मुसलमानों के साथ व्यक्तिगत ‘शत्रुता का रवैया बनाए रखना चाहते हैं। उनकी यह शत्रुता बात-बात में प्रकट होती रहती है।
स्वयं उन्हीं के बकोल उनके नज़दीक मुसलमानों की हैसियत कुत्ता-बिल्ली सरीखे जानवरों से अधिक नहीं। 2002 के गुजरात दंगों से प्रभावित जिन गरीब मुसलमानों ने कैम्पों में पनाह ली थी ऐसे कैम्पों को मोदी बच्चा पैदा करने के कारखाने और मुसलमान बच्चों को वह अनेक बार साईकिल में पंक्चर लगाने वालों की फौज कह चुके हैं। मज़लूम मुसलमानों के साथ उन्होंने जो रवैया बनाये रखा था उस पर उन्हें खुद उन्हीं की पार्टी के प्रधानमंत्री राजधर्म निभाने की नसीहत दे चुके हैं। गुजरात दंगों पर अपनी टिप्पणी में उच्च न्यायालय ने उन्हों ने मॉडर्न नीरू की उपाधि दी थी। उनके राज में स्वयं उनके इशारे पर मुसलमान बच्चों और बच्चियों के जो फर्ज़ी एन्काउंटर सामने आये हैं वह दुनिया जानती है। मोदी स्वयं को कट्टर हिन्दूवादी नेता मानते और कहते हैं लेकिन यह उनकी कोई खास विशेषता नहीं है। हिन्दू कट्टरवादी नेता तो उन सभी पार्टियों में भी बहुत हैं जो स्वयं को धर्म निरपेक्ष कहती हैं और मेरे ख्याल में कट्टर हिन्दूवादी होना कोई निर्गुण भी नहीं है। वास्तव में मोदी ने हिन्दू कट्टरवादी होने के साथ अपनी छवि मुस्लिम शत्रु की भी बनायी है और वह उसे बनाए रखना भी चाहते हैं। उनकी यही विशेषता उन्हें दूसरों से अलग करती है और उनकी यही विशेषता है जो उन्हें हीरो बनाती है क्योंकि यह एक विशेष वर्ग के दिल की आवाज़ है। मुसलमानों पर अगर शिकंजा कसा जाये तो इस विशेष वर्ग की आत्मा को शान्ति मिलती है और मोदी इस हुनर से बखूबी वाक़िफ हैं इसलिये यह विशेष वर्ग मोदी को सिर-आँखों पर बिठाये हुए है और पार्टी के बड़े-बडे़ दिग्गजों को छोड़कर वह मोदी पर फिदा है और रात दिन नमो नमो की माला जपता है। परन्तु इस दौर में राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जो ह़ालात हैं उनमें मोदी की उक्त जैसी विशेषताओं का खुल्लम-खुल्ला गुणगान नहीं किया जा सकता अतः मोदी प्रेमियों ने इसके लिये एक विशेष परिभाषा का निर्माण किया है और वह है ‘‘गुजरात का विकास मॉडल।’’ यह मोदी प्रेमियों का विशेष कोडवर्ड है वरना जहाँ तक गुजरात के विकास की बात है स्वयं उन्हीं की पार्टी के शीर्ष लीडर एल के अड़वाणी ऐलानिया यह बात कह चुके हैं कि शिवराज सिंह के नेतृत्व में मध्य प्रदेश ने गुजरात से भी अधिक उन्नति की है। जहाँ तक मोदी के तीन तीन बार चुनाव जीतने की बात है तो यद्यपि अल्पसंख्यक समुदाय को विलेन बनाकर और उसके विपरीत बहुसंख्यक वर्ग की भावनाओं को भड़काकर सत्ता हथियाना प्रजातांत्रिक राजनीति का सस्ता सौदा है जिसका तजुर्बा सबसे पहले इटली में ‘‘हिटलर’’ ने किया था और उसी तजुर्बे को मोदी ने गुजरात में आज़माया है। इस आसान फार्मूले के पहले तजुर्बेकार का संसार में क्या हश्र हुआ उससे क़ता नज़र, कोई भी सद्बुद्धि रखने वाला इंसान यह कह सकता है कि खूनी राजनीति का यह शार्टकट जिसमें इंसानी लाशों पर सियासत की दीवार खड़ी की जाये, एक घटिया प्रकार की राजनीति है जिसे फासीवादी राजनीति का नाम दिया जाता है और फासीवादी राजनीति का अन्त इस प्रकार होता है कि वह स्वंय अपने हाथों अपने जीवन का खात्मा कर लेती है क्योंकि इंसानों की लाशों पर रक्त-रंजित राजनीति की आयु अधिक नही होती और प्रकृति स्वयं उससे हिसाब चूकता कर लेती है। बहरहाल मोदी जिस प्रकार अपनी ही प्रजा के समुदाय विशेष के खिलाफ शत्रुता पर आधारित बहुसंख्यकीय भावनाओं को भड़काने वाली सस्ती राजनीति करते हुये तीन-तीन योजनाओं से सत्ता पर बने हुये हैं उसे किसी सत्ताधारी का राजधर्म नहीं कहा जा सकता।
इसके अतिरिक्त भारत में ऐसे-ऐसे मुख्यमंत्री भी मौजूद हैं जो अपने-अपने प्रदेश के लगातार तीन-चार और पाँच-पाँच बार मुख्यमंत्री चुने जाते रहे हैं, परंतु उनकी यह लोकप्रियता मोदी मित्रों के लिये कभी आकर्षण का विषय न बन सकी। स्वयं उनकी पार्टी के शिवराज सिंह जो मध्य प्रदेश के लगातार दो से अधिक बार मुख्यमंत्री चुने गये और अडवानी जी के बक़ौल उनके नेत्रत्व में मध्य प्रदेश ने गुजरात से अधिक तरक्की की है वे कभी इन लोगों के दिल की ऐसी धड़कन नही बन सके क्योंकि उनकी भाजपा वाली कट्टरता, मुस्लिम शत्रुता तक नहीं जाती। इसलिये उनमें और उन जैसे और कई लीडरों में इस वर्ग की कोई दिलचस्पी नहीं है।
हिन्दूवादियों का मोदी प्रेम
प्रश्न यह है कि यह विशेष वर्ग मोदी के मुस्लिम शात्रुता वाले उनके रवैये पर इस क़दर मोहित क्यों है कि बड़े-बड़े विद्वानों, विचारकों और बुद्धिजीवियों और पार्टी के लिये जीवन भर की क़ुर्बानी देने वालों को छोड़कर यह वर्ग मोदी को देश के सबसे शीर्ष पद पर देखना चाहता है। आखिर क्या कारण है कि जो लीडर मुसलमानों से खुली शात्रुता (मोदी पढ़िये) दिखाता है वह इस वर्ग के हृदय में क्यों बैठ गया है। अर्थात इस वर्ग को मुस्लिम समाज से इतनी नफरत है कि जो उनसे खुली शत्रुता दिखायेगा वह उसके हृदय की आवाज बन जायेगा क्योंकि कहावत मशहूर है कि शात्रु का शत्रु दोस्त होता है’’। मुसलमान जो इस देश की एक बड़ी आबादी और देश का अभिन्न अंग है उससे इस विशेष वर्ग की यह शत्रुता क्या समाज और देश के लिये कोई अच्छा संकेत है? आपका इस बारे में क्या ख्याल है कि दस व्यक्तियों का एक समूह है जिनमें के छः व्यक्ति चार की उपेक्षा करते हैं उनका अपमान करते हैं अपने संखीय बल से उन पर दबाव बनाये रखना चाहते हैं जबकि स्थिति यह है कि आम जीवन में न तो चार का छः के बगैर काम चल सकता है और न छः का चार के बगैर। ख्याल रहे कि भारत वर्ष के अधिक भू-भाग मंे मुसलमानों की जो आबादी है उसके मद्दे नज़र यह कहा जा सकता है कि शायद कोई हिन्दू ऐसा न हो जिसे अपने जीवन में कभी किसी मुसलमान से सरोकार न रहा हो और यही बात मुसलमानों की हिन्दुओं के सम्बन्ध में है। चाहे वह व्यापार के सम्बन्ध का सरोकार हो या मेहनत मज़दूरी का या मानव जीवन की अन्य आवश्यक्ताओं का। ऐसी स्थिति में अगर एक समुदाय दूसरे से शत्रुता का भाव प्रकट करके यह समझता है कि उससे केवल दूसरे पक्ष की ही हानि होगी और उसे इसका कोई नुक़सान नहीं पहुँचेगा तो यह उसकी सरासर भूल है।
