Wednesday, June 30, 2010
,, क्या प्रथ्वी पर इस्लाम का समय अब पूरा हो चूका ,,?
इस शीर्षक का एक लेख ,,हमारी वाणी ,,और ,,चिटठा जगत,,पर घंटों स्थिर रहा, दूसरी ओर मै ने ,,महिला स्वतंत्रता का फरेब,, के नाम से एक लेख अपने ब्लोग पर पर्काशित किया ,जिस पर किसी बेनाम ने टिपण्णी करते हुए इस्लाम धर्म और उसके पर्वर्तक को गालियाँ देते हुए मुझे बाबर और औरंगजेब की औलाद की उपाधि पर्दान की ,और मुझे और इस्लाम धर्म को जी भर कर कौसा ,
इन दौनों घटनाओं पर ग़ौर करने से पता चलता हे कि इस्लाम और मुसलमानों के सम्बन्ध से ,,बिरादरान ऐ वतन,, किस पारकर की सोच रखते हैं,
जिन साहब को प्रथ्वी पर इस्लाम का समयं पूरा होता नज़र आ रहा है ,उन्हों ने अपने दावे पर कोई दलील परस्तुत न करते हुए कुछ अलग तरह कि बातें कि हैं ,मसलन वह लिखते हैं ,कि ,यह सही हे कि हर मुस्लमान आतंकवादी नहीं परन्तु यह भी सच है कि अस्सी पर्तिशत आतंकवादी मुस्लमान हैं ,मुझे यह पढ़ कर ख़ुशी हुयी ,कि कम से कम बीस पर्तिशत अपना बोझ हल्का हो गया, जो आपने अपने कन्धों पर ले लिया हे ,और बड़ी बात यह कि स्वीकार भी कर लिया,और लोगों को बता भी दिया, वर्ना हम तो भारी मन से आज तक यही सुनते आ रहे थे ,कि यह माना कि हर मुस्लमान आतंकवादी नहीं परन्तु हर आतंवादी मुस्लमान हे ,
दूसरी बात ,,,जिन साहब ने मेरे ब्लोग पर मुझ को गालीयों से नवाज़ा हे मैं उन के हक मैं हिदायत की दुआ करते हुए उन कि नज़र यह शेर करता हूँ ,,,,,,,,
कितने शीरीं हैं तेरे लब ,कि , रकीब ,
गलियां खा के भी बे मज़ा न हुआ ,
Tuesday, June 29, 2010
महिला स्वतंतरता का फरेब
श्रीमती जी, इस्लामी कानून दोनों के लिये बराबर है, जैसे बहुत सी मुस्लिम महिलाएं बुर्का पहनती हैं ऐसै ही बहुत से मुस्लिम मर्द दाढी भी रखते हैं परन्तु बहुत सी महिलाएं पर्दे के कानून का उलन्घन करती हैं ऐसे बहुत से मर्द भी दाढी के बारे में ‘
शरीआ का कानून तोडते हैं जैसे आप बुर्का नहीं पहनती और मैं दाढी नहीं रखता न आप पर किसी ने फतवा लगाया न मुझ से किसी ने स्पष्टिकरण मांगा, हाँ यह बात जरूर है कि पर्दे या बुर्के पर दुनिया भर में वाविला अधिक है। उसका कारण यह है कि मीडिया जिस पर इस्लाम मुखालिफों का कन्ट्रोल है वह इस्लाम को बदनाम करने के लिये इस्लामी पर्दे की बात को अधिक उछालता है और मर्द की दाढी के सम्बधं में वह प्रश्न ही नहीं करता, और आप जैसी महिलायें उनके "शडयन्त्र का शिकार होकर उनके सुर में सुर मिला कर कह देती है कि ‘शरीआ कानून केवल महिलाओं के लिये ही क्यों है, हासिल यह कि यह सवाल बचकाना है।फिरदौस जी ने अपने लेख में मुजफ्फरनगर की इमराना का वर्णन करते हुए पूछा है कि ‘
शरीआ कानून में बलात्कारी ससुर को सजा क्यों नहीं।यहाँ भी मुझे महोदया के ज्ञान भंडार में वृद्वि करनी होगी कृप्या नोट करें कि बलात्कारी ससुर की सजा मौत है। और जब बलात्कारी को मौत की सजा दे दी गई तो यह प्रश्न स्वतः ही समाप्त हो गया कि क्या अब पीडित महिला को बलात्कारी की पत्नी बनकर रहना होगा,असल बात यह है कि ‘
शरीअत के मुताबिक अगर किसी व्यक्ति ने किसी महिला से ‘शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर लिये तो वह उस मर्द की औलाद पर हराम हो जायेगी, और यह मसअला रिश्तों की हुरमत के लिये है कि बाप और बेटे एक ही गंगा में न नहायें, न कि रिश्तों को तोडने के लिये, इमराना जैसे केस में जैसा कि लिखा गया है कि बलात्कारी मृत्यु दण्ड का पात्र है, परन्तु फिर वही मीडिया का रवय्या देखें ! कि उसने बलात्कारी के पुत्र पर पीडित के हराम होने का तो ‘शोर मचाया परन्तु बलात्कारी की सजा क्या है उसका जिक्र तक न कियामीडिया की नीयत को समझने के लिये यहाँ एक घटना का वर्णन उचित होगा -
तीन नवम्बर 2009 के रोजनामा राष्ट्रीय सहारा के अनुसार राजकोट में इमराना जैसी एक घटना हिन्दू परिवार में घटी, पुलिस रिपोर्ट के अनुसार राजकोट के धर्मेश की पत्नी ने अपने ससुर के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करायी कि उसके ससुर ने उसका जबरदस्ती बलात्कार किया जिसमें उसका पति धर्मेश भी ‘
शामिल था कारण यह था कि धर्मेश अपनी पत्नी से सन्तान उत्पन्न करने में नाकाम रहा, अतः वह भी इस अपराध में ‘शामिल हो गया ताकि सन्तान प्राप्त कर सके, और विरोध करने पर उन दोनों ने उसे जान से मारने की धमकी दी ।खास बात यह रही कि इतनी बडी घटना मीडिया वालों में कोई हलचल पैदा न कर सकी, जबकि ऐसी ही घटना जब मुस्लिम परिवार में घट जाये तो तथाकथित महिलाधिकार के हजारों संरक्षक इस्लाम में महिलाधिकार हनन की दुहाई देते नहीं थकते ।
फिरदौस ने एक प्रश्न यह किया है कि क्या ‘
शरीआ का कानून ‘शाह बानों को न्याय दिला सका है ?महोदया ! जब कोई पीला चश्मा आँखों पर चढाये तो उसे हर वस्तु पीली ही नज़र आती है । ‘
शाहबानों जैसे मामलों में अगर पत्नी को तलाक हो जाय (इसको तो जाने दीजिए कि तलाक किन परिस्थतियों में होती है ‘शायद आपको इस पर भी एतराज हो, इसके लिये आप सूरह निसा और सुरह बकर की तलाक सम्बन्धि आयते देखें कि कुरआन से बडा मुफ्ती कोई नही होता वहाँ आपको लिखा हुआ मिलेगा कि तलाक ऐसी स्थिति में होगी जब दोनों के दरमियान ये डर पैदा हो जाए कि अब वे अल्लाह की हदूद को कायम नहीं रख पायेंगे )बहरहाल तलाक के बाद अलहैदगी हो जाने के बाद ‘
शरीआ चाहती है कि वह दोनों जो उपरोक्त परिस्थति उत्पन्न होने पर अलग हुए है जहाँ यह डर पैदा हो गया था कि ये अल्लाह की हदों को कायम नहीं रख पायेंगे, अतः इनमें अलहैदगी ही उचित है, ऐसे में अगर अदालत उस महिला का खर्च पहले पति पर डालती है तो यह आपने कैसे मान लिया कि जो आप से इस हद तक नफरत करता है कि अल्लाह की हदे ही टूटने का डर हो गया था, वह दायें हाथ से हर महीने खर्च की रकम को अमानत मानकर विधवा महोदया की सेवा में प्रस्तुत कर दिया करेगा, फिर रोज रोज उसे उदालतों के चक्कर लगाने होंगे, और अदालत केवल फैसला करेगी कोई पुलिस कपतान को आपकी सेवा में नौकर बना कर नहीं छोडेगी जो प्रतिमाह पूर्व पति से खर्च की रकम लेकर विधवा जी की सेवा में प्रस्तुत कर दिया करेगा ।दूसरी बात यह है कि आप विधवा पत्नी को इतना अप
मानित क्यों देखना चाहते हैं कि जो पती आपको साथ रखने पर तैयार नहीं आप उसकी खैरात पर क्यों जिन्दा रहना चाहती हैं, अब प्रश्न यह आता है कि विधवा की गुजर अवकात कैसे होगी तो मैं आपकी जानकारी के लिये बता दूं कि ‘शरीआ ने बाप की जायदाद में महिला को पुरूष की भांति ही हिस्सेदार बनाया है। बाप की विरासत में मिला हुआ धन उस के लिये खैरात नहीं उसका मूल अधिकार है ।अफसोस है कि जो शरीआ आप को मान सम्मान की धन दौलत का मालिक बनाना चाहती है । आप के नज़दीक उसकी अपेक्षा खैरात के टुकडे वह भी उस व्यक्ति के जो आप के साथ नहीं रहना चाहता अधिक पसन्द है। दूसरी मिलकियत जिसका ‘
शरीआ ने महिला को मालिक बनाया है वह उसका महर है। किसने कहा कि आप दो सौ चार सौ रूपये की रकम के मेहर बांधे ? सऊदिया अरेबिया में एक लाख रियाल अर्थात 14 लाख हिन्दुस्तानी रूपये से कम के मेहर बांधने का रिवाज़ नहीं, यह रकम पूर्णतः महिला की होती है जिसकी व जब चाहे पति से प्राप्त कर सकती है ।असल यह है कि हम जीवन भर हिन्दुवानी रस्म व रिवाज को फॉलो करते हैं और जब कोई पेरशानी खडी होती है तो ‘