भारत का मुसलमान इसी समाज का हिस्सा है, उसकी रगों में भी उन्ही पूर्वजों का खून दौड़ता है जो अन्य भारतीयों की रगों में है। भारतीय मुसलमानों की अधिक संख्या उन्हीं ज़ात बिरादरियों से सम्बन्धित है और उन्ही नामों से पुकारी भी जाती हैं। अन्य मुसलमान भी कई सदियों से यहीं रहते आये हैं उन्होंने भारत को अपना वतन माना है। देश के बँटवारे के समय उनके पास विकल्प था परन्तु उन्होंने भारत की धरती को नहीं छोड़ा और यहीं रहना पसन्द किया, परन्तु क्योंकि वह अल्पसंख्यक है अतः उन्हें डराया धमकाया जा सकता है उन्हें विलेन के रूप में प्रस्तुत करके अपनी सियासत की दुकान चलाई जा सकती है। क्या यह एक अच्छा ख्याल है? बहुसंख्यक समुदाय के उस विशेष वर्ग को जो मोदी मोहित है उसको यह विचार करना चाहिये कि वह मोदी प्रेम के द्वारा यह प्रकट कर रहा है कि उसे मुस्लिम समाज से बेवजह की शात्रुता है और जो लीडर उनसे शत्रुता का खुला सुलूक करे वह उनके लिये किसी महबूब से कम नहीं। जो लीडर मुसलमानों को मारने, काटने की बात करे वह इस वर्ग के दिल की आवाज़ क्यों बन जाता है? बी जे पी के एक बड़बोले नौजवान लीडर ‘‘वरूण गाँधी’’ ने कुछ दिनों पहले अपने भाषण में मुसलमानों की गर्दन उडाने और उनके हाथ काटने की बात की थीं जिस कारण वह जेल अवश्य चले गये थे परन्तु मुस्लिम दुश्मनी पर आधारित केवल दो शाब्द बोलकर वह रातों-रात बी जे पी के स्टार कम्पेनियन भी बन गये थे। यह बातें एक विशेष वर्ग की मानसिकता को समझने के लिये काफी हैं । क्या यह वर्ग समझता है कि शात्रुता मेल-मिलाप से बेहतर है। आपसी रंजिश और नफरत भाई-चारे से बेहतर है या वह समझता है कि अब मौक़ा उसके हाथ है तो वह अपने इस रवैये से मुसलमानों को निकाल बाहर करेगा। अगर वह ऐसा समझता है तो वह दीवार पर लिखा नहीं पढ़ रहा है और समाज व राष्ट्र को पीछे की ओर खींचने का प्रयास कर रहा है।
भारत में मुसलमान
भारत एक विशाल देश है जिसकी आबादी एक अरब से ऊपर है। मुसलमान भी यहाँ की एक बड़ी आबादी है। एक अंदाज़े के अनुसार यहाँ पर उनकी संख्या बीस करोड़ से ऊपर है। कहने को यहाँ पर मुसलमान 15 प्रतिशत हैं लेकिन यह कुल भारत की बात है। स्थिति यह है कि कुछ क्षेत्रों में वह न के बराबर हैं और कुछ में एक या दो प्रतिशत हंै परन्तु एक बडे़ भू-भाग में और देश के महत्वपूर्ण राज्यों में महत्वपूर्ण स्थानों पर बड़ी संख्या में हैं। कुछ क्षेत्रों में 40-50 प्रतिशत भी हैं और कुछ क्षेत्रों में बहुसंख्यक भी हैं। इतनी बड़ी कम्युनिटि और इस प्रकार की आबादी की उपेक्षा कर, उस पर दबाव बनाकर उसको विलेन के तौर पर प्रस्तुत करने वाली राजनीति कर बहुसंख्यक समाज का कोई विशेष वर्ग अगर यह समझता है कि वह देश या समाज की कोई बड़ी सेवा कर रहा है तो वह पागलों की दुनिया में जी रहा है जिसने अभी तक सच्चाई को स्वीकार नहीं किया है और सच को स्वीकार न करना प्रकृति से टक्कर लेना है और जो प्रकृति से टकराता है वह केवल अपना सर ही फोड़ सकता है। प्रकृति का रूख नहीं मोड़ सकता। आज का भारत नवयुग का भारत है जो केवल हिन्दुओं का नहीं मुसलमानों का भी है, सिखों का, ईसाईयों का और अन्य धर्मावलम्बियों का भी है परन्तु यह विशेष वर्ग समझता है कि वे एक हज़ार साल पहले दौर में जी रहा हैं जहाँ उसकी कल्पना के अनुसार चंद्रगुप्त मौर्य की सरकार है और चाणक्य नीति से वह सबको पीछे की ओर धकेल देगा।
किसी बुद्धिमान का कथन है कि सत्य जहाँ भी मिले, जितना जल्द हो सके उसे स्वीकार कर लेना चाहिये, परन्तु जो सत्य को स्वीकार न करे, उसके स्वीकार न करने पर भी सत्य सत्य ही रहता है, असत्य नहीं हो जाता है। आज का हिन्दुस्तान किसी विशेष जाति-धर्म का भारत नहीं है अपितु भिन्न-भिन्न जाति धर्मों और समुदायों का देश है। जैसे यह हिन्दुओं का देश है ऐसे ही मुसलमानों का भी है। इसके संसाधनों पर जैसे अन्य भारतीयों का अधिकार है ऐसे ही मुसलमानों का भी अधिकार है। अगर आप यह समझते हैं कि मुसलमानों को उनका अधिकार न देकर आप देश को ऊँचाईयों पर ले जायेंगे तो यह आपकी भूल है।
यहाँ यह स्पष्ट करना भी आवश्यक है कि हिन्दूवादियों की एक संस्था जो स्वयं को सबसे बड़ा राष्ट्रभक्त समझती है उसका लिटरेचर पढ़कर लगता है कि वह जी जान से इसी नाकाम प्रयास में लगी हुई है। दरअसल बीसवी ‘ाताब्दी की प्रथम चैथाई में जब देश अंग्रेजों से आज़ादी प्राप्त करने की ओर तेज़ी से बढ़ रहा था। उस समय एक विशेष विचार धारा के कुछ ऐसे लोग भी सामने आये जो आज़ादी की सुबह का उदय होते देख देश और राष्ट्र के तार एक हजार वर्ष पहले के भारत से जोड़ना चाहते थे। उनकी नज़र में देश पर मुसलमानों की हुकूमत का दौर किसी कलंक से कम नहीं था और उन्होंने इस कलंक को मिटाने के नाकाम प्रयास भी किये जिसमें उन्होंने चाणक्य नीति के मशहूर नियम साम, दाम, दण्ड, भेद का भी भरपूर प्रयोग किया। यह अलग बात है कि नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले इस समूह ने इस ओर कभी ध्यान नहीं दिया कि अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिये साम, दाम, दण्ड, भेद का हर अच्छा, बुरा व सही, गलत तरीका अपनाना कौन सी नैतिकता है?
बहरहाल शायद अब समया आ गया है कि यह विशेष वर्ग अपने दृष्टिकोण पर पुनः विचार करे क्योंकि इतिहास के चक्र को उल्टा नहीं घुमाया जा सकता। ऐतिहासिक तथ्यों का इन्कार कैसे किया जा सकता है, क्योंकि इतिहास सत्य होता है और सत्य को स्वीकार करना ही अकलमन्दी है।
‘‘हिन्दुस्तान’’ या ‘‘हिन्दूस्थान’’
भारत वासियों के लिए हिन्दू, और भारत के लिए हिन्दुस्तान, यह दोनों ‘ाब्द ऐसे हैं जो कदीम हिन्दुस्तानी साहित्य या भारतीय इतिहास पुस्तकों में कहीं नहीं मिलते हैं इन दोनों शब्दों का प्रयोग बाहर से आने वाले मुस्लिम हुक्मरानों ने किया था । यहाँ के सभी निवासियों को उन्होंने हिन्दू कहा और भारत देश को हिन्दुस्तान, सितां फारसी भाषा का शाब्द है जिसके माना बागीचा के होते हैं जो खुशहाली का प्रतीक है। हिन्दू शाब्द भोगोल सूचक था । जिसके साथ सितां शाब्द जोड़कर उन्होंने भारत देश का नाम रखा । इस प्रकार यह दोनों शाब्द हिन्दुवादियों की दृष्टि में बाहरी लोगों के दिये हुए हैं। लेकिन यह हिन्दुवादी जो बात-बात में स्वदेशियत का बखान करते हैं जिन्हें भारत को इन्डिया कहना गुलामी का प्रतीक नज़र आता है उन्हें इन दोनों शाब्दों से बड़ा प्यार है और तथाकथित बाहरी लोगों द्वारा दिये ये नाम उन्हें स्वदेशी नहीं पूर्ण देशी नज़र आते हैं। हिन्दुस्तान शाब्द की फारसियत को दरकिनार करते हुए अब उन्होंने उसमें हिन्दुवियत पैदा कर ली है और वे हिन्दुस्तान को हिन्दूस्थान लिखते और बोलते हैं। और अपनी संर्कीण दृष्टि पर अड़ित दिखाई पड़ते हैं कि हिन्दुस्तान पर केवल हिन्दुओं का अधिकार है
हिन्दूवादियों में मोदी लहर
यह सच है कि हिन्दुत्व वादियों में मोदी की लहर है और वह नमो नमो का बखान कर रहा है। सच यह है कि मोदी की एक बड़ी विशेषता है जो उन्हों अन्यों से अलग करती है वह है मुसलमानों के लिये उनका आक्रामक रूख। उनकी मुस्लिमों से इस हद तक नफरत है कि वह स्टेज पर भी मुसलमानों का प्रतीक टोपी1 अपने सर पर रखने से साफ इंकार कर देते हैं। वह साम्प्रदायिक दंगों में अपनी पुलिस और अपने अधिकारियों को यह हिदायत दे सकते हैं कि अधिक सतर्कता मत दिखाना और हिन्दू समुदाय को मुसलमानों पर हमला करने में थोड़ी छूट दे देना 2, वह यह कर सकते हैं कि केन्द्र से आने वाली मुस्लिम बच्चों की छात्रवृत्ति के धन को रूकवा सकते हैं। यहाँ तक कि माननीय हाई कोर्ट भी अगर मुस्लिम छात्र-छात्राओं में इस धन को बाँटने का आदेश करे तो वह उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में जा सकते हैं। फिर सुप्रीम कोर्ट भी उन्हे मुस्लिम बच्चों की छात्रवृत्ति वितरण का आदेश करे, तो वह पटीशन को रिविज़न में ले जा सकते हैं। यह सब उन पर केवल इल्ज़ाम नहीं विख्यात सत्यता है। यह सब बातें ऐसी हैं जिनका (कम से कम) इस आधुनिक समय में खुलकर समर्थन नहीं किया जा सकता इसलिये मोदीवादियों ने इसे एक सुन्दर नाम दिया है और वह नाम है ‘‘विकास का गुजरात मॉडल’’-जहाँ तक गुजरात विकास की बात है बेहतर हो । इस पर कोई बात न की जाए। क्योंकि गुजरात एक ऐसा राज्य है जो अतीत से ही अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा विकासशील रहा है। उसके कुछ कारण भी हैं यह प्रांत समुद्री तट पर होने के कारण अतीत में भारत की एक बडी़ बन्दरगाह का क्षेत्र रहा है जो विदेशों से आवाजाही का एक बड़ा केन्द्र था। आधुनिक युग में विदेशों में जो उन्नति हुई अतीत में भी उसका प्रभाव बहुत पहले गुजरात में नज़र आया है। भारत में अंग्रेजों के समय में कपड़ा मिल सबसे पहले गुजरात में स्थापित किया गया था। गुजरात विकास में जितना पहले अग्रसर था उतना ही आज भी है। उसमें मोदी ने इतना इज़ाफा किया है कि अब वहाँ के मुसलमान बच्चों को छात्रवृत्ति तक नहीं मिलती। अब वहाँ का मुसलमान नñ 2 का शाहरी बनकर जीवन व्यतीत करता है।
यक़ीनन यह शाब्द आपको बुरे लगे होंगें मगर ठहरिये! मैं आपकी चिंता दूर करता हूँ। गुजरात में क़रीब दस प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। अब अगर आप इस वास्तविक्ता को स्वीकार करते हैं कि भारत में आबाद मुसलमान भी इसी धरती का वासी है और इसके संसाधनों पर उसका भी उतना ही अधिकार है जितना किसी अन्य का, तो फिर आपको यह भी मानना होगा कि आबादी के अनुसार सत्ता में हिस्सेदारी भी उसका बुनियादी अधिकार है। किसी भी प्रांत की एसेम्बली सत्ता का केन्द्र होता है। एसेम्बली या पार्लियामेंट से मुसलमानों को दूर रखने के लिये यह कुछ कम बात न थी कि मोदी की पार्टी बी जे पी एक दो ऐसे मुसलमानों की तलाश कर लिया करती थी। जिन्हें मुसलमानी की जरा भी हवा न लगी हो, परन्तु मोदी ने एक क़दम आगे बढ़ाते हुए यह निर्णय लिया कि उनकी पार्टी से कोई मुसलमान, नाम को भी विधान सभा में नहीं आयेगा। अतः वह गुजरात एसेम्बली में भूलकर भी किसी मुसलमान नाम के व्यक्ति को टिकट नहीं देते बल्कि अपने भाषण में मुसलमान नामों को विलेन के बतौर इस्तेमाल करते हैं1 और मोदी की यही वह अदा है जो मोदी वादियों को मुग्ध कर देती है और वह मोदी मोहित हो जाते हैं। क्या यह कोई अच्छा दृष्टिकोण है कि आप हकदार को उसका हक न दें? क्या आपने अभी तक यह स्वीकार नहीं किया कि भारत की इस पावन धरती पर मुस्लिम कम्युनिटि भी बराबर का अधिकार रखती है। अगर अभी तक आपने यह स्वीकार नहीं किया तो आप दीवार पर लिखा नहीं पढ रहे हैं। आप भरी दोपहर में सूर्य के अस्तित्व का इंकार कर रहे हैं। अर्थात आप सत्य को स्वीकार नहीं कर रहे हैं और जो सत्य को स्वीकार न करे, वक्ती चमक-धमक चाहे उसकी आँखों को चकाचैंध कर दे अन्ततः उसका परिणाम गलत ही निकलता है।
मोदी एक दूसरी पंक्ति के लीडर इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि नरेन्द्र मोदी अपनी पार्टी के भीतर, एक दूसरी पंक्ति के नेता थे उनकी पार्टी में पहली पंक्ति के ऐसे ऐसे लीडर विद्यमान हैं जिन्होंने मोदी को उंगली पकड़कर राजनीति के पथ पर चलना सिखाया है जो बुद्धि, ज्ञान और सामाजिकता में उनसे ऊपर हैं और उनसे कहीं अधिक योग्य हैं। इसके बावजूद पार्टी विधाताओं ने उन्हें दूसरी पंक्ति से उठाकर पहली पंक्ति के शीर्ष पर बैठाया है। उन्हें यह रूतबा केवल उनकी एक विशेषता के कारण मिला है और वह है उनकी कट्टरता परन्तु उनमें यह कट्टरता केवल मुस्लिम विरोध में है। स्वधर्म के आधार पर नहीं। जहाँ तक स्वधर्म की बात है इस हवाले से हम कह सकते हैं कि मोदी सिरे से धार्मिक व्यक्ति ही नहीं हैं अपितु कड़वा सत्य यह है कि मोदी धर्म को पेशाब पर रखते हैं। क्या यह बात कड़वी लग रही है? या आप इसे केवल एक आलोचक का इल्ज़ाम समझ रहे हैं? तो ठहरिये! मैं आपको याद दिलाता हूँ कि मोदी जी ने कुछ दिनों पहले अपने एक मशहूर भाषण में ‘देवालय’ से पहले शौचालय’ की जो बात कही थी वह तो आपको याद होगी? क्या मोदी जी ने देवालय की शौचालय से बेतुकी तुलना करके धर्म को पैशाब पर नहीं रख दिया है।
प्रश्न यह है कि ऐसा व्यक्ति जो समुदाय विशेष के विरोध में कट्टरता के शीर्ष पर बैठा है उसे राजनीति में आप आँखों में बैठाकर समुदाय विशेष को क्या पैग़ाम देना चाहते हैं? यही न कि समुदाय विशेष अर्थात मुस्लिम समाज आपको स्वीकार नहीं है। अब देखना यह है कि बहुसंख्यक वर्ग मोदी को स्वीकार करके अगर इस प्रवृति को मान्यता देता है तो मुस्लिम समाज में इसका क्या संदेश जायेगा? और उसका जो प्रभाव होगा क्या वह देश के हित में है? क्योंकि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता है कि आप स्वीकार करते हैं या नहीं। परन्तु यह सत्य है कि मुस्लिम समुदाय भारतीय समाज का हिस्सा है और कोई भी समाज अपने एक विशेष भाग को अपने संसाधनों पर बराबर के अधिकार से वंचित रखकर स्वयं भी महानता का दावा नहीं कर सकता। अगर कोई परिवार अपने ही कुछ सदस्यों का बाइकाट करके यह समझें कि वह स्वयं चैन की नींद सो सकेगा तो यकीनन यह उसकी नासमझी होगी। बेहतर समाज वह है जिसमें सबको अपना हिस्सा मिले यह कहावत तो आपने सुनी ही होगी कि ‘‘कलीसा का हिस्सा कलीसा को दो और रोम का हिस्सा रोम को’’। परन्तु समय के हजार थपेड़े खाकर भी एक विशेष मानसिक प्रवृति के लोग अपनी बात पर अडे़ हुये हैं और वह सस्ती राजनीति करके सत्ता की गद्दी हथियाना चाहते हैं। यह विशेष वर्ग भारत की सैक्युलर राजनीतिक पार्टियों को अक्सर अल्पसंख्यक तुष्टिकरण का ताना देता रहता है। जबकि यह सब कुछ अगर तुष्टिकरण है तो उसे यह मालूम होना चाहिये कि वह बहुसंख्यक तुष्टिकरण का शिकार होता है और यही वह रास्ता है जो सस्ती राजनीति से आरम्भ होता है और ‘‘फासीवाद’’ पर समाप्त होता है।
स्पष्ट है कि जो अल्पसंख्यकों का तुष्टिकरण करेगा उसे अगर बदले में कुछ मिला भी तो वह अल्प में ही होगा। इस की अपेक्षा बहुसंख्यक तुष्टिकरण पर आधारित राजनीति में अधिक हाथ आने की संभावना है परंतु यह भारतवासियों विशेषकर बहुसंख्यक हिन्दू समाज की महानता और उसके हृदय का बड़ापन है कि उसने आज़ादी के बाद से आज तक उस संकीर्ण मानसिकता को पूर्ण रूप से मान्यता नहीं दी जो दूसरों को स्वीकार करने पर आमादा नहीं है परंतु क्या अब समय परिवर्तित हो गया है? क्या अब मोदी जैसा व्यक्ति जो देवालयों को पैशाब पर रखता हो वह भारत जैसे अध्यात्मिक देश का प्रधानमंत्री बनेगा? बहुसंख्यक हिन्दू समाज के एक विशेष वर्ग में जो मोदी का तूफान खड़ा किया गया है उसे देखकर तो यही लगता है। परन्तु अगर ऐसा हुआ तो हमें यह मान लेना चाहिये कि यह देश ‘‘फॉसिज़्म’’ की ओर जा रहा है और ‘‘फॉसिज़्म’’ वह बला है कि उसने जिस को अपनी लपेट में लिया है उसे तबाह करके छोड़ा है।
फॉसिज़्म क्या है?