शरीआ को दोष देते हैं ।लेख का आरम्भ हमने पर्दे से किया था आइये इस पर भी थोडी चर्चा करें । आज कल दुनिया भर में बुर्के का बडा ‘
शोर है अतः हमें यह समझना चाहिए कि वर्तमान का परम्परागत बुर्का ‘शरीआ का हिस्सा नही हैं (हाँ इसे आप मुस्लिम कलचर का हिस्सा जरूर कह सकते हैं ) आप बुर्का पहने या कोई चादर या कुछ और, मकसद पर्दा है, पर्दा उन अंगों का जो आकर्षण का केन्द्र हैं । पर्दे का मतलब यह नहीं कि आप स्वयं को किसी डब्बे या सन्दूक में बन्द करलें या घर को अपने लिये कैदखाना बनाकर उसमें कैद हो कर रह जाए, पुरूष हो या महिला दोनों को इस सम्बन्ध में ‘शरीआ कुछ न कुछ करने को कहती है ताकि समाज मे गंदगी न फैले, उसकी हद क्या है? उसे कुरआन की इन आयतों में देखें -ईमान वाले पुरूषों से कह दो कि अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपने गुप्तांगों को रक्षा करें । यही उनके लिए अधिक अच्छी बात है अल्लाह को उसकी पूरी खबर रहती है, जो कुछ वे किया करते हैं।
और इमानवाली स्त्रियों से कह दो वे भी अपनी निगाहें बचाकर रखें और अपने गुप्तांगों की रक्षा करें । और अपने श्रृंगार प्रकट न करें, सिवाय उसके जो उनमें खुला रहता है। और अपने सीनों (वक्षस्थल) पर अपने दुपट्टे डाले रहें और अपना श्रृंगार किसी पर जाहिर न करें सिवाय अपने पतियों के या अपने बापों के या अपने पतियों के बापों के या अपने बेटों के या अपने पतियों के बेटों के या अपने भाईयों के या अपने भतीजों के या अपने भांजों के या अपने मेल-जोल की स्त्रियों के या जो उनकी अपनी मिल्कियत में हों उनके या उन अधीनस्थ पुरूषों के जो उस अवस्था को पार कर चुके हैं जिससे स्त्री की जरूरत होती है या उन बच्चों के जो स्त्रियों के परदे की बातों से परिचित न हों । और स्त्रियां अपने पाँव धरती पर मारकर न चलें कि अपना जो श्रृंगार छिपा रखा हो, वह मालूम हो जाए । ऐ इमानवालो! तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो, ताकि तुम्हें सफलता प्राप्त हो । (कुरआन 24
: 30-31)महोदया ! बुर्का इन आयतों के अन्दर की ही चीज है इनके अलावा कुछ नहीं ।
‘
शायद आपको लगा हो कि महिला पर कुछ ज्यादती कर दी गई। परन्तु थोडा गहरायी में जाकर सोचें ।वास्तव में बात यह है कि कुदरत ने एक विशेष उद्देश्य से महिला के भीतर यह जज़्बा वदीयत किया है कि वह इन्तहाई हसीन दिखना चाहती है स्वयं ईश्वर ने उसके ‘
शरीर में मर्द के लिये ग़ज़ब का आकर्षण रखा है। जैसा कि लिखा गया है कि इसका एक ज्ञात उद्देश्य है अतः पत्नी को अनुमति दी गई है कि वह पति के सामने बन संवर कर रह सकती है वे अपने महरम रिश्तेदारों, बाप, भाई, आदि के सामने भी जीनत अख्तियार कर सकती है कि कुदरत ने उनके बीच पाक़िजा़ प्यार रखा है परन्तु अजनबी मर्दों के लिए एैसा नहीं है अतः उनके अजनबी लोगों के हक़ में कहा गया है कि वे अपने आकर्षण वाले अंगो को छुपा लें, ताकि अजनबी मर्दों के जज़्बात न भडकें और कोई अनहोनी न हो जाए, क्योंकि ‘शरीआ में हर बहिन व बेटी की इज्जत बहुमूल्य है वह नहीं चाहती कि किसी बहिन या बेटी पर कोई बुरी नज़र डाले, या किसी बहिन, बेटी की इज्ज़त लूटे ।आईये अब हम यह देखें कि जहाँ कुरआन के उक्त फरमान को तोडा जाता है वहाँ क्या स्थिति है जैसा कि लिखा गया है कि हर लडकी स्वयं को हसीन और दिल नवाज़ बनाकर पेश करना चाहती है यही कारण है कि हम अधिकतर ‘ाहरों में देखते हैं कि आज की नौजवान युवतियां कम से कम कपडा ‘