कमज़ोर की ताकतवर से कोई तुलना नहीं की जा सकती। ताक़तवर को आता देख कमज़ोर को रास्ता छोड़ना पड़ता है यह प्रकृति का नियम है कि बड़ी मछली छोटी को खा जाती है। अल्पसंख्यक वर्ग और बहुसंख्यक वर्ग की कहानी कम से कम भारत में तो ऐसी ही है। बहुसंख्यक वर्ग के पास सत्ता होती है ताक़त होती है तथा साधन होते हैं। उसके पास सबसे बड़ी शाक्ति संख्याबल की होती है वह अगर उग्र हो जाये तो उसे शाक्ति से दबाना संभव नहीं। यहाँ तक कि न्यायालय भी उसके आगे बेबस दिखाई पड़ता है। उसका एक उदाहरण ‘‘अयोध्या’’ प्रकरण है इसे अलग रखते हैं कि वहाँ मंदिर है या मस्जिद। उसका मामला न्यायालय में था और न्यायालय को यह भरोसा दिलाया गया था कि विवादित ढ़ाँचा सुरक्षित रहेगा परन्तु उसे टूटते हुये सम्पूर्ण संसार ने देखा और तोड़ने वालों को न तो सरकार रोक सकी न न्यायालय उन्हें कोई सज़ा दे सका। भारत का अदालती निज़ाम निष्पक्ष कार्य करता है और उक्त प्रकरण में उस समय के यू.पी. के मुख्यमंत्री कल्याण सिंह को जिन्होंने न्यायालय के समक्ष विवादित ढाँचे को सुरिक्षत रखने का हल्फनामा जमा किया था उन्हे केवल एक दिन की सज़ा सुनाई थी। ऐसे मौकों पर हमें न्यायालय की कुछ मजबूरियाँ दिखाई पड़ती हैं जो ‘‘फासीवाद’’ का परिणाम होती हैं। तात्पर्य यह है कि अल्पसंख्यक अर्थात कमजोर अगर उग्र हो जाये तो उसे ताक़त से दबाया जा सकता है और उस पर न्यायालय का शिकंजा भी कसा जा सकता है परन्तु बहुसंख्यक के उग्र को शाक्ति से नहीं दबाया जा सकता जबकि न्यायालय के सामने भी बहुत सी मजबूरियाँ आन खड़ी होती हैं। अर्थात यह कहा जा सकता है कि अल्पसंख्यक अगर उग्र हो जाये तो उसे ‘उग्रवाद’ कहा जाता है और अगर बहुसंख्यक उग्र हो जाये तो वह ‘फासीवाद’ है। इसका एक अन्य उदाहरण देखिए, हैदराबाद के एक मुस्लिम लीडर ने हेट स्पीच दी तो वह सलाख़ों के पीछे चले गये जबकि उससे भी बढ़कर एक हिन्दू लीड़र हेट स्पीच करते रहते हैं उनके विरूद्ध मुक़दमात भी दर्ज होते रहे हैं परन्तु न तो सरकार उनका कुछ कर पाती है और न ही न्यायालय। यह कोई पक्षपात का विषय नही है बल्कि अगर ऐसे मामलों में कोई बड़ी कार्यवाही हो जाये तो उसके विरूद्ध बहुसंख्यक वर्ग में जो प्रतिक्रिया होगी उसे शान्त कर पाना बहुत कठिन होगा यह उसका विषय है।
कुछ ऐसा ही मामला अयोध्या की मस्जिद के विवादित ढाँचे को तोड़ने वालों का है जिनमें बड़े बड़े लीडर, धार्मिक गुरू और सामाजिक संगठनों के बडे़-बड़े नेता शामिल थे। यह अलग बात है कि वहाँ मंदिर होना चाहिये या मस्जिद। यह मुद्दा तो अभी न्यायालय के समक्ष था परन्तु जिन लोगों ने न्यायालय के नियम व क़ानून की अनदेखी करते हुए विवादित ढ़ाँचे को तोड़ दिया। इस प्रकार उन्होंने एक ढाँचे को ही नहीं गिराया बल्कि भारतीय संविधान को धराशायी कर दिया और न्यायालय की गरिमा को पैरों तले रोंद डाला, वह कानून देश के निर्माताओं द्वारा देश के लिये ही बनाया हुआ था और वह न्यायालय भी उन्हीं का था जिसने उन्हें इस बात का पाबंद किया था कि विवादित ढ़ाँचे पर कोई आँच न आये। परन्तु ऐसा नहीं हुआ और ऐसा करने वालों का आज दो दहाईयों के बाद भी कुछ नहीं बिगड़ सका। अदालत भी उनके सामने बेबस रही और सरकार भी।
हिन्दूवादियों का शौर्य दिवस
अयोध्या की यह घटना 6 दिसम्बर 1992 की है। आज स्थिति यह है कि दिसम्बर का महीना करीब आता है तो आम शाहराहों पर ‘‘हिन्दू ‘शौर्य दिवस 6 दिसम्बर’’ के बड़े बड़े बोर्ड़ लगाये जाते हैं, और ‘शौर्य जुलूस निकाले जाते हैं प्रश्न यह उठता है कि क्या क़ायदे क़ानून ताक पर रखकर न्यायालय को धता बताते हुये हिंसा और ज़ोर ज़बरदस्ती से कोई कार्य करना ‘शौर्य का प्रतीक है? दरअसल उनका यह कृत्य समुदाय विशेष का मुँह चिढ़ाने के लिये है और कमज़ोर का मुँह चिढाना ‘शौर्य नहीं कायरता है।
अरबी भाषा की एक कहावत मशहूर है जिसका अर्थ यह है कि घटिया इंसान को जब ताकत मिलती है तो वह अहंकारी हो जाता है और सत्ता मिलती है तो वह ज़ालिम हो जाता है। ‘शौर्य दिवस मनाने वाली भारतीय शूरवीरों की यह जमाअत दोनों बातों का सच्चा उदाहरण प्रस्तुत कर रही है।
कहा जाता है कि जो दूसरों पर एक उंगली उठाता है उसके हाथ की बाक़ी चार उंगलियाँ स्वयं उसी की ओर उठ रही होती हैं। अतः हम कह सकते हैं कि यह शूरवीर शौर्य दिवस के द्वारा अल्पसंख्यक समुदाय को यह याद दिलाते हैं कि एक समय वह भी था जब तुम इतने ‘ाक्तिशाली और बहादुर और ‘शौर्यवान हुआ करते थे कि तुम्हारी मुट्ठी भर फौज ने हम बहुसंख्यकों के आस्था के केन्द्र पर बने धर्मस्थल को तोड़ कर उस पर मस्जिद का निर्माण कर दिया था, और बहुसंख्यक होते हुए भी हम इतने कायर और कमज़ोर थे कि हज़ारों वर्ष तक हमारा ‘शौर्य एवं हमारी शाक्ति स्वंय हमारा ही मुँह चिढ़ाती रही। फिर समय बदला(क्योंकि समय का नियम ही बदलाव है) और हमारी ‘शौर्य शाक्ति जाग उठी तो हमने न्यायालय और सरकार दोनों की अवहेलना करते हुये उस ढ़ाँचें को गिरा दिया जिसका मुद्दा अभी न्यायालय में विचाराधीन था, और हमने न्यायालय में यह शापथ पत्र प्रस्तुत किया था कि हम विवादित ढ़ाँचें को नहीं छेडेंगें। इस प्रकार हमने धोखे और छल करने में कोई कमी नहीं की जिसे हम कुछ अधिक बुरा भी नहीं समझते हैं।
‘शौर्य दिवस के जुलूस से वह यह भी याद दिलाते हैं कि यह तो समय-समय की बात है। कल सत्ता तुम्हारे पास थी और उस समय यह कौन सोच सकता था कि सत्ता परिवर्तन भी हो सकता है। परन्तु सत्ता परिवर्तन हुआ और अब सत्ता हमारे पास है और यह कल्पना कैसे की जा सकती है कि एक बार फिर सत्ता परिवर्तित हो सकती है परन्तु समय का तो नियम ही बदलाव है। अतः अगर समय ने फिर पल्टा खा लिया और सत्ता तुम्हारे हाथ आयी तो 6 दिसम्बर को याद रखते हुये जो कुछ हमने किया है वही सब तुम कर लेना।
यह भी कितना घटिया विचार है कि जिसके पास ताक़त और शाक्ति आ जाये वह भरपूर मनमानी करे। अगर भारतीय समाज इस विचारधारा को मान्यता दे रहा है तो फिर यह श्रंखला कहाँ रूकेगी? और जो इस विचारधारा को प्रोत्साहन दे रहे हैं क्या वह चाहते हैं कि हिंसा का यह सिलसिला यों ही चलता रहे कि जिसको जब और जहाँ अवसर मिले वह न्यायालय व सरकार आदि की कोई परवाह न करते हुए जो कुछ भी अपनी ‘ाक्ति के बल पर हो सकता हो वह करे। यह जंगलराज नहीं तो और क्या है?
प्रश्न यह भी है कि अगर अयोध्या के विवादित ढ़ाँचे को तोड़ना असंवैधानिक था तो इस कार्य को ‘‘‘शौर्य दिवस’’ का प्रतीक बनाने की अनुमति देना क्या सरकारों की नीयतों के खोट को नहीं दर्शाता है?
अयोध्या में मन्दिर या मस्जिद!
यह इतिहास का विषय है कि क्या अयोध्या में राम जन्मभूमि मन्दिर था जिसे तोड़कर उसके ऊपर ही मस्जिद बनाई गई थी? यह विवाद उठने के बाद इस पर काफी चर्चाएँ हुई हैं और इस विषय पर काफी शोध भी हुआ है। इस छोटी सी पुस्तिका की तंगदामनी मुझे इस बात की अनुमति नहीं दे रही है कि मैं इस पर विस्तार से चर्चा करूँ, परन्तु इस विषय पर दो बातें अवश्य कहना चाहूँगा।
पहली बात यह कि इस मुद्दे पर उच्च न्यायालय का फैसला आ गया है और उसने विवादित भूमि को तीन स्थानों में बाँटते हुये एक हिस्सा मुसलमानों को मस्जिद बनाने के लिये और दो हिस्से हिन्दुओं को मंदिर के लिये दिये हैं। खास बात यह है कि न्यायालय ने अपने फैसले की बुनियाद वास्तविक तथ्यों से अधिक आस्था पर रखी है। इसका मतलब यह हुआ कि राम जन्मभूमि मन्दिर के संबन्ध में वास्तविक तथ्यों का अभाव है। जहाँ तक आस्था की बात है इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि आस्था सच्चाई से ऊपर नहीं हो सकती और जिस आस्था की बुनियाद झूट और अन्याय पर हो, वह आस्था नहीं ढ़ोंग है। इसका एक उदाहरण इस्लाम से पेश किया जा सकता है। मसलन एक मुसलमान की आस्था मस्जिद में होती है, नमाज़ में होती है, हज में होती है। अब अगर कोई इस आस्था की पूर्ति के लिये बिना इजाज़त या ताक़त के बल पर, ज़ोर ज़बरदस्ती से एक इंच ज़मीन लेकर भी वहाँ मस्जिद बना दे और उस पर नमाज़ पढ़े! या पैसा चुराकर हज को चला जाये तो इस्लाम की नज़र में न यह आस्था, आस्था है! न यह मस्जिद, मस्जिद है! और न यह हज, हज है।
अतः अगर तथ्यों से यह साबित हो जाता कि बाबरी मस्जिद किसी मन्दिर को तोड़कर बनाई गई थी तो देश का मुसलमान उससे दस्तबर्दार होने में देर न करता। परन्तु ऐसा नहीं हो सका बल्कि इसके विपरीत कुछ तार्किक तथ्य अवश्य सामने आते हैं। उदाहरण के बतौर एक ओर तो स्थिति यह है कि किसी भी समाज में किसी के जन्म स्थान को सुरक्षित रखने या उस पर यादगार बनाने का रिवाज नहीं है क्योंकि जब कोई बालक पैदा होता है तो किसी को उस समय यह ज्ञान होना संभव नहीं है कि यह बालक कोई महान व्यक्ति बनेगा अतः किसी भी समाज में जन्म स्थान को सुरक्षित रखने या उस पर यादगार बनाने का रिवाज नहीं है। अगर यह सत्य है तो फिर श्री राम का जन्म स्थान कैसे चिन्हित हुआ।
दूसरी ओर बाबर के सम्बन्ध से ऐसा नहीं लगता कि वह मन्दिर को गिराकर उस पर मस्जिद बनाने की अनुमति देता क्योंकि बाबर मुसलमान था और जैसा कि ऊपर लिखा जा चुका है कि इस्लाम क़तई इस बात की अनुमति नहीं देता कि आप किसी दूसरे व्यक्ति या समुदाय की ज़मीन पर मस्जिद का निर्माण कर दें।
दूसरी बात यह है कि बाबर का इतिहास पढ़कर नहीं लगता कि वह ऐसा घृणित कार्य करने की अनुमति दे सकता था। बाबर जिसने अपनी मशहूर रचना ‘‘तज़क-ए-बाबरी’’ में अपने बेटे ‘‘हुँमायूं’’ को नसीहत करते हुए लिखा है कि ‘‘भारतीय जनता का बहुसंख्यक वर्ग हिन्दू है जो गाय को पवित्र समझता है तुम अगर यहाँ हुकूमत स्थापित रखना चाहते हो तो गाय काटने की अनुमति मत देना।’’ प्रश्न यह है कि जो राजा इस हद तक संवेदनशील हो कि वह अपने राज्य में गाय काटने की मनाही इसलिये करे क्योंकि उसमें बहुसंख्यक वर्ग की आस्था है, क्या वह ‘‘राम जन्म भूमि’’ पर बने मंदिर को तोड़कर उस पर अपने नाम से मस्जिद बनाने की अनुमति दे सकता है?