शरीर पर रखना चाहती हैं, वह भी इतना चुस्त कि ‘शरीर का एक एक अंग यहां तक कि गुप्तांग भी अलग-अलग दिखाई दें, किसी भी दोशीजा़ की लहलहाती जुल्फें और चुस्त वस्त्रों में सीने का सुडौल उभार और उस पर निसवानी अदायें क्या क्यामत ढाती हैं यह किसी नवयुवक के दिल से पूछिये फिर क्या होता है? वह यह कि आवारा नौजवान मौके की ताक में रहते हैं, और मौका मिलते ही कांड कर देते हैं। याद रहे कि सख्त से सख्त कानून भी इन घटनाओं को नहीं रोक सकता, क्योंकि कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनका अपने जज़बात पर पूर्ण कन्ट्रोल नहीं होता नतीजा यह कि आये दिन अखबारों में हम नव युवतियों के साथ बलात्कार की घटनाएं पढते ही रहते हैं ।इस्लाम महिला को सम्मान देता है इसी कारण वह चाहता है कि किसी की इज्ज़त न लूटे अतः वह महिला को अपनी सुरक्षा के उपाय के तौर उसे वह आदेश देता है जो कुरआन में है।
कुछ मुस्लिम मुखालिफ ताकते मुस्लिम लडकियों को यह कह कर वर्गलाने का प्रयास करती हैं कि इस्लाम महिला को पुरूष के बराबर का दर्जा नहीं देता है। मेरा मानना है कि जो समाज यह दावा करता है कि उन के यहाँ पुरूष महिला समान हैं वे जमीनी सच्चाई के खिलाफ दावा पेश करते हैं क्योंकि जिस अर्थ में यह लोग महिला पुरूष की समानता की बात कर रहे हैं उस अर्थ
में समानता सम्भव नहीं।क्योंकि स्वयं प्रकृति ने दोनों को विभिन्न उद्देश्य से भिन्न भिन्न पैदा किया, और जिसे कुदरत ने ही समान उत्पन्न न किया हो मनुष्य की क्या मजाल जो उसे समान कर दे । ‘
शरीर की बनावट दिल, दिमाग यहॉं तक की खून और हेमोग्लोबिन की स्थिति दोनों में अलग-अलग होती है, ऐसे में ‘शरीआ कानून पर चढ दौड़ने वाले क्या कुदरत को डंडा लेकर मारना चाहेंगे कि उसने पुरूष के मुकाबले महिला के ‘शरीर को फूल सा कोमल क्यों बनाया या उस के सीने पर दिलकश उभार देकर उनमें दूध क्यों पैदा कर दिया, या उसे ही बच्चा जन्ने की जिम्मेदारी क्यों दी या उसे हर माह मंथली कोर्स का अतिरिक्त बोझ क्यों दिया। वास्तव में हमें यह भी जानना और समझना चाहिए कि इस सृष्टी को बनाने और चलाने वाली कोई प्रभू सत्ता है और मानव उस की सृष्टी का एक महत्वपूर्ण अंग है जिसके दोनों पार्ट (पुरूष :महिला) को सृष्टी रचियता ने एक विशेष उद्देश्य से भिन्न-भिन्न पैदा किया है और इस जो राज़ को न समझे वह स्वयं का ही नुकसान करेगा । ऐसे ही जैसे पहाड़ से सर को टकराने वाला पहाड़ का तो कुछ नहीं बिगाड पाता । परन्तु अपना सर अवश्य फोड लेता है । ऐसे ही प्रकृति से टकराने वाला उस का तो कुछ नहीं बिगाड पाता, ठीक इसी प्रकार पुरूष की बराबरी के धोके में आज की महिला स्वयं का ‘'शोषन करा रही है।यहां यह पुष्टि भी ज़रूरी मालूम होती है कि वर्तमान के तथाकथित आधुनिक मानव समाज ने जिन बिन्दुओं पर इस्लाम से अलग लीक बनाने की कोशिश की है वह कभी उस लीक को पटरी पर लाने में कामयाब नहीं रहा, अपितु ऐसे मामलों में उसे मुँह की खानी पड़ी है। उदाहरण के तौर पर स्त्री पुरूष की समानता की बात को लें, यूं तो इस्लाम ने भी एक दूसरे की तुलना में दोनों को समान अधिकार देते हुए कहा है कि-
महिलाओं के भी पुरूषों पर ऐसे ही अधिकार है जैसे पुरूषों के हैं
(कुरआन सूरह बकर आयत 228)
परन्तु यह वज़ाहत भी की है कि उत्प