एक अंतिम बात जो इस विषय पर कई प्रकार के प्रश्न खड़े करती है वह यह कि हिन्दूवादियों की यह जमाअ़त जो आज तक संसार को यह बात निश्चित करके नहीं बता सकी कि श्री राम का कार्यकाल कौन सा था? और श्री राम चार हज़ार साल पहले पैदा हुये हैं या चार लाख साल पहले? उसने राम के जन्म स्थान की एक-एक इंच जगह को निश्चित करते हुये यह चिन्हित कर दिया है कि राम अयोध्या में बनी मस्जिद के महराब के समीप बने हुये मिमबर की पहली पैड़ी पर मस्जिद के तीन गुम्बदों में से बीच वाले गुम्बद के एक दम नीचे पैदा हुये थे।
इसे कहते हैं चोरी और सीना जोरी। अगर आपके गली मौहल्ले में किसी ज़मीन पर दो व्यक्तियों के बीच विवाद हो जाये और दोनों उस पर अपना अपना दावा पेश करंे तो इसका हल क्या है? यही न कि अभियोग न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर दिया जाये परन्तु अगर किसी ऐसे मामले में एक पक्ष ज़ोर ज़बरदस्ती अपना अधिकार स्थापित करते हुए भवन का निर्माण कर उस पर ‘‘ ‘शौर्य के प्रतीक’’ का बोर्ड लगा दे तो ऐसे व्यक्ति के बारे में आपका क्या खयाल है? इसे ही तो जंगलराज कहा जाता है जहाँ कोई न्याय व्यवस्था नहीं होती बल्कि ताक़त की बुनियाद पर क्रियाएँ की जाती हैं अतः ताकतवर कमज़ोर को खा जाता है।
‘‘फासिज़्म’’ ज़ोर ज़बरदस्ती, धौंस और बल की बुनियाद पर सत्ता स्थापित करने का नाम है। भारत का बहुसंख्यक वर्ग अगर इसे स्वीकार कर रहा है तो फिर उसे किसी बड़ी तबाही के लिये तैयार रहना चाहिये क्योंकि यह समय ‘‘फासिज़्म’’ का नहीं है और ‘‘फासिज़्म’’ के जनक ‘‘हिटलर’’ का जो परिणाम हुआ था वह इतिहास के पन्नों में देखा जा सकता है।
हाल ही में मुज़फ्फरनगर में साम्प्रदायिक दंगें हुए हैं। साम्प्रदायिक दंगों में अक्सर दोनों ही समुदायों का कुछ न कुछ क़सूर होता है। मुजफ्फरनगर के इस दंगे को भड़काने में एक फर्ज़ी विडियो क्लिप ने आग में घी का काम किया था। इसमें अल्पसंख्यक वर्ग के द्वारा बहुसंख्यक वर्ग के लोगों को मारते हुए दिखाया गया था। यह एक फर्ज़ी विडियो क्लिप था जिसके बारे में पुलिस महानिदेशक तक को टी0 वी0, रेडियो, अख़बारों के माध्यम से यह सफाई देनी पड़ी कि उस विड़ियो की जाँच करा ली गयी है। वह पूरी तरह फर्ज़ी है और पब्लिक उस पर ध्यान न दे। इस फर्ज़ी विड़ियो क्लिप को कथित तौर पर बहुसंख्यक वर्ग की राजनीति करने वाली राजनीतिक पार्टी के एक विधायक ने इंटरनेट पर अपलोड़ किया था। जरा सोचंे! जिस देश के विधि विधाता इस प्रकार के कार्य करने लगे हों तो उस देश में राजधर्म की स्थापना होगी या जंगल राज की? फिर उस समाज के बारे में आपका क्या ख्याल है जो ऐसे घृणित कार्य करने वाले राजनेताओं का भव्य स्वागत करें। ज्ञात हो कि उक्त वर्णित विधायक जी का ‘‘श्री नरेन्द्र मोदी’’ की अगारा रैली में स्वागत किया गया है। अगर आप इसे राक्षसी प्रवृति नहीं समझते हैं तो फिर मेरी राय में आपको अपने दिमाग का इलाज कराने के बारे में विचार करना चाहिये। अगर भारत के बहुसंख्यक समाज ने इस प्रवृति को स्वीकार कर लिया है और वह देश की सत्ता उन हाथों में देने जा रहा है जो देश में उक्त प्रकार की राजनीति करेंगे तो समय की प्रतीक्षा की जाये। प्रकृति ऐसी मानसिकता का स्वयं इलाज कर देती है। ऐसा ही समय का इतिहास रहा है।
मोदी और हिटलर
मोदी की जो लोकप्रियता बनी है वह हिटलर के सहयोगी गोबल्स के उस फार्मूले पर आधारित है जिसमें उसने कहा था कि झूठ को अनेक लोग अनेक बार बहुतायत से बोलें तो वह सच की तरह दिखने लगेगा।
वास्तव में मोदी जैसे लोग बदनाम-ए-ज़माना हिटलर और मसूलीनी से अत्याधिक प्रभावित हैं। ‘‘राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ’’ के भूतपूर्व सर संघचालक डा. गोलवालकर ने अपनी किताब में हिटलर की बढ़ चढ़कर प्रशंसा की है और आर एस एस के संस्थापक डा0 हेडगीवार के गुरू डा0 बी एस मुंजे भी हिटलर और मसूलीनो के फासिज़्म के फलसफे से प्रभावित थे। डा0 मुंजे अपनी यूरोप यात्रा के दौरान इटली जाकर मसूलीनी से मिले थे और कई दिनों तक उनके मेहमान रहकर उन्होनें मसूलीनी की फौज के केन्द्रों को देखा था। डा0 मुंजे ने अपनी डायरी में इस यात्रा का विस्तार से वर्णन करते हुए एक दर्जन पृष्ठों में मसूलीनी की प्रशंसा की है।
‘‘हिटलर’’ और ‘‘ मसूलीनी’’ आज के हिन्दू क़ौम परस्तों के आदर्श हैं। जैसे यह क़ौम परस्त यहाँ की अल्पसंख्यक कम्युनिटी मुसलमानों को निशाना बनाकर राजनीति चमकाना चाहते हैं इसी प्रकार ‘‘हिटलर’’ ने ‘‘जर्मनी’’ में अल्पसंख्यक ‘‘यहूदियों’’ को निशाना बनाकर और बहुसंख्यक ईसाईयों को उनके विरूद्ध भड़काकर सत्ता हथियाई थी। हिटलर ने भी अपने इस कृत्य को ‘‘नेशनलिज़्म’’ का नाम दिया था जैसे आज के हिन्दूवादी ‘‘राष्ट्रवाद’’ की बात करते हैं। जैसे जर्मनी में हिटलर यहूदियों के लिये भय का पर्याय था ऐसे ही भारत में मोदी मुसलमानों के लिये भय और नफरत का पर्याय हैं परन्तु एक वर्ग के लिये वह ऐसे राजनीतिक हीरों हैं जिन्हें यह वर्ग देश के सर्वोच्च पद पर देखना चाहता है। इतिहास और भूगोल तक का सही ज्ञान न रखने वाला कमजोर आई0 क्यू0 का ऐसा व्यक्ति1 जो अपनी पार्टी में दूसरी पंक्ति का नेता था वह केवल इस कारण एक वर्ग के हृदय की धड़कनों में बस गया है क्योंकि वह दूसरे वर्ग के लिये भय का प्रतीक है। यह भी शायद उसी सिद्धांत पर आधारित है जो गोधरा कांड के बाद भड़के गुजरात दंगों पर श्री मोदी ने प्रस्तुत किया था कि हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। अगर भारत के भाग्य विधाता इसी सिद्धंात के दृष्टिगत देश में होने वाले साम्प्रदायिक दंगों और आतंकवादी घटनाओं को नज़र अंदाज़ करते रहे तो फिर श्रंखला बहुत दूर तक जायेगी। अगर श्री मोदी जी के सिद्धांतानुसार गोधरा के बाद की घटना गोधरा कांड की प्रतिक्रिया थी तो देश की कुछ तफतीशी ऐजेंसियों के इस कथन को भी स्वीकार कर लेना चाहिये कि मार्च 1993 के बम्बई बम ब्लास्ट 6 दिसम्बर 1992 की अयोध्या घटना की प्रतिक्रिया थी। इस प्रकार तो भारतीय विमान अपहरण केस से लेकर ‘‘अक्षरधाम मन्दिर’’ पर हमले और ‘‘बम्बई बम कांड’’ तक कितनी ही क्रियाओं की प्रतिक्रियाएँ दिखाई पड़ेंगी। अगर नफरत की ऐसी ही आँधी चलती रही तो फिर कोई भी समुदाय चैन की नींद नही सो पायेगा, क्या ऐसे सिद्धांत वादियों के हाथों में सत्ता सौंप कर बहुसंख्यक वर्ग पूरे देश को बदअमनी के अंधेरे में धकेलना चाहता है। बेहतर हो कि यह क्रियाएँ और प्रतिक्रियाएँ बन्द हों वरना यह एक ऐसी डायन है जो अपने और बैगानों में कोई अंतर नहीं करती।
मोदी और बुद्धिजीवी वर्ग