त्ति के उद्देश्य एवं शरीर की बनावट के अलग-अलग होने के कारण पुरूष स्त्री से ताकत में एक दर्जा ऊपर है, अतः कुछ विशेष मामलों में दोनों की जिम्मेदारियां अलग-अलग हैं मसलन काम, कारोबार, पढ़ाई-लिखाई, व्यापार, खेल, और उचित मनोंरंजन आदि अर्थात जिन्दगी के हर क्षेत्र में तो दोनों को समान अधिकार प्राप्त हैं परन्तु स्त्री के शरीर को कुदरत ने एक विशेष उद्देश्य के कारण पुरूष के लिए आकर्षणीय बनाया है, अतः उसे इस बात का पाबन्द भी किया है कि वह घर से निकले तो अपने आकर्षण वाले अंगों को छुपा ले।बस यही बात वर्तमान के तथाकथित आधुनिक समाज को पसन्द नहीं आई और उस ने इस्लाम के द्वारा निर्धारित सीमा को लांग कर एक कदम आगे बढ़ाना चाहा। अतः उसने दावा किया कि हम स्त्री और पुरूष दोनों को एक पायदान पर खड़ा करेंगे। स्त्री को भी समाज का यह नारा बहुत लुभावना मालूम हुआ और उसे भी इस में अपनी स्वतन्त्रता नजर आयी। अतः वह भी आँखे बन्द करके इस नारे के पीछे दौड़ने लगी। वह गरीब यह न समझ सकी कि जिसे प्रकृति ने समान नहीं बनाया है, उसे समान पायदान पर लाना इंसान के बस की बात नहीं। यही कारण है कि समानता के नाम पर पुरूष महिला को बाजारों व कार्यालय में तो खींच लाया और अपने हिस्से का काम उसने महिला के कन्धों पर डालकर उसके कन्धों को बोझल तो कर डाला, लेकिन पुरूष ने उसके काम में हाथ नहीं बटाया। नतीजा यह हुआ कि जो महिला आफिसों में काम कर के रोजी कमाती है, घर में खाना भी उसे ही बनाना और परोसना होता है।
इस्लाम ने न तो महिलाओं को काम, कारोबार से रोका है और न नौकरी और व्यापार से, लेकिन आवश्यकता के अनुसार, क्योंकि इस्लाम माँ और बेटियों को इज्जत देता है, वह उन्हें बाजार की जीनत बनने से रोकता है।
आज के समाज ने महिला की जीनत को बाजार में रखकर बेच दिया है। समानता के नाम पर उसके शरीर को नंगा करके उसकी असमत को तार-तार कर दिया है। यह कैसी समानता है? कि टी0वी0 स्क्रीन पर अख्बारात में, फिल्मों के पर्दे पर, पुरूष का पूरा शरीर वस्त्रों में ढ़का नजर आता है, और स्त्री अर्धनग्न देखी जा सकती है। आखिर हसीन दोशीजा़एं अपनी लहलहाती जुल्फों को सीने के दिलकश उभार पर सजा कर शरीर के नाजुक अंगो की नुमाइश करने वाले चुस्त और अल्प वस्त्र धारण करके महिला स्वतंत्रता के नाम पर किसे अपना योबन दिखाने बाजारों में बेजरूरत घूमने निकलती है? फिर जब नौजवान लड़के अपने जज्बात पर काबू न पाकर किसी अनहोनी को अन्जाम देते हैं तो वही कसूरवार ठहरते हैं उन्हें जेल जाना पड़ता है, और सजाएं भुगतनी होती हैं। इस्लाम केवल यह चाहता है कि किसी बहन की असमत न लुटे, किसी बेटी पर किसी की बुरी नज़र न पड़े, उसी के उपाय के तौर पर वह महिलाओं को पाबन्द करते हुए ताकीद करता है कि-
मुसलमान महिलाओं से कह दीजिए कि अपनी निगाहें
नीची रखें और अपनी असमत में फर्क न आने दें,
और अपनी श्रृंगार को ज़ाहिर न करें
(कु़रआन सूरह नूर आयत नः 30)
कु़रआन का यह हुक्म माँ और बेटियों की इज्जत व आबरू की सुरक्षा और उन्हें बुरी निगाहों से बचाए रखने के लिए है। यही वजह है की जब स्त्रि ऐसी आयुवस्था को पहुँच जाए की उस पर आवाराग
र्दों की निगाहें उठने का भय न रहे तो उन्हें छूट देते हुए कु़रआन कहता है-जो स्त्रियां युवावस्था गुजर चुकी हों उन पर कोई
दोष नहीं की वे अपने (पर्दे) के कपड़े उता दें
बशर्ते की वे श्रृंगार का प्रदर्शन करने
वाली न हों। (सूरह नूर 60)
कु़रआन के यह उपदेश बता रहे हैं कि इस्लाम का मकसद माँ और बेटी की सुरक्षा है, उन पर पर्दे का बोझ डालना नहीं।
गृहमंत्री के पद पर रहते हुए श्री एल
. के. आडवाणी ने बलात्कार के मुजरिम को मौत की सजा देने की वकालत की थी (ख्याल रहे कि इस्लाम धर्म में बलात्कारी की यही सजा है) परन्तु इस्लाम वह तदबीर भी बताता है, जिससे ऐसी घटनाएं न हों और वह है महिला का अपने शरीर के नाजुक अंगों को छुपाना, इसके बिना अपराध पर काबू पाने का प्रयास ऐसा ही है जैसे किसी व्यक्ति का पैर गंदी नाली में गिर जाय और वह पैर को नाली में डाले डाले ही धोनां चाहे और वहीं उस पर पानी डालता रहे, जाहिर है जब तक वह पांव को बाहर निकाल कर नहीं धोएगा तब तक उसके पैर की गन्दगी दूर नहीं होगी।यही हाल आज के समाज का है, लड़कियों को तो छूट है वे अपने शरीर को नंगा करके हुस्न-ए-बेपर्दा को हथेली पर रखकर घूमें और लड़को की निगाहों पर पहरे हैं। आखिर यह कैसे संभव है, अतः नतीजा जाहिर है कि स्त्री की असमत तार-तार है वह महज बाजार की जीनत बन कर रह गई है, समानता के नाम पर महज उसके शरीर की नुमाईश हुई है।
पुरूष स्वतन्त्रता के बहाने उसे कार्यालय में खींच लाया, और यहां उसे अपने पहलू में बिठाकर उसने महज अपने जज्बात को शान्त और उसकी असमत का शोषण किया है। इसका ज्यादा भयानक चेहरा पश्चिमी देशों में दिखाई पड़ता है, जहां पचास प्रतिशत आबादी को यह गिनती याद नहीं कि उन्होने कितनी स्त्री व पुरूषों के साथ जिन्सी ताअल्लुक कायम किया है। जहां पर हर तीसरी औलाद नाजायज पैदा होती है। जिनके मजहब में तलाक का तसव्वुर नहीं, फिर भी हर तीसरे जोडे़ में तलाक हो जाती है।
इस लम्बी तफसील का निष्कर्ष यह है कि ये सारी खराबियां इसलिए पैदा हुई कि समाज ने इस्लाम से एक कदम आगे रखना चाहा लिहाजा मुँह की खाई। कहावत है कि आसमान का थूका मुँह पर आता है।
आज भारतीय पार्लियामैन्ट में समानता की बुनियाद पर महिलाओं को पचास प्रतिशत आरक्षण देने की बात हो रही है, क्या इस से समानता लाई जा सकती है? नहीं बिल्कुल नहीं, स्त्री और पुरूष उस समय तक समान नहीं होंगे जब तक पुरूष स्त्री की तरह बच्चा न जन्ने लगें उसके जुल्फों की स्याही और गालों की सुर्खी आकर्षण का केन्द्र न बन जाय, उसकी आँखों की तिरछी निगाहें दिलों को जख्मीं न करने लगे। उसके अल्लढ़ होंट गुलाब की प
त्तियों में परिवर्तित न हो जायं, उसकी चाल में नजाकत, अन्दाज में शराफत और आवाज में हलावत पैदा न हो जाय, उसकी अंगड़ाई दिल पर बिजली बन कर न गिरने लगे और उसकी छातियों में उभार पैदा होकर उनमें दूध न उतर आए।तात्पर्य यह है कि जिसे प्रकृति ने समान नहीं किया उसे यह इन्सान कैसे समान कर सकता है?
तथाकथित महिला स्वतन्त्रता की यह आवाज सब से पहले पश्चिमी देशों में उठी थी, परन्तु पश्चिमी देशों का अगुआ अमेरिका अपने देश को आज तक(2010)कोई महिला राष्ट्रपति न दे सका, एक विदेश मंत्रालय को छोड़कर जिस पर किसी खास उद्देश्य से वे अपने यहां की किसी महिला को बिठाते हैं, बाकी तमाम महत्वपूर्ण पद पर आज भी वहां पुरूष ही नजर आता है। आप अपने ही देश में देखें कितने ही विभागों में पचास प्रतिशत तक महिलाएं हैं परन्तु रोड वेज बसों में आज तक एक महिला भी बस
ड्राईवर के पद पर नहीं देखी गई, आटो रक्शा और टेम्पो टेक्सी चलाते हमने किसी महिला को नहीं देखा।Monday, June 28, 2010
,मोमिन ,इस्लाम की दुनिया ,उम्मी का कलाम, हर्फ़ ए ग़लत , वगैरा , ज़ाहिर हे कि नाम से स्वयं को मुस्लमान ज़ाहिर करना ओर इस्लाम से शत्रुता की बात करना ,जो उधा
में कहना चाहता हूँ कि गलियां देलेना ,तरह तरह से बद ज़ुबानी कर लेना ,कोई कमाल नहीं होता , यह कोई बड़ी बात नहीं कि आप कोई विषय या तर्कों के न होते हुए भी भरपूर लफ्फाजी कर लेते हें ,ओर बिना विषय भी कई कई लाइने लिख लेते हें ,ओर आप एक जुबान में भांति भांति की गलियां दे लेते हें ,या कई कई परकार से किसी का मजाक उड़ा लेते हें ,बल्कि कमाल इस में होता कि आप कुरान ए करीम के उस चेलेंज को कबूल करते हुए उस जेसा कुछ पेश करते ओर फिर कहते कि देखो कुरान मजीद जिस चीज़ का इंकार करता हें मैंने वह कर दिखाया हें ,