यह दुख की बात है कि हिन्दू समाज का हाई प्रोफाइल वर्ग जिसमें अपर क्लास, पढ़ा लिखा बुद्धिजीवी वर्ग शामिल हैं। मोदी का जादू उसके सर चढ़कर बोल रहा है। हमने जितने भी मोदी नवाज़ों से बात की है उन्होने केवल वही एक रटा रटाया ‘‘गुजरात विकास’’ के मॉडल का नारा लगाया जिसकी कोई परिभाषा उनके पास नहीं है। जहाँ तक मोदी की बात है तो दूसरी पंक्ति का यह लीडर केवल मुस्लिम दुश्मनी में ही सबसे ऊपर है और उसकी यही अदा अगर उसके भक्तों को भा रही है तो वह देश को कहाँ ले जाना चाहते हैं यह सोचने की बात है। स्पष्ट है कि मुस्लिम विरोध और खुली मुस्लिम दुश्मनी नरेन्द्र मोदी की एक महत्वपूर्ण विशेषता है जो उन्हे दूसरों से अलग करती है और यह हमारे देश के बहुसंख्यक समुदाय के एक विशेष वर्ग की पहली पसंद थी ही परन्तु देश के इस विशेष वर्ग में जिस प्रकार हिन्दू समाज का बुद्धिजीवी वर्ग सम्मिलित हुआ है और उसे भी मोदी में अपने सपनों का भारत दिखाई दे रहा है। तो यह चिन्ता का विषय है। मीडिया प्रजातंत्र का चैथा स्तम्भ है, जिसका कार्य निष्पक्षता से सच को सामने लाना और समाज को आइना दिखाने वाला होना चाहिये। परन्तु मीडिया कर्मियों ने जिस प्रकार मोदी का प्रचार किया है उसके कारण उनका मोदी प्रेम छुपाये नहीं छुपता। क्या यह वर्ग इस फरेब का शिकार हो गया है कि मोदी राजगद्दी पर बैठते ही, भारत की हर समस्या का तुरन्त समाधान कर देंगें।
मोदी सत्ता और मुसलमान
मुस्लिम समुदाय कभी नहीं चाहेगा कि मोदी जैसा व्यक्ति दिल्ली की गद्दी पर बैठे यद्यपि यह निर्णय बहुसंख्यक वर्ग को करना है, परन्तु मुस्लिम समाज मोदी जैसों से भयभीत कदापि नहीं है। कारण यह है कि मोदी या उनकी पार्टी उससे अधिक कुछ नहीं कर सकती जो गत आधी शाताब्दी से मुसलमानों के साथ होता आया है मौजूदा स्थिति यह है कि मुस्लिमों के नज़दीक बी जे पी और कांग्रेस एक सिक्के के ही दो रूख हैं। फर्क केवल यह है कि बीñ जेñ पीñ जो कुछ कहती आई है उसे कांग्रेस अपने सत्ताकाल में करती आई है। कांग्रेस का सैक्यूलरिज़्म केवल नाम का है, बकौल एक दानिश्वर-कांग्रेस कहती है कि उसके पास 24 कैरेट का सैक्यूलरिज़्म है जबकि वह 14 कैरेट का सैक्यूलरिज़्म बेचती है। इसी प्रकार बी जे पी का कहना है कि उसके पास 24 कैरेट का हिन्दुत्व है जबकि वह 14 कैरेट से ऊपर का हिन्दुत्व नहीं बेच सकती और 14 कैरेट का सैक्युलरिज़्म और 14 कैरेट का हिन्दुत्व दोनों का स्तर एक है ! कांग्रेस ने अपने सत्ताकाल में जितना हिन्दुत्व ला दिया है उससे अधिक लाना संभव नहीं है। आज़ादी के बाद देश की सत्ता कांग्रेस पार्टी के हाथ आई और उसकी छत्रछाया में भारतवर्ष एक धर्म निर्पेक्ष गणराज्य घोषित किया गया। आज भी यह देश संविधान के अनुसार एक सैक्यूलर देश है। परन्तु क्या धरातल पर भी ऐसा ही है? जिस देश की पार्लियामेंट के आरम्भ और अंत में ‘‘वन्देमात्रम्’’ की धुन बजे, हर प्रकार के सरकारी भवन का शिलान्यास ‘‘भूमि पूजन’’ से हो और शिक्षण संस्थानों में किसी भी प्रतियोगिता का आरम्भ ‘‘सरस्वती वन्दना’’ से किया जायें, जहाँ पर ‘‘इसरो’’ जैसा ‘‘अंतरिक्ष विज्ञान केन्द्र’’ अपने अंतरिक्ष मिशन से पहले ‘‘तिरूपति’’ के बाला जी का आशीर्वाद लेना जरूरी समझता हो और अंतरिक्ष में सेटेलाइट भेजने से पहले उसका एक छोटा सा मॉडल ‘‘त्रोमाला मन्दिर’’ में ‘‘भगवान बालाजी’’ के चर्णो मे रखता हो, अगर यह सब होते हुए भी कोई देश ‘‘धर्म निरपेक्ष’’ रहता है तो फिर कोई बताए कि धर्म पक्षधर किसे कहेंगें?
जब भी श्री नरेन्द्र मोदी का जिक्र होता है तो 2002 के गुजरात दंगों का चित्र मस्तिष्क में उभर आता है। यह बीñ जेñ पीñ या मोदी जी के हिस्से का कार्य था जो उन्होने अपने कार्यकाल मे किया जहाँ तक कांग्रेस की बात है तो उसके दामन पर ‘‘भागलपुर’’,‘‘जबलपुर’’,‘‘जमशेदपुर’’ ‘‘नीली’’, बम्बई, भैवन्डी, मुर्शिदाबाद, मुरादाबाद, ‘मेरठ और मलयाना जैसे न जाने कितने गुजरात के नक्शे मौजूद हैं केवल यही तो अन्तर है कि एक सैक्युलरिज़्म के नाम पर यह सब कुछ करता है और दूसरा हिन्दुत्व के नाम पर।
मोदी भक्त और मुसलमान
बहुसंख्यक समुदाय का वह वर्ग जो मोदी का बेपनाह भक्त है वह भारतीय मुसलमानों को सत्ता से दूर देश के संसाधनों से वंचित देखना चाहता है उसका प्रयास रहता है कि मुसलमान दूसरे दर्जे का ‘ाहरी बनकर रहें और दबाव में जीवन व्यतीत करें, स्वंय बीñ जेñ पीñ के एक दिग्गज नेता ने ‘‘मिस्टर जिन्ना’’ पर लिखी अपनी एक पुस्तक में इस ओर इशारा किया है कि बँटवारे के बाद देश में रह जाने वाले मुसलमानों के साथ अछूतों जैसा सुलूक किया गया। यह वर्ग जो कुछ चाहता है कांग्रेस ने तो उसे करके दिखाया है। आजादी के समय सरकारी नौकरियों में जहाँ मुसलमान तीस प्रतिशत थे वहाँ आज तीन प्रतिशत से भी कम हैं। जहाँ तक मुसलमानों को दबाव में रखने की बात है उसको एक उदाहरण से समझा जा सकता है। गत दिनों देश भर में कुछ अप्रिय घटनाएँ होती रही हैं कहीं बम फट गया, कहीं किसी धर्म स्थल पर हमला हो गया, कहीं पुलिस अधिकारियों के नाम पुलिस स्टेशन या रेलवे स्टेशन को बम से उडाने की धमकी भरा पत्र या ईमेल आ गया, ऐसी घटनाओं को देश के विधि विधाताओं से लेकर मीडिया तक ने कई स्थानों में बाँटा है।
इस प्रकार की घटनाएँ अगर आम शाहरों में होती हैं और उनको हिन्दू समाज या संगठन से जुडे़ किसी व्यक्ति ने अंजाम दिया है तो समझिये कि वह एक सामान्य घटना है और उसको अंजाम देने वाला व्यक्ति मानसिक रूप से ठीक नहीं था। इस कारण यह घटना तवज्जह देने लायक़ भी नहीं है। अतः ऐसे मामले को या तो पुलिस दबा देती है और अगर मुक़दमा दर्ज भी हो गया तो किसी को कुछ पता नहीं चलता कि फिर इस मामले में क्या हुआ? और अगर इस प्रकार की घटना में किसी मुसलमान व्यक्ति का नाम आ जाये तो मीडिया कर्मियों से पुलिस विभाग तक की सक्रियता देखते ही बनती है। सबसे पहले मीडिया ट्रायल शुरू होता है और मीडिया को विशेष सूत्रों से ज्ञात होता है कि यह कार्य करने वाला अन्तर्राष्ट्रीय आतंकवादी था जिसके तार कई इन्टरनेशनल दहशतगर्द संगठनों से जुडे थे, और फिर अन्डर ग्राउन्ड आतंकवादी संगठनों के ऐसे ऐसे नामों से उसे जोड दिया जाता है कि वह व्यक्ति ही क्या उसके दूर-दूर के रिश्तेदार भी काँपने लगते हैं और वह पुलिस विभाग और देश की वह तफतीशी ऐजेंसियाँ जो बहुचर्चित आरूशी हत्या कांड़ में केवल चार व्यक्तियों के एक घर में होने वाले कत्ल के कातिल की चार वर्षों तक जाँच पड़ताल के बाद भी अंधेरे में भटकती रही और अन्त में अपनी ओर से उसने न्यायालय के समक्ष क्लॉजिंग रिपोर्ट पेश की। हमारी वही सक्रिय पुलिस उक्त प्रकार की किसी घटना में पकड़े गये किसी मुसलमान व्यक्ति को छूकर यह बता देती है कि उसके तार किस किस देश से जुडे थे। वह कितनी दुर्घटनाओं का मास्टर माइंड है और किस किस लीडर को बतौर-ए-खास बीñ जेñ पीñ के लीडरों को मारने की वह योजना बना रहा था।