प्रश्न यह हें कि यह लोग कोन हें ओर यह इस परकार का तूफ़ान ए बद तमीजी क्यों खड़ा करते हें ,जवाबन कहा जा सकता हें कि यह लोग इस्लाम विरोधी हें ,ख्याल रहे कि यह धर्म विरोधी कतई नहीं हें ,क्यों कि अगर यह धर्म विरोधी होते तो कभी कभार ही सही इनको एक आध कमी, खामी, किसी अन्य धर्म में भी नज़र आती,परन्तु एसा इन्हों ने कभी नहीं किया ,इस लिए यह तो तय हें कि यह लोग नास्तिक नहीं आस्तिक हें अब इन कि मानसिकता का अंदाज़ा कीजिये कि यह लोग अल्लाह का नाम ले ले कर उसे गालिया देते हें कपटी ,जंगली ,जाहिल ओर न जाने क्या क्या कहते हें ,इन बेचारों को इतना भी सलीका नहीं कि अल्लाह उसी एक सर्व शक्तिमान ईश्वरीय सत्ता का नाम हें जिस ने इस विशाल बर्हामांड की रचना कि हें ,ओर उसे गाली देना या बुरा कहना आसमान पर थूकने जेसा हें जो स्वयं के ही मुंह पर आता हें ,
अक्सर इस्लाम धर्म पर कीचड उछलने वाले अपने धर्म को छुपाकर चलते हें ,ओर स्वयं को नास्तिक ज़ाहिर करते हें ,परन्तु नास्तिक होना कोई अक़ल्मंदी की बात नहीं ,क्यों की इन्सान कितना भी महान होजाए, कम से कम एक समयं इन्सान पर एसा आता ही हें , जब वह स्वयं को कमज़ोर ओर असहाय महसूस करता हें ,ओर वह समयं हें ,उसकी मोंत का समयं ,अगर इन्सान कहीं जाकर छोटा पड्जता हे तो उसे मान लेना चाहिए कि कोई हे जो उस के ऊपर हे ,ओर वही अल्लाह हे ,,,
Saturday, June 19, 2010
फिरदोस का इस्लाम सम्बन्धी ज्ञान सुना सुनाया है
कुछ लोगों के सर पर सस्ती शोहरत का भूत सवार होता है , आज कल शोहरत हासिल करने का आसन नुस्खा हे इस्लाम में फी निकालने का ,कम से कम इस्लाम मुखालिफ तो एसे इन्सान को हाथोंहाथ लेते हैं ,यहाँ हम बात कर रहे हें ,एक महिला की,, जिसे ब्लागर फिरदोस नाम से जानते हें ,इन्हें कभी पर्दा बुरालागता हे ,कभी कुरआन की आयतों में कमी नज़र आती हे ,कभी कहती हें कि इस्लाम में भी सुधार की गुंजाईश होती ती तो अच्छा होता,,वगेरा ,,वगेरा ,,,इस्लाम दुनिया के बड़े मज़ाहिब में से एक हे ,,जिस के पास अपनी पूर्ण जीवन व्यवस्था हे ,,,,,जिस पर आधारित बहुत से देशों में हुकूमत भी चलाई जाती हे ,,,एसे धर्म के बारे में उस व्यक्ति की टिपण्णी जिस ने उसे शोध कि हद तक न पढ़ा हो क्या उचित हे ? जब कि फिरदोस का ज्ञान तो इस्लाम के सम्बन्ध में केवल सुना सुनाया हे , यव हम इस लिए कह रहे हें कि फिरदोस ने अपने एक लेख में लिखा था कि उसने दर्जा दो तक मदरसे में धार्मिक शिक्षा वह भी एक मुल्लानी से प्राप्त कि थी ,अब ज़रा सोचें कि अगर कौई व्यक्ति साइंस पर टिपण्णी करे ,उस के नियमों में सुधार का मशविरा दे ,ओर कहे कि मेने भी दर्जा दो तक साइंस पढ़ी हे तो उसके बारे में आप क्या कहेंगें ? ,,,अभी हाल ही में फिरदोस का एक लेख उर्दू में पढ़ा ,लिखती हें कि हम ने बजुर्गों से सुना हे कि ,शायरों की बख्शिश नहीं होगी ,, आगे लिखती हें कि अगर एसा हे की सारे शायर दोज़ख में जायेगें तो हमें दोज़ख भी कबूल हे , क्यों की वह भी (दोज़ख भी ) अल्लाह की ही बनायीं हुयी तो हे ,,? ,,क्या खूब तर्क हे ,,इस पर हम थोडा बाद को बात करेंगे ,पहले इस पर चर्चा करलें ,,जो उन्हों नें बजुर्गों से सुना हे ,वह जिस जानिब इशारा कर रही हें जिस की वजह से उन्हें दोज़ख भी कबूल हे ,,वह कुरान की सूरः २६ की आयत २२४ हे जिस में कहा गया हे की शायर लोग भटके हुए लोगों की पेरवी करते हें ,, ,इस आयत का शान ,ए,नुजूल यह हे कि मुमम्मद साहब सल्लल्लाहु अलैहिवसल्लम जब लोगों को कुरआन पढ़ कर सुनाते तो मुखालिफ लोग उन्हें कहते कि यह तो शायर हें ,चुनाचे कुरआन में इस का इंकार किया गया ओर कहा गया कि मुहम्मद सल्लल्लाहु अलेही वसल्लम शायर नहीं ,ओर शायरों की पैरवी वह करे जो भटक गया हो .