हमारी पुलिस की सक्रियता से एक बात यह भी सामने आती है कि राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं के यह आतंकवादी कमान्ड़र इतने बेवकूफ भी होते हैं कि पकड़े जाने से पहले एक पर्चा लिखकर अपनी जेब में रख लेते हैं जिसमें उनकी सारी प्लानिंग होती है और वह पर्चा उर्दू में होता है। तात्पर्य यह है कि ऐसी घटनाओं के पीछे अगर मुस्लिम समुदाय से जुड़े तत्व पाये जायें तो उसका नाम उन्होने आतंकवाद रखा है और अगर उस घटना के पीछे मुस्लिमों के अतिरिक्त कोई और है तो फिर वह आतंकवाद नहीं कुछ और है। गोया कि इन्हें केवल उसी घटना से आंतक और भय महसूस होता हे जिसे कोई मुसलमान अंजाम दे, बाक़ी लोग तो घर के सदस्य हैं वह चाहे कितनी भी बड़ी घटना कर दें उससे आतंक नही फैलता। अतः वह आतंकवाद नहीं कुछ और है।
नक्सलियों द्वारा की जाने वाली घटनाओं का उक्त प्रकार की घटनाओं से तुल्नात्मक अध्ययन कीजिये। सत्य सामने आ जायेगा। नक्सली बम ब्लास्ट करें, बारूदी सुरंग बिछाकर धमाका कर दें, दो-दो दर्जन पुलिस कर्मियों को मौत के घाट उतार दें। एक सिपाही को मारकर उसका पेट चाक करके उसमें बम रख दें, यह सब आतंकवाद नहीं है क्योंकि इसका जो नाम रखा गया है उसे ‘नक्सलवाद’ कहते हैं।
भगवा आतंकवाद
एक दौर था जब बी जे पी वाले कहा करते थे कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं परन्तु हर आतंकवादी मुसलमान है। भला हो समय का, कि उसने एक ईमानदार अफसर सामने ला दिया जिसने इस मिथ को तोड़ा, उस अफसर को ‘‘हेमंत करकरे’’ के नाम से जाना जाता है जिसने पहली बार देश को ‘‘भगवा आतंकवाद’’ से परिचित कराया। ‘‘हेमंत करकरे’’ और उनकी टीम द्वारा उजागर किये गये भगवा आतंकवाद के बाद दो प्रकार के आतंकवादी चेहरे सामने आये। इनमें से एक को आप चाहें तो ‘‘मुस्लिम आतंकवाद’’ और दूसरे को ‘‘हिन्दू आतंकवाद’’ कह सकते हैं। आतंकवाद के इन दोनों समूहों में हमको एक बड़ा स्पष्ट अंतर दिखाई पड़ता है अर्थात जो मुसलमान इस प्रकार की घटनाओं को अंजाम देने के इल्ज़ाम में पकड़े गये वह अक्सर सामान्य तरह के आम लोग थे जबकि दूसरी ओर ऐसे ‘‘साधु’’ और ‘‘साधुवी’’ पकड़े गये जिनके पीछे लाखों की भीड़ थी। ऐसे ‘‘स्वामी’’ और ‘‘महात्मा’’ पकड़े गये जो तथाकथित ‘‘शंकर आचार्य’’ के पद को छूने के दावेदार थे और ग़ैर जानिबदारी के लिये मशहूर फौज के बडे़-बडे़ पदाधिकारी ‘‘लेफिटनेंट कर्नल’’ और ‘‘मेजर’’ जैसे अफसर ‘ाामिल थे। यही नहीं बल्कि स्वर्गीय ‘‘हेमन्त करकरे’’, ‘‘अशोक कामटे’’ और ‘विजय सालकर’ की विशेष टीम ने जो बम्बई ऐ टी ऐस का हिस्सा थी। हिन्दू क़ौम परस्त कही जाने वाली बड़ी बड़ी संस्थाओं के पदाधिकारियों के नाम उजागर किये थे जो अपनी छत्रछाया में आतंकवाद को पालने पोसने का कार्य कर रहे थे।
आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता
यहाँ पर स्वर्गीय हैमन्त करकरे एवं उनकी टीम को धन्यवाद दिये बिना नही रहा जा सकता जिन्होने आज़ाद भारत के इतिहास में पहली बार निष्पक्ष छानबीन करने का प्रयास किया और यह साबित कर दिया कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। इसी के साथ उन्होने देश में बड़ी आतंकवादी घटनाओं को अंजाम देने वाले दो बड़े फौजी अफसर और तीन बड़े धर्म गुरूओं एक स्वंयभू ‘‘साधू’’ व एक ‘‘साधुवी’’ और एक तथाकथित ‘‘स्वामी’’ को गिरफ्तार किया और खुद को राष्ट्रवादी संस्था कहने वाले एक संगठन के बड़े पदाधिकारी की आतंकवादी घटनाओं में सक्रिय भूमिका निभाने वाले एक बड़े नेता का नाम उजागर किया था इसके साथ साथ उन्होने ऐलान किया था कि कुछ और बड़ी मछलियाँ पकड़ में आने वाली हैं, अभी यह चल ही रहा था कि बम्बई पर 26ध्11 का आतंकवादी हमला हो गया जिसमें दस आतंकवादियों ने पूरी मुम्बई को तीन दिन तक यरग़माल बनाये रखा और सारा देश सकते में आ गया। जाँच में यह बात सामने आई कि दस आतंकवादी पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान से आये थे। बहुत से मुस्लिम विचारक यह ख्याल करते हैं कि यह घटना हैमन्त करकरे जैसे इंसाफ पसन्द अफसर और उनकी टीम को मरवाने के लिये उन तत्वों द्वारा अंजाम दिलाई गई जो भगवा आतंकी चेहरे के उजागर होने से दुखी थे। उन्होनंे ही इस कार्य के लिये पड़ोसी देश के आतंकी कारखानों से दस आतंकवादी आयात कर इस दुर्घटना को अंजाम दिलवाया था। शायद पाठकों को याद हो कि यह घटना तीन दिनों तक चलती रही थी परन्तु पहले दिन सर्वप्रथम जो सूचना प्राप्त हुई थी उसमें ‘‘हैमन्त करकरे’’ और उनकी पूरी टीम के मारे जाने की खबर थी, जैसा कि आतंकवादी केवल इसी कार्य के लिये आऐ थे।
यह भी शायद आपको याद हो कि उस वक्त के एक मुस्लिम सांसद ‘‘अब्दुर्रहमान अनतुले’’ ने इस बात पर प्रश्न चिह्न लगाते हुए कि जहाँ करकरे और उनके साथी मारे गये हैं। उस विरोधी दिशा में वह कैसे पहुँचे? इसकी जाँच कराई जाए। जब पार्लीमेन्ट मे यह बात उठाई गई तो सबने एक आवाज़ होकर उनकी आवाज़ को दबा दिया था जबकि वह केवल निष्पक्ष जाँच की माँग कर रहे थे जिससे केवल सत्य ही सामने आता।
शायद यह भी आपको याद हो कि ‘‘हैमन्त करकरे’’ की मौत के बाद उनकी पत्नी से मिलने श्री ‘‘नरेन्द्र मोदी’’ जाना चाहते थे और उन्होनें एक करोड रूपये देने की भी पेशकश की थी लेकिन उनकी पत्नी ने न तो उनसे मिलने की अनुमति दी और न ही एक करोड़ रूपया स्वीकार किया। बहरहाल यह फर्ज़ शनास अफसर मारा गया तो स्थिति फिर वहीं पहुँच गयी और दोबारा से मुसलमानों को कटघड़े में खड़ा किया जाने लगा और यह सब कांग्रेस पार्टी की छत्रछाया में होता रहा।
श्री नरेन्द्र मोदी की पार्टी अगर सत्ता मे आती है तो इससे अधिक और कर भी क्या सकती है? इसलिये हिन्दुस्तान का मुसलमान न तो बी जे पी से डरता है और न मोदी से डरता है। मगर हाँ वह बी जे पी की ‘‘जंगलराज’’ और ‘‘फासीवाद’’ सोच (जिसका ऊपर ज़िक्र हुआ) के कारण उसे नापसन्द करता है और मोदी को एक ज़ालिम फॉसिस्ट सत्ताधारी समझते हुए उससे कड़ी नफरत करता है। अगर बहुसंख्यक समुदाय का एक विशेष वर्ग मोदी को उनके मुस्लिम विरोध की कट्टरता के कारण ही सर आँखों पर बिठा रहा है तो समझ लीजिए कि दो बड़े समुदायों के बीच नफरत की एक बड़ी खाई खोदी जा रही है। जो देश और समाज के लिए घातक सिद्ध हो सकती है।