परन्तु यह फिरदोस के बजुर्ग हें जिन्हों ने इस बात का बतंग्गढ़ बनादिया ,उधर फिरदोस हें कि सुनी सुनाई बातों की बुनियाद पर दोज़ख में जाने को तैयार हें ,,, अब बात दोज़ख में जानें की करते हें ,,ऐसी बातें वह करे ,,,जिसे अल्लाह की पकड़ का भय न हो ,ओर यह तर्क भी खूब रहा की धोज़ख भी तो अल्लाह की ही बनायीं हुयी हे ,,एरे भाई क्या आप अपनी एक ही अंगुली आग के हवाले कर सकते हें यह कहते हुए की आग भी अल्लाह की बनायीं हुयी हे ,खेर हम तो फिरदोस के लिए दुआ ही कर सकते हें,,साथ ही उन्हें यह मशविरा भी हें कि जिस चीज़ का इन्सान को ज्ञान न हो उस पर ख़ामोशी बेहतर होती हें ,,परन्तु जब बुद्धिजीवी बन ने का सर पर खब्त सवार हो ,खामोश रहना मुश्किल होता हें ,फिरदोस एक जर्नलिस्ट हें ,हो सकता हें वह पत्रकारिता बहुत अच्छी कर लेती हों ,परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि वह ला कालिज वालों को या पुरातत्व विभाग को भी मशविरा दें कि उन्हें अपने यहाँ क्या रखना चाहिए ओर क्या निकाल देना चाहिए , एक बात ओर ,,, इस्लाम धर्म का सारा ज्ञान या तो अरबी भाषा में हें ओर या उर्दू में ,भारत में बिना उर्दू की मदद के अरबी भाषा का ज्ञान प्राप्त करना आसान नहीं ,अब ज़रा उन के उर्दू ज्ञान के बारे में देखें कि उनका नाम फिरदोस हें अर्थात उनके नाम के आखिर में छोटा सीन आएगा ,न कि बड़ा ,जब कि वह अपने नाम में हमेशा बड़े शीन का पर्योग करती हें ,ओर हमें फ़ौरन अपने एक अफसर याद आजाते हें ,जो बात बात में बड़े शीन का पर्योग करते थे ,,,,,,बेतर हो कि कुछ बात फिरदोस कि शायरी पर भी कर ली जाए ,,शायरी के नाम पर यह जो कुछ लिखती हें उसे हो सकता हें हिंदी में शायरी माना जाता हो ,उर्दू में तो उन के कलाम को नसरी नज़्म कहा जा सकता हें ,ओर उर्दू के नाकिदों ने नसरी नज़्म लिखने वालों को लताड़ पिलाते हुए मशविरा दिया हें, कि वह नसर व् नज़्म को खल्त मल्त न करें ,देखें उन्वान चिश्ती कि तनक़ीद
नज्म में नस्र जो लिखते हें वह कुछ भी लिखते ,,,,,
नज्म में पर नस्र यूँ न मिलायी जाती ,,,,,
फिरदोस की नज्म पर यह कहना हें मुझे ,,,,
हम से नम्कीम मिठाई नहीं खायी जाती ,,,,
फिरदोस की कुछ नज्में ऐसी भी होती हें जिन पर उर्दू का रंग चढ़ा होता हें परन्तु वह भी आउट आफ काफिया ,होती हें , उनमे ,फीलपा ,,श्तुर्गुरबा ,,,शकिस्त ना रवा,, जेसी तो आम खराबियां होती हें ,,इस लिए बेहतर यह हें की जो जिसका मैदान हें वह उसी में रहे ,,,
Friday, June 11, 2010
तलाक लेना होगा आसान
Sunday, June 6, 2010
बेरागी जी ,,,आदाब अर्ज़ हे ,,
हज़रत आयशा की बड़ी बहिन( हज़रत अस्मां बिन्त अबुबकर ) जो उन से दस साल बड़ी थीं ,उन्हों ने सो साल की आयु पाई ओर उनका सवरगवास सन बहत्तर हिजरी में हुआ ,इस पर तमाम इतिहासकार सहमत हें ,इस हिसाब से ज़ाहिर हे कि हिजरत के समय हज़रत अस्मां की आयु २८ साल बनती हे ,अर्थात इस समय उन की छोटी बहिन आयशा(जो अस्मां से दस साल छोटी हें ) की उम्र १८ साल हुयी ,ओर यह बात भी तारिख के दामन में महफूज़ हे कि हज़रत मुहम्मद साहब (सल्लाल्लाहुअलेहीवसल्लम) का निकाह हज़रत आयशा के साथ सन एक हिजरी में ओर रुखसती उसके दो साल बाद तीन हिजरी में हुयी , इस का मतलब यह निकलता हे कि निकाह के समय हज़रत आयशा की उम्र १९ साल ओर रुखसती के समय २१ साल थी ,,,,,ओर यह ऐसा गणितीय तर्क हे जिसे झुटलाया नहीं जा सकता ,क्यों कि जो कुछ ऊपर लिखा गया वह तारीखी हकीक़त हे ,जिस से साफ ज़ाहिर होता हे ,कि सात साल कि बच्ची से शादी रसूलुल्लाह (सल्लाल्लाहुअलेहीवसल्लम) पर महज़ मुखालिफीन का इलज़ाम हे , ,,जिस का यकीन नहीं किया जासकता ,,